Vsk Jodhpur

देश को क्यों बांट रहा है मीडिया ?’

40 12 01 58 menon featured copy H@@IGHT 350 W@@IDTH 400मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह  कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों  पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है।
– संजय द्विवेदी
काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्नों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व.श्री ताराकांत झा भी उस सभा में थे, उन्होंने मुझे जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा “आखिर देश का कौन सा प्रश्न या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक है?” जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो याकूब मेमन की फांसी पर देश को बंटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आई।
आतंकवाद जिसने कितनों के घरों के चिराग बुझा दिए, भी हमारे लिए विवाद का विषय है। जिस मामले में याकूब को फांसी हुई है, उसमें कुल संख्या को छोड़ दें तो सेंचुरी बाजार की अकेली साजिश में 113 बच्चे, बीमार और महिलाएं मारे गए थे। पूरा परिवार इस घटना में संलग्न था। लेकिन हमारी राजनीति और मीडिया दोनों इस मामले पर बंटे हुए नजर आए। यह मान भी लें कि राजनीति का तो काम ही बांटने का है और वे बांटेंगें नहीं तो उन्हें गद्दियां कैसे मिलेंगीं? इसलिए हैदराबाद के औवेसी से लेकर दिग्विजय सिंह, शशि थरूर सबको माफी दी जा सकती है कि क्योंकि वे अपना काम कर रहे हैं। वही काम जो हमारी राजनीति ने अपने अंग्रेज अग्रजों से सीखा था। यानी फूट डालो और राज करो। इसलिए राजनीति की सीमाएं तो देश समझता है। किंतु हम उस मीडिया को कैसे माफ कर सकते हैं जिसने लोकजागरण और सत्य के अनुसंधान का संकल्प ले रखा है।
टीवी मीडिया ने जिस तरह हमारे राष्ट्रपुरूष, प्रज्ञापुरूष, संत-वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की खबर को गिराकर तीनों दिन याकूब मेमन को फांसी को ज्यादा तरजीह दी, वह माफी के काबिल नहीं है। प्रिंट मीडिया ने थोड़ा संयम दिखाया पर टीवी मीडिया ने सारी हदें पार कर दीं। एक हत्यारे-आतंकवादी के पक्ष पर वह दिन भर औवेसी को लाइव करता रहा। क्या मीडिया के सामाजिक सरोकार यही हैं कि वह दो कौमों को बांटकर सिर्फ सनसनी बांटता रहे। किंतु टीवी मीडिया लगभग तीन दिनों तक यही करता रहा और देश खुद को बंटा हुआ महसूस करता रहा। क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ना सिर्फ सरकारों, सेना और पुलिस की जिम्मेदारी है?

आखिर यह कैसी पत्रकारिता है, जिसके संदेशों से यह ध्वनित हो रहा है कि हिंदुस्तान के मुसलमान एक आतंकी की मौत पर दुखी हैं? आतंकवाद के खिलाफ इस तरह की बंटी हुयी लड़ाई में देश तो हारेगा ही दो कौमों के बीच रिश्ते और असहज हो जाएंगें। हिंदुस्तान के मुसलमानों को एक आतंकी के साथ जोड़ना उनके साथ भी अन्याय है। हिंदुस्तान का मुसलमान क्या किसी हिंदू से कम देशभक्त है? किंतु औवेसी जैसे वोट के सौदागरों को उनका प्रतिनिधि मानकर उन्हें सारे हिंदुस्तानी मुसलमानों की राय बनाना या बताना कहां का न्याय है? किंतु ऐसा हुआ और सारे देश ने ऐसा होते हुए देखा।

