राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के तृतीय सरसंघचालक, बालासाहब देवरस ने 8 मई 1974 को पुणे की प्रसिद्ध वसंत व्याख्यानमाला में ‘सामाजिक समरसता एवं हिंदू एकीकरण’ विषय पर एक अत्यंत महत्वपूर्ण उद्बोधन दिया । यह भाषण न केवल RSS के इतिहास में, बल्कि भारतीय सामाजिक चिंतन के क्षेत्र में भी एक मील का पत्थर साबित हुआ । अपने इस व्याख्यान में, देवरस ने हिंदू समाज में व्याप्त सामाजिक बुराइयों पर गहरी चिंता व्यक्त की और एकता की आवश्यकता पर ज़ोर दिया ।
वसंत व्याख्यानमाला, जिसका आयोजन पुणे में ‘वक्तृत्वोत्तेजक सभा’ द्वारा किया जाता है, एक प्रतिष्ठित मंच है जिसकी स्थापना 1875 में न्यायमूर्ति महादेव गोविंद रानडे ने की थी । यह व्याख्यानमाला प्रतिवर्ष वसंत ऋतु में पुणे के तिलक स्मारक मंदिर में आयोजित होती है । 8 मई 1974 को बालासाहब देवरस का यह महत्वपूर्ण भाषण इसी ऐतिहासिक सभागार में हुआ ।
अपने इस महत्वपूर्ण व्याख्यान के लिए बालासाहब देवरस ने गहन तैयारी की थी । उन्होंने विषय की गहराई में उतरकर विचार किया और अपने विचारों को स्पष्ट रूप से व्यक्त करने के लिए कई कार्यकर्ताओं के साथ चर्चा भी की ।
अपने उद्बोधन में, बालासाहब देवरस ने सामाजिक समरसता को हिंदू समाज के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता बताया । उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि जातिभेद और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक विषमताओं ने हिंदू समाज को कमजोर किया है । उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि इन बुराइयों को जड़ से समाप्त करना आवश्यक है ताकि समाज का उत्थान हो सके । उनका यह कथन, “यदि अस्पृश्यता पाप नहीं है तो संसार में अन्य कुछ भी पाप नहीं है। इस प्रथा का समूल विनाश आवश्यक है” , RSS के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है, क्योंकि यह संगठन के एक शीर्ष नेता द्वारा अस्पृश्यता की स्पष्ट और दृढ़ अस्वीकृति थी ।
बालासाहब ने सभी हिंदू बंधुओं के साथ समान प्रेम और सम्मान का व्यवहार करने का आग्रह किया, बिना किसी जाति या सामाजिक वर्ग के भेदभाव के । उन्होंने कहा कि किसी भी हिंदू भाई को नीचा समझना और उनसे दुत्कार का व्यवहार करना एक बड़ा पाप है । उन्होंने RSS के स्वयंसेवकों से इस तरह की संकीर्ण मानसिकता से दूर रहने का आह्वान किया । उनका दृढ़ विश्वास था कि व्यक्ति की महानता का निर्धारण उसके जन्म या जाति से नहीं, बल्कि उसके कर्मों और योगदान से होता है । सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए, उन्होंने ‘एक मंदिर, एक कुआं, एक शमशान’ जैसे विचारों का समर्थन किया ।
अपने भाषण में, बालासाहब देवरस ने हिंदू समाज को एकजुट और संगठित करने की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया । उन्होंने स्पष्ट किया कि संगठन का सही अर्थ केवल भीड़ नहीं है, बल्कि सभी को एक साथ लाना और एक साझा उद्देश्य के लिए मिलकर काम करना है । उन्होंने मातृभूमि के साथ मजबूत भावनात्मक संबंध स्थापित करने की आवश्यकता बताई ।
बालासाहब ने ‘हिंदू कौन?’ इस प्रश्न पर भी अपने विचार व्यक्त किए । उन्होंने कहा कि हिंदू शब्द की कई परिभाषाएँ हैं, लेकिन कोई भी पूर्णतः संतोषजनक नहीं है । उन्होंने हिंदू कोड का उदाहरण दिया, जिसमें मुसलमानों, ईसाइयों, यहूदियों और पारसियों को छोड़कर सभी को कानूनी रूप से हिंदू माना गया है ।
8 मई 1974 को दिया गया बालासाहब देवरस का यह भाषण भारतीय सामाजिक और राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण घटना थी । इसने RSS की विचारधारा और कार्यप्रणाली पर गहरा प्रभाव डाला । इस भाषण ने RSS के स्वयंसेवकों को सामाजिक समरसता के प्रति नई प्रतिबद्धता से भर दिया । इसके परिणामस्वरूप, RSS ने सामाजिक समरसता को अपने प्रमुख उद्देश्यों में से एक के रूप में अधिक सक्रियता से बढ़ावा देना शुरू कर दिया ।
बालासाहब देवरस के लिए ‘समानता’ और ‘समरसता’ केवल नारे नहीं थे, बल्कि उनके गहरे नैतिक और सामाजिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करते थे । उनका दृढ़ विश्वास था कि हिंदू समाज को एकजुट और मजबूत बनाने के लिए इन सिद्धांतों को व्यवहार में लाना आवश्यक है । इस व्याख्यान का तात्कालिक प्रभाव यह हुआ कि RSS के भीतर सामाजिक भेदभाव और अस्पृश्यता को समाप्त करने के प्रयासों में तेज़ी आई ।
दीर्घकालिक रूप से, इस भाषण ने RSS की सार्वजनिक छवि को बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । बालासाहब देवरस ने उन उपेक्षित वर्गों के प्रति गहरी सहानुभूति व्यक्त की जिन्होंने सदियों से सामाजिक भेदभाव का सामना किया था । उन्होंने कहा कि इन समुदायों को दया नहीं, बल्कि समाज में बराबरी का दर्जा और सम्मान चाहिए ।
8 मई 1974 को वसंत व्याख्यानमाला में दिया गया बालासाहब देवरस का यह ऐतिहासिक भाषण आज भी सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणा स्रोत है । उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं, खासकर जब भारत को सामाजिक सद्भाव और समावेशिता को मजबूत करने की आवश्यकता है ।
