Vsk Jodhpur

लातें, लाठी और लोकतंत्र – और बीच में हमारी ‘श्रमिष्ठा’


अभी-अभी एक क्रांतिकारी मित्र मुझे गले लगाकर गया है। यह वही मित्र है जो कुछ साल पहले “राष्ट्रवादियों” को गरियाते हुए व्हिस्की की चुस्की के बीच संविधान की रक्षा कर रहा था। आज वह बंगाल पुलिस की गिरफ्तारी पर आंसू बहा रहा है – और रोते-रोते कह रहा था, “भैया, श्रमिष्ठा को उठवा लिया… लोकतंत्र खत्म हो गया।” मैंने पूछा – “लोकतंत्र खत्म हुआ या तुम्हारी पोल खुली?” उसने गले की पकड़ धीमी की और हाथ जोड़कर कहा – “अब तो तुम ही कुछ लिखो।”
अब मैं क्या लिखूं? लोकतंत्र पर लिखूं या नेताओं के चरित्र पर? श्रमिष्ठा पर लिखूं या उनके गिरफ्तारी के पीछे के चरित्र-प्रधान मंचन पर? पर लिखना तो पड़ेगा, आखिर जनता के चरणों में बैठा एक साहित्यकार हूं, जिसका धर्म है—सत्ता की चप्पलों की दिशा पहचानना। और फिलहाल चप्पलें श्रमिष्ठा के समर्थन में फेंकी जा रही हैं, तो चलो उसी ढेर में कलम डुबो देता हूं।
पहले तो बात करते हैं गिरफ्तारी की। श्रमिष्ठा को बंगाल पुलिस ने उठा लिया, ठीक वैसे ही जैसे पंडितजी का स्टूल कोई शिष्य उठाकर मंच पर ले जाता है। फर्क सिर्फ इतना है कि मंच पर पंडितजी प्रवचन करते हैं और यहां सोशल मीडिया पर प्रवक्तागण प्रवचन दे रहे हैं कि “एक महिला को कैसे उठाया गया!” इस वाक्य से मुझे याद आया – ये वही देश है जहां महिला चाहे तो देवी है, और विरोध करे तो ‘देशद्रोही’। बस यह टैग बदलने की कला ही आज की राजनीति है – और कलाकारों की कमी नहीं।
अब जरा उन राष्ट्रवादी नेताओं की बात करें जो श्रमिष्ठा की गिरफ्तारी से आहत हैं। आहत इस हद तक कि उन्होंने ट्वीट करते-करते अंगूठा छिलवा लिया। कोई कह रहा है, “लोकतंत्र खतरे में है,” कोई बोला, “महिला सम्मान रौंदा गया।” यानी वही लोग जो संसद में महिला आरक्षण विधेयक पर तब तक कुंभकर्णी नींद में थे, जब तक कुर्सी का टांग नहीं खिंचा, आज महिला सम्मान के रक्षासूत्र लपेटे मैदान में उतर आए हैं।
नेताओं की इस करुणा में इतनी मौलिकता है जितनी मंत्रीजी के पीए के ब्रीफकेस में मौलिक कागज़ात। मुझे तो शंका है कि ये लोग भी ‘श्रमिष्ठा’ को श्रमिक ही समझ बैठे होंगे, जिसे ‘उठा’ लेने से उनकी पार्टी का रोजगार योजना सफल हो जाए।
दरअसल, नेताओं का नया चरित्र अब मुद्दों से नहीं, मूड से तय होता है। कल तक जो महिला उनकी विचारधारा से इतर थी, आज वही उनके ट्वीट का शृंगार बन गई है। वो महिला नहीं, अवसर है। और अवसर को पकड़ना हमारे नेताओं को वैसे ही आता है जैसे चापलूस को माइक पकड़ना आता है—न वक्त देखते हैं, न स्थति।
अब जो लोग श्रमिष्ठा की गिरफ्तारी को लोकतंत्र की हत्या कह रहे हैं, उनसे पूछना चाहता हूं—लोकतंत्र तो उसी दिन मर गया था जब संसद में चुने हुए प्रतिनिधियों को नारे लगाने पर निलंबित कर दिया गया। या जब किसी पत्रकार को ‘राष्ट्रहित’ के खिलाफ लिखने पर जेल भेजा गया। या फिर उस दिन, जब गरीब किसान को बिजली चोरी के आरोप में ऐसा मारा गया कि उसका लोकतंत्र दो दिन तक बिस्तर पर कराहता रहा।
श्रमिष्ठा की गिरफ्तारी दरअसल एक तमाशे का हिस्सा है। वो तमाशा जो आज़ादी, अभिव्यक्ति और न्याय जैसे शब्दों के घुंघरू बांधकर नाचा जा रहा है। और उसके दर्शक हैं—हम। हम वो जनता हैं जो हर लाठीचार्ज के बाद टीवी की आवाज़ तेज़ करके पूछते हैं—“हुआ क्या था?” और जवाब में जो कुछ आता है, वह ‘पैकेज्ड सच्चाई’ होती है, जिसे न्यूज़ एंकर चॉकलेट पेपर में लपेट कर परोसते हैं।
अब आते हैं उस सामाजिक नेतृत्व पर, जो श्रमिष्ठा के नाम पर मोमबत्तियाँ जलाकर, चार फोटो खिंचवाकर, वापस अपने वातानुकूलित क्रांति-कक्षों में लौट जाता है। इनमें से आधे वो हैं जो अपने घरों में नौकरानी को ‘श्रमविहीन’ समझते हैं और आधे वो हैं जिनकी क्रांति ट्विटर पर ट्रेंड के भरोसे टिकी है। इन्हीं में से कुछ तो ऐसे हैं जो कल तक यही कहते फिरते थे – “इन लड़कियों को ज्यादा बोलने की आदत हो गई है।”
मैंने अपने मोहल्ले के एक बुद्धिजीवी से पूछा – “क्या आपको लगता है श्रमिष्ठा की गिरफ्तारी गलत है?” वे बोले – “बिलकुल, पर ये तो वो लोग हैं जो कल तक पुलिस को अपना ‘हथियार’ मानते थे। आज उन्हीं के खिलाफ बोल रहे हैं।” मैं चुप रहा। क्योंकि