इस प्रसंग में हिंदुस्तानी टीवी मीडिया केबचकानेपन, हल्केपन और हर चीज को बेच लेने की भावना का ही प्रकटीकरण होताहै। आखिर हिंदुस्तानी मुसलमानों को मुख्यधारा से अलग कर मीडिया क्यों देखता है? क्या हिंदुस्तानी मुसलमान आतंकवाद की पीड़ा के शिकार नहीं हैं? क्या जब धमाके होते हैं तो उसका असर उनकी जिंदगी पर नहीं होता? देखा जाए तो हिंदू-मुसलमान दुख-सुख और उनके जिंदगी के सवाल एक हैं। वे भी समान दुखों से  घिरे हैं और समान अवसरों की प्रतीक्षा में हैं। उनके सामने भी बेरोजगारी, गरीबी, मंहगाई के सवाल हैं। वे भी दंगों में मरते और मारे जाते हैं। बम उनके बच्चों को भी अनाथ बनाते हैं। इसलिए यह लड़ाई बंटकर नहीं लड़ी जा सकती। कोई भी याकूब मेमन मुसलमानों का आदर्श नहीं हो सकता। जो एक ऐसा खतरनाक आतंकी है जो अपने परिवार से रेकी करवाता हो, कि बम वहां फटे जिससे अधिक से अधिक खून बहे, हिंदुस्तानी मुसलमानों को उनके साथ जोड़ना एक पाप है। हिंदुस्तानी मुसलमानों के सामने आज यह प्रश्न खड़ा है कि क्या वे अपनी प्रक्षेपित की जा रही छवि के साथ खड़े हैं या वे इसे अपनी कौम का अपमान समझते हैं? ऐसे में उनको ही आगे बढ़कर इन चीजों पर सवाल उठाना होगा। इस बात का जवाब यह नहीं है कि पहले राजीव गांधी के हत्यारों को फांसी दो या बेअंत सिंह के हत्यारों को फांसी दो। अगर 22 साल बाद एक मामले में फांसी की सजा हो रही है तो उसकी निंदा करने का कोई कारण नहीं है। कोई पाप इसलिए कम नहीं हो सकता कि एक अपराधी को सजा नहीं हुई है। हिंदुस्तान की अदालतें जाति या धर्म देखकर फैसले करती हैं यह सोचना और बोलना भी एक तरह का पाप है। फांसी दी जाए या न दी जाए इस बात का एक बृहत्तर परिप्रेक्ष्य है। किंतु जब तक हमारे देश में यह सजा मौजूद है तब तक किसी फांसी को सांप्रदायिक रंग देना कहां का न्याय है?

कांग्रेस के कार्यकाल में फांसी की सजाएं  हुयी हैं तब दिग्विजय सिंह और शशि थरूर कहां थे? इसलिए आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई के सवालों को हल्का बनाना, अपनी सबसे बड़ी अदालत और राष्ट्रपति के विवेक पर संदेह करना एक राजनीतिक अवसरवाद के सिवा क्या है? राजनीति की इसी देशतोड़क भावना के चलते आज हम बंटे हुए दिखते हैं। पूरा देश एक स्वर में कहीं नहीं दिखता, चाहे वह सवाल कितना भी बड़ा हो। हम बंटे हुए लोग इस देश को कैसे एक रख पाएंगें? दिलों को दरार डालने वाली राजनीति,उस पर झूमकर चर्चा करने वाला मीडिया क्या राष्ट्रीय एकता का काम कर रहा है? ऐसी हरकतों से राष्ट्र कैसे एकात्म होगा? राष्ट्ररत्न-राष्ट्रपुत्र कलाम के बजाए याकूब मेमन को अगर आप हिंदुस्तान के मुसलमानों का हीरो बनाकर पेश कर रहे हैं तो ऐसे मीडिया की राष्ट्रनिष्ठा भी संदेह से परे नहीं है? क्या मीडिया को यह अधिकार दिया जा सकता है कि वह किसी भी राष्ट्रीय प्रश्न लोगों को बांटने का काम करे? किंतु मीडिया ने ऐसा किया और पूरा देश इसे अवाक होकर देखता रहा।

मीडिया का कर्म बेहद जिम्मेदारी का कर्म है। डॉ. कलाम ने एक बार मीडिया विद्यार्थियों शपथ दिलाते हुए कहा था-“मैं मीडिया के माध्यम से अपने देश के बारे में अच्छी खबरों को बढ़ावा दूंगा, चाहे वो कहीं से भी संबंधित हों।” शायद मीडिया अपना लक्ष्य पथ भूल गया है। पूरी मीडिया की समझ को लांछित किए बिना यह कहने में संकोच नहीं है कि टीवी मीडिया का ज्यादातर हिस्सा देश का शुभचिंतक नहीं है। वह बंटवारे की राजनीति को स्वर दे रहा है और राष्ट्रीय प्रश्नों पर लोकमत के परिष्कार की जिम्मेदारी से भाग रहा है। सिर्फ दिखने, बिकने और सनसनी फैलाने के अलावा सामान्य नागरिकों की तरह मीडिया का भी कोई राष्ट्रधर्म है पर उसे यह कौन बताएगा। उन्हें कौन यह बताएगा कि भारतीय हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के नायक भारतरत्न कलाम हैं न कि कोई आतंकवादी। देश को जोड़ने में मीडिया एक बड़ी भूमिका निभा सकता है, पर क्या वह इसके लिए तैयार है? 

– लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं।   
साभार: न्यूज़ भारती

सोशल शेयर बटन

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archives

Recent Stories

Scroll to Top