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संघ और सरकार- विरोधाभास का सवाल नहीं

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संघ और सरकार- विरोधाभास का सवाल नहीं 

खुद को देश का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला अंग्रेजी अखबार बताने वाले एक दैनिक
के मुम्बई संस्करण में एक जनवरी 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के
नेतृत्व वाली राजग सरकार के सात महीने के कार्यकाल का लेखा-जोखा छापा था।
अब उसके करीब साढ़े चार महीने बाद 16 मई 2015 को इस अखबार ने सरकार के एक
साल पूरे होने पर एक और रपट प्रकाशित की। पहली रपट की तरह ही इस सर्वेक्षण
रपट में खामियां और पूर्वाग्रह भरे पड़े हैं। लेकिन चौंकाने वाली बात यह है
कि दोनों सर्वेक्षणों ने एक ऐसा परिणाम सामने रखा है जो किसी के दिमाग में
दूर-दूर तक नहीं था। सर्वेक्षण का पूरा खाका यह साबित करने के लिए था कि
‘रा.स्व.संघ का भारत के विकास पर उल्टा असर पड़ा है’, जबकि सर्वेक्षण का
निष्कर्ष अंतत: भारत के विकास पर रा.स्व.संघ का सकारात्मक असर दिखाता है।


सर्वेक्षण
की पूर्वाग्रह से भरी प्रश्नावली के उदाहरण से बात आरंभ करते हैं।
सर्वेक्षण का एक मौलिक सूत्र होता है, निष्कर्ष तक पहुंचाने वाले सवालों से
बचना। ऐसे सवाल जवाब देने वाले को कहीं न कहीं एक खास जवाब की तरफ मोड़
देते हैं। ऐसे सवाल उसी तरह के जवाब सुझाते हैं जो सर्वेक्षणकर्ता चाहता
है। इससे उसका पूर्वाग्रह जाहिर होता है।


अखबार ने इसी तरह का सवाल
पूछा,’आपको लगता है संघ परिवार की सक्रियता विकास के एजेंडे को नकारात्मक
रूप से प्रभावित कर रही है?’ अब इसमें से अगर आप ‘आपको लगता है’ हटा दें तो
जवाब, जैसा अखबार चाहता था, एक तरह से यही सामने आता है कि, ‘संघ परिवार
की सक्रियता विकास के एजेंडे को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रही है।’ अब
इस सवाल के निष्कर्षों पर नजर डालते हैं। 

(देखें, बॉक्स-1)
इसके नतीजों से यह बात साफ जाहिर होती है कि-
1.
संघ की सक्रियता विकास में सहायक रही है। ‘सक्रियता विकास को बाधित कर रही
है’, यह जवाब देने वालों में 20 प्रतिशत की कमी है और ‘सक्रियता विकास को
बाधित नहीं कर रही है’, यह जवाब देने वालों में 10 प्रतिशत बढ़ोत्तरी दिखती
है। और यह सब मात्र साढ़े चार महीनों में हुआ है।
 

उपरोक्त दोनों
निष्कर्षों को बॉक्स-2 में दिये जवाब पुष्ट करते हैं। दोनों सर्वेक्षणों का
पहला सवाल था-‘आप मोदी सरकार से क्या चाहते हैं?’ आंकड़े संकेत करते हैं
कि मीडिया में हिन्दुत्व को लेकर लागातार दुष्प्रचार किये जाने के बावजूद;
1.
ज्यादा से ज्यादा लोग (40 प्रतिशत) मानते हैं कि ‘हिन्दुत्व का उन्नयन’ और
‘विकास’ आपस में पूरक हैं और एक की अनुपस्थिति में दूसरा अर्थहीन है।
2.
साढ़े चार महीनों के अंतराल में इसको लेकर किसी के मन में भी कोई पसोपेश
नहीं है,जैसा कि ‘नहीं पता/कह नहीं सकते’ वाला जवाब देने वालों की संख्या
से साबित होता है, जो बॉक्स-1 के निष्कर्षों को सत्यापित करता है।
 

ये
संख्या इस मिथक को तार-तार करती है कि हिन्दुत्व के मुद्दे शासन और विकास
के विरोधाभासी हैं। सुखद बात यह है कि ये निष्कर्ष सभी आयु वर्गों में सच
पाये गए हैं और 40 प्रतिशत युवा (18-29 साल) मानते हैं कि ‘हिन्दुत्व का
उन्नयन’ उतना ही महत्वपूर्ण है जितना ‘विकास’ (बॉक्स-3)। साढ़े चार महीनों
में यह संख्या 100 प्रतिशत से ज्यादा बढ़ी है।
 

यह सर्वेक्षण आठ शहरों
में किया गया था। इसके निष्कर्ष तब और अधिक उत्साहजनक हो जाते हैं जब शहरों
के स्तर पर प्राप्त आंकड़ों पर नजर डाली जाती है। तीन शहरों में मिले
निष्कर्षों पर नजर डालें (बॉक्स-4), जो दक्षिण भारत में स्थित हैं जहां
भाजपा की ज्यादा उपस्थिति नहीं है।
द्रविड़ दलों के प्रभुत्व वाले
चेन्नई में 36 प्रतिशत लोग ‘विकास’ के साथ ‘हिन्दुत्व’ चाहते हैं। यह साढ़े
चार महीनों में 360 प्रतिशत का जबरदस्त उछाल दिखाता है।
 

