जब भारत में वैचारिक संघर्ष तीव्र हो और सांस्कृतिक अस्मिता पर आघात हो रहा हो — तब एक दृढ़ विचारक, साधक और संगठनकर्ता का स्मरण अपरिहार्य हो जाता है। ऐसे ही विचार नायक थे — परम पूज्य के. एस. सुदर्शन जी।
परम पूज्य सुदर्शन जी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की परंपरा में सेवा, संगठन और विचार के समन्वय का वह स्वरूप प्रस्तुत किया, जिसमें भारत का आत्मगौरव, स्वदेशी चिंतन और समरस समाज की झलक मिलती है। यह लेख उनके विचारों और जीवन-दर्शन को भावांजलि अर्पित करता है।
परम पूज्य सुदर्शन जी का जन्म 18 जून 1931 को रायगढ़ (छत्तीसगढ़) में हुआ था। उनका मूल नाम कुप्पहल्ली सीतारमैया सुदर्शन था। उनके पिता श्री रल्लापल्ली सीतारामैय्या वन विभाग में कार्यरत थे और बाल्यकाल से ही घर में देशभक्ति और अनुशासन का वातावरण था।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूर्ण करने के उपरांत उन्होंने 1954 में प्रचारक के रूप में संघकार्य स्वीकार किया। उनका पहला कार्यक्षेत्र यवतमाल (महाराष्ट्र) रहा। इसके बाद उन्होंने कई दायित्वों का निर्वहन किया — प्रांत प्रचारक, केंद्रीय कार्यवाह, और फिर 2000 में पांचवें सरसंघचालक नियुक्त हुए।
सुदर्शन जी का कार्यकाल कई दृष्टियों से उल्लेखनीय रहा —
• उन्होंने स्वदेशी विचारधारा को संघ-नीति का केंद्रीय तत्व बनाया।
• समाज के वंचित वर्गों में संगठन की पैठ को सशक्त किया।
• उन्होंने संघ और राजनैतिक संगठनों के बीच स्वस्थ संवाद और संतुलन बनाए रखा।
• उन्होंने धर्मांतरण, सांस्कृतिक विघटन और चरमपंथ के विरुद्ध सशक्त विचार रखा।
• उनका नेतृत्व वैचारिक स्पष्टता और आंतरिक साधना का संगम था।
सुदर्शन जी ने 1991 के उदारीकरण के पश्चात भारत में विदेशी पूंजी और संस्कृति के अंधानुकरण पर तीखा विरोध जताया।
उन्होंने स्वदेशी जागरण मंच को नए सिरे से सक्रिय किया। उनका कहना था, “जिस राष्ट्र की अर्थनीति उसकी संस्कृति और समाज के अनुकूल न हो, वह आत्मघाती मार्ग पर चल रहा होता है।” आज जब भारत ‘वोकल फॉर लोकल’ और ‘आत्मनिर्भर भारत’ की बात कर रहा है, तो यह उनके दूरदर्शी चिंतन की प्रासंगिकता को दर्शाता है।
सुदर्शन जी का मानना था कि जातिवाद और सामाजिक विषमता भारत की आत्मा को क्षीण करते हैं। उन्होंने स्वयं संघ और समाज के हर वर्ग में जातीय बंधनों को तोड़ने का आह्वान किया। वे सवर्णों से कहते थे, “यदि आपने हजार वर्षों तक अन्याय किया है, तो कम से कम सौ वर्षों तक बिना स्वार्थ के सेवा करें।” उनका यह दृष्टिकोण समाज को विघटन नहीं, समरसता की ओर ले जाता है।
सुदर्शन जी ने भारत की सुरक्षा और विदेश नीति पर भी स्पष्ट विचार रखे। उन्होंने पोखरण परमाणु परीक्षण (1998) को उन्होंने भारत की रक्षा स्वायत्तता की विजय बताया। वे चीन, अमेरिका या इस्लामी कट्टरता के प्रति सतर्क दृष्टिकोण रखते थे। उनका यह कथन बहुचर्चित हुआ, “भारत का इस्लामीकरण नहीं, इस्लाम का भारतीयकरण होना चाहिए।” वे संवाद के पक्षधर थे, लेकिन बिना आत्मसमर्पण के।
सुदर्शन जी ने कई बार ‘मेनस्ट्रीम मीडिया’ की वैचारिक पक्षपातिता पर आलोचना की। उनकी प्रेरणा से संघ कार्यकर्ताओं ने ‘पाञ्चजन्य’, ‘ऑर्गनाइज़र’, ‘स्वदेश’, ‘राष्ट्रधर्म’ जैसे वैचारिक मंचों को और सशक्त किया। आज जब डिजिटल भारत में वैकल्पिक मीडिया क्रांति देखी जा रही है, तो उसके बीज सुदर्शन जी की चिंता और चेतना में देखे जा सकते हैं।
सुदर्शन जी का जीवन सादगी और आत्ममंथन का प्रतीक था —
वे साइकिल से चलने वाले सरसंघचालक थे। उन्होंने नियमित योग, ध्यान, उपवास को जीवनचर्या में रखा। 2009 में उन्होंने स्वेच्छा से पद त्यागकर डॉ. मोहन भागवत को दायित्व सौंपा — यह परंपरा के प्रति उनकी श्रद्धा को दर्शाता है। उनका निधन 15 सितंबर 2012 को मैसूर (कर्नाटक) में हुआ, परंतु उनका विचार आज भी जीवंत है।
प. पू. सुदर्शन जी का जीवन एक यज्ञ की तरह था — जिसमें उन्होंने आत्मा की आहुति देकर राष्ट्र के भावी निर्माण की चिनगारी सुलगाई। वे केवल संघ के सरसंघचालक नहीं, बल्कि आधुनिक भारत के वैचारिक ऋषि थे। उनके चिंतन से प्रेरणा लेकर आज भी राष्ट्रवाद की लौ जल रही है और जलती रहेगी।
“भारत के लिए जीना और भारत के लिए मरना ही मेरा संकल्प है।”
– पू. के. एस. सुदर्शन