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मार्क्सवाद एक ‘बंद व्यवस्था’

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डॉ आंबेडकर ने अनेक अवसरों पर साम्यवादियों की सोच की खामियां गिनाई हैं। वे  कहते हैं कि साम्यवाद दो चीजों पर टिका है-हिंसा और मजदूर वर्ग की तानाशाही


डॉ. युवराज कुमार

आधुनिक भारत के चिंतक डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने साम्यवाद के प्रति अपना दृष्टिकोण अपने निबंध ‘बुद्ध या कार्ल मार्क्स’ में स्पष्ट किया है।1956 में काठमांडो (नेपाल) में आयोजित ‘बौद्ध विश्व फेलोशिप’ के चौथे सम्मेलन में उन्होंने यह निबंध प्रस्तुत किया। डॉ़ आंबेडकर कार्ल मार्क्स को आधुनिक समाजवाद या साम्यवाद का जनक मानते थे।

मार्क्स का मूल उद्देश्य यह सिद्ध करना था कि उनका साम्यवाद का सिद्धांत मात्र एक कपोल-कल्पना नहीं बल्कि वैज्ञानिक कसौटी पर सच्चा साबित होने वाला एक यथार्थवादी व्यावहारिक सिद्धांत है। भारतीय साम्यवादी परंपरा में मार्क्सवाद जिस प्रकार आया, उसने अपनी दृष्टि को संकुचित रखा। साम्यवादी और समाजवादी दलों के सदस्यों ने इस अज्ञानता का औचित्य भी रखा था, पर यह सब कुछ कांग्रेस में शामिल प्रगतिशील तथा वामपंथियों पर भी लागू होता था। शोषण तथा मुक्ति के एक विस्तृत परिप्रेक्ष्य में, वर्ग श्रेणियों ने भारतीय मार्क्सवादियों को विश्लेषण के लिए एक श्रेष्ठ साधन उपलब्ध करा दिया था।

लेकिन उस परिवेश में अन्य कारकों (दलितों, किसानों इत्यादि के संघर्षों) से प्रेरणा लेकर भी बंधना था, जो कि नहीं बंध पाए, क्योंकि 1930 के पश्चात भारत में तीन अखिल भारतीय दलित संगठन उभर चुके थे। आंबेडकर ने 1930 में ‘डिप्रेस्ड क्लास एसोसिएशन’, जो सबसे पहला दलित वर्ग संघ था, की स्थापना की थी, 1942 के बाद जिसे ‘अनुसूचित जाति संघ’  कहा गया। ‘डिप्रेस्ड क्लास लीग’ की स्थापना जगजीवन राम ने की थी। इनमें से कोई भी संस्था सक्रिय रूप में अखिल भारतीय स्तर पर कार्य नहीं करती थी। बाद में अखिल भारतीय स्तर पर ‘अनुसूचित जाति संघ’ बना। अखिल भारतीय स्तर पर ये समितियां, संघ और लीग विभिन्न अखिल भारतीय प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती थीं। पहली प्रवृत्ति का संबंध हिन्दू महासभा से, दूसरी का आंबेडकर के साथ और तीसरी का संबंध गांधीवादियों के साथ था। स्थानीय स्तर पर दलित संगठन इन संघों के साथ जुड़ सकते थे। गांधीवादी कांग्रेस के गठबंधन दो स्तरों पर कार्य करते थे, ‘हरिजन सेवक संघ’ जो हिंदू जाति संगठन था, और लीग जो कांग्रेस समर्थक दलितों को लामबंद करने का काम करती थी। पर साम्यवादियों तथा वामपंथियों ने दलितों मुद्दों पर अपने स्वयं के मोर्चे खोलने की आवश्यकता नहीं समझी। अगर साम्यवादियों ने कुछ पहल की होती तो पार्टी में गैर ब्राह्मणों और दलितों की अधिक भर्ती होती और इससे भारतीय मार्क्सवाद का नया रूपान्तरण होता (गेल ओमवेट, पृ.173-175)।