आईटी शहर
बंगलूरु में 64 प्रतिशत लोग ‘विकास’ के साथ ‘हिन्दुत्व’ चाहते हैं। एक बार
फिर, साढ़े चार महीनों में 0 से 230 प्रतिशत का उछाल दिखता है।
ओवैसी
भाइयों के शहर हैदराबाद में हिन्दुत्व के साथ विकास चाहने वालों की संख्या
में इसी अंतराल में 100 प्रतिशत से ज्यादा की बढ़त दिखती है।
 

याद रहे इन
शहरों में ईसाई मिशनरियों की बड़ी संख्या है। इनसे एनजीओ का सवाल जुड़ा
हुआ है। 55 प्रतिशत लोगों ने कहा कि ‘मोदी सरकार ने उनके (एनजीओ) संदर्भ
में सही निर्णय लिया है’ और केवल 13 प्रतिशत ने कहा कि यह ‘बेमतलब का बैर
निकालना है।’
 

जब शहरों के अनुसार निम्नलिखित चार सवालों से प्राप्त डाटा
की तुलना की गयी तो एक दिलचस्प तस्वीर उभर कर आयी। (देखें, बॉक्स-5) ये
सवाल थे-
 ‘विकास तथा आर्थिक उन्नति’ और ‘हिन्दुत्व’ दोनों चाहिए।
संघ परिवार की सक्रियता ने विकास को नकारात्मक रूप से प्रभावित नहीं किया है।
मोदी सरकार ने सक्रियता को प्रोत्साहित किया है।
मोदी सरकार ने एनजीओ के संदर्भ में सही निर्णय लिया है।
 

केवल
27 प्रतिशत लोगों ने माना है कि ‘प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नीत सरकार ने
सक्रियता को प्रोत्साहित किया है’, क्योंकि उन्होंने घर वापसी को लेकर
मीडिया और विपक्ष द्वारा खेले गए खेल की असलियत जान ली है। उदाहरण के लिए
विपक्ष की एक भी पार्टी कन्वर्जन विरोधी विधेयक को पारित कराने के लिए आगे
नहीं आयी, यह तथ्य लोगों से छिपा नहीं रहा।
स्पष्ट है कि, भारत भर के
लोगाों का मानना है कि रा.स्व.संघ विकास में योगदान कर रहा है और उन्होंने
सरकार के आर्थिक उन्नति और विकास के साथ हिन्दुत्व को आगे बढ़ाने को समर्थन
दिया है। साथ ही उन एनजीओ के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई की बात कही है जो इन
दोनों आयामों के उभार को बाधित करते हैं।
 

22 प्रतिशत लोग अब भी ‘पता
नहीं/कह नहीं सकते’ की स्थिति में हैं। संघ की तरफ से एक स्पष्ट संदेश और
संघ की वास्तविक समझ न केवल 22 प्रतिशत लोगों की संघ के प्रति सकारात्मक
दृष्किोण बनाने में मददगार हुई बल्कि यह भाजपा के लिए ‘शासन’ और ‘अभी तक
पहुंच से दूर इलाकों में उपस्थिति दर्ज कराने’ में भी सहायक होगी।
 

आखिर
में एक और पूर्वाग्रह की चर्चा करते हैं। 1 जनवरी, 2015 की सर्वेक्षण रपट
का शीर्षक था ‘मोदी सरकार में विश्वास बढ़ा, लेकिन संघ की सक्रियता
चिंताजनक’, जो 16 मई 2015 के सर्वेक्षण के बाद ‘मोदी सरकार में विश्वास
बढ़ा, और संघ का विकास में योगदान’ हो जाना चाहिए था। लेकिन दुर्भाग्य से
यह हुआ, ‘पहले साल का इम्तिहान-मोदी सरकार को फर्स्ट डिवीजन, न कि
डिस्टिंगशन’। शीर्षक का महत्व होता है क्योंकि मई 2015 की सर्वेक्षण रपट
जनवरी 2015 की रपट का उल्लेख करती है। दुर्भाग्य से पूर्वाग्रहयुक्त शीर्षक
के साथ ही, विश्लेषण से भी नकारात्मकता ही निकली है और सकारात्मक प्रयासों
को नकारात्मक दर्शाया गया है। जवाब की तरफ इशारा करने वाला एक सवाल ‘आपको
लगता है संघ परिवार की सक्रियता विकास की एजेंडे को नकारात्मक रूप से
प्रभावित कर रही है’, जो सर्वे की जनवरी 2015 की रपट में पहले पन्ने पर
दिया गया था उसे मई 2015 की रपट में अन्दर के पृष्ठों में सिमटा दिया गया
और उसकी जगह एक दूसरा, जवाब की तरफ इशारा करने वाला सवाल दे दिया गया। ऐसा
इसलिए हुआ क्योंकि नकारात्मक सवालों तक ने अखबार की रा.स्व.संघ की
नकारात्मक छवि बनाने में मदद नहीं की। लेकिन वह दिन दूर नहीं जब
पूर्वाग्रहग्रस्त मीडिया को राष्ट्र निर्माण में संघ का सकारात्मक योगदान
स्वीकारना पड़ेगा। अभी तक मीडिया केवल भाजपा के संदर्भ में ही संघ को देखता
आया है। समय आ गया है जब मीडिया को अपना दृष्टिकोण बढ़ाते हुए संघ को
राष्ट्र निर्माण के संदर्भ में देखना पड़ेगा।

 -संदीप सिंह
लेखक www.swastik.net.in के संस्थापक हैं 



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