लेकिन, साम्यवादियों ने कहा कि राज्य पर कब्जा करो और भूमि का पुनर्वितरण करो। यदि ऐसा हुआ तो सारी समस्याएं सुलझ जाएंगी। 
व्यवहारत: साम्यवादियों ने मार्क्सवाद को एक ‘बंद सिद्धांत’ के रूप में देखा, विकासशील विज्ञान के रूप में नहीं। इसका परिणाम यह हुआ कि आंबेडकर जैसे नेता के साथ उनका कोई संवाद स्थापित नहीं हो सका। इसलिए जब आंबेडकर ने मार्क्सवाद पर प्रतिक्रिया दी तब उन्होंने मार्क्सवाद को ‘बंद व्यवस्था’ कहा। यह कई निर्णायक बिंदुओं के संदर्भ में मात्र उदासीनता नहीं थी, बल्कि यह दलित संघषार्ें के विरुद्ध की परिस्थिति थी। मार्क्सवाद से उन्होंने कई विषय लिए पर मार्क्सवाद को विश्लेषण के स्रोत अथवा किसी कार्यक्रम को संचालित करने के लिए स्रोत के रूप में स्वीकार नहीं किया। (गेल ओमवेट,  पृ. 176)।

सितंबर 1937 के प्रारंभ में आंबेडकर ने अपने स्वतंत्र मजदूर दल का प्रचार करने के दौरान दलित वर्ग द्वारा मैसूर में आयोजित जिला परिषद के अध्यक्ष पद से भाषण देते हुए कहा, ”मेरा यह ठोस मत बना है कि गांधी जी के हाथों मजदूर और दलित वर्ग का हित नहीं होगा।” कम्युनिस्टों द्वारा चलाए गए मजदूर आंदोलन के बारे में उन्होंने कहा, ”मेरा कम्युनिस्टों से संबंध रखना बिल्कुल संभव नहीं है।

मैं कम्युनिस्टों का कट्टर दुश्मन हूं।” आंबेडकर का यह ठोस मत था कि कम्युनिस्ट अपनी राजनीतिक ध्येय सिद्धि के लिए मजदूरों का शोषण करते हैं। (धनंजय कीर: पृ.282)” आंबेडकर के अनुसार,”साम्यवादी व्यवस्था शक्ति पर आधारित होती है। यदि रूस में अधिनायकवाद विफल हो जाए तब वहां की स्थिति क्या होगी? जैसा कि मैं सोचता हूं, राज्य की संपत्ति को हड़पने के लिए वहां रूसी लोगों में परस्पर रक्तिम लड़ाई होगी, क्योंकि उन्होंने साम्यवादी व्यवस्था को स्वेच्छा से स्वीकार नहीं किया है। वे उसकी अनुपालना इस भय के कारण कर रहे है कि कही उन्हें फांसी पर न लटका दिया जाए। ऐसी किसी व्यवस्था की जड़ें जम नहीं पातीं और इसलिए मेरे निर्णयानुसार, जब तक साम्यवादी इन प्रश्नों के उत्तर देने में सक्षम नहीं होते, उनकी व्यवस्था का क्या होगा?” (बी़ आऱ आंबेडकर: ‘बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म’, इंटरनेशनल बुद्धिस्ट कांफ्रेंस, काठमांडो (नेपाल) में दिया गया व्याख्यान, दिनांक 20 नवम्बर, 1956 (डॉ़ आंबेडकर और मार्क्सवाद)।

आंबेडकर के अनुसार साम्यवाद को स्थापित करने के दो मार्ग हैं— हिंसा और श्रमिक वर्ग की तानाशाही। हिंसा द्वारा विद्यमान ढांचा नष्ट किया जा सकता है तथा श्रमिक वर्ग की तानाशाही द्वारा नया शासन अर्थात् साम्यवादी सरकार चलाई जा सकती है। इसका अर्थ यह है कि साम्यवाद पुनर्रचना की अपेक्षा हिंसा का ही अधिक समर्थन करता है। पूंजीपतियों के विरोध पर विजय पाकर श्रमिक वर्ग के आधिपत्य को स्थापित करने के लिए साम्यवाद हिंसात्मक मार्ग को अपनाता है। मानव जीवन का इसमें कोई मूल्य नहीं है।

बुद्ध हिंसा के विरुद्ध थे,  परंतु वे न्याय के पक्ष में भी थे और जहां पर न्याय के लिए बल प्रयोग अपेक्षित होता है, वहां उन्होंने बल प्रयोग करने की अनुमति दी है। बुद्ध एक लोकतंत्रवादी के रूप में पैदा हुए थे और लोकतंत्रवादी के रूप में ही मरे। वे अनिष्टकर साध्य को नष्ट करने की प्रक्रिया में यथासंभव अधिक से अधिक साध्यों की रक्षा कर सके।
बल-प्रयोग को हटाने के बाद जो चीज इसे कायम रख सकती है, वह केवल धर्म ही है, परंतु साम्यवादियों की दृष्टि में धर्म अभिशाप है। धर्म के प्रति उनमें घृणा इतनी गहरी पैठी है कि वे साम्यवादियों के लिए सहायक पंथों तथा जो उनके लिए सहायक नहीं हैं, उन के बीच भी भेद नहीं करेंगे। (संपूर्ण वाड्मय, खंड 7,  भाग 11) आंबेडकर ने
‘बुद्धा या कार्ल मार्क्स’ पुस्तक में कार्ल मार्क्स की विचारधारा की तीखी आलोचना की है और समाज में स्थायी शान्ति के लिए बौद्ध धर्म को आवश्यक बताया है। आंबेडकर ने दोनों विचारधाराओं की तुलना करते हुए कहा :-
मार्क्सवाद निश्चित रूप से भौतिक दर्शन है। उसमें मन अथवा चित्त को भौतिक तत्वों से उत्पन्न बताया है, परन्तु बौद्ध-दर्शन में ‘भूत’ से ‘चित्त’ की उत्पत्ति अथवा ‘रूप’ से ‘नाम’ की उत्पत्ति होने का संकेत नहीं है।”

बौद्ध धर्म पुनर्जन्मवादी है जबकि मार्क्सवाद पुनरुत्पत्ति को नहीं मानता।
मार्क्सवाद परिवर्तन लाने के लिए हिंसा और शस्त्रबल पर विश्वास करता है परन्तु बौद्ध धर्म इस संदर्भ में पूर्ण अहिंसक है।

मार्क्सवाद ने धर्म को ‘अफीम’ मानकर उसका तिरस्कार किया है जबकि बौद्ध धर्म में धर्म को समाज के नैतिक विकास में प्रधान कारण माना गया है। वह समाज का नियामक है।

मार्क्सवाद मात्र आर्थिक समानता का धर्म है जबकि बौद्ध धर्म सामाजिक समानता का पोषक है।

 मार्क्सवाद में नैतिकता सर्वहारा वर्ग के हितों की रक्षा करती है।आंबेडकर केवल सर्वहारा के लिए नैतिकता नहीं बल्कि समाज में सभी के लिए समान नैतिकता पर विश्वास करते थे।
    बौद्ध धर्म में दु:ख की उत्पत्ति का कारण अज्ञान, तृष्णा, राग, द्वेष और मोह है, पर मार्क्सवाद में वह दु:ख
आध्यात्मिक नहीं बल्कि आर्थिक है। 
    बौद्ध धर्म की आध्यात्मिक समता मार्क्सवाद में दिखाई नहीं देती। बौद्ध आचार सहिंता में दान का महत्व है परन्तु मार्क्स विचारधारा दान के प्रत्यय के बिल्कुल विरुद्ध है।        
आंबेडकर को बुद्धिज्म एवं मार्क्सज्मि, दोनों का मौलिक ज्ञान था और उनका विवेक व्यावहारिक था, न कि भावनात्मक।
साम्यवादी स्वयं इस बात को स्वीकार करते हैं कि एक स्थायी तानाशाही के रूप में राज्य का उनका सिद्धांत उनके राजनीतिक दर्शन की कमजोरी है। वे इस तर्क का आश्रय लेते हैं कि राज्य अंतत: समाप्त हो जाएगा। दो ऐसे प्रश्न हैं, जिनका उन्हें उत्तर देना है। राज्य समाप्त कब होगा? जब वह समाप्त हो जाएगा, तो उसके स्थान पर कौन आएगा? प्रथम प्रश्न के उत्तर का कोई निश्चित समय नहीं बता सकते। लोकतंत्र को सुरक्षित रखने के लिए भी तानाशाही अल्पावधि के लिए अच्छी हो सकती है और उसका स्वागत किया जा सकता है, लेकिन तानाशाही अपना काम पूरा कर चुकने के बाद लोकतंत्र के मार्ग में आने वाली सब बाधाओं तथा शिलाओं को हटाने के बाद स्वयं समाप्त क्यों नहीं हो जाती? साम्यवादियों ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया है। जब राज्य समाप्त हो जाएगा तो उसके स्थान पर क्या आएगा, इस प्रश्न का उन्होंने किसी भी प्रकार कोई संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। क्या इसके बाद अराजकता आएगी? यदि ऐसा होगा तो साम्यवादी राज्य का निर्माण एक निरर्थक प्रयास है। यदि इसे बल प्रयोग के अलावा बनाए नहीं रखा जा सकता और जब उसे एक साथ बनाए रखने के लिए बल प्रयोग नहीं किया जाता और यदि इसका परिणाम अराजकता है, तो फिर साम्यवादी राज्य से क्या लाभ है।

साभार :: पाञ्चजन्य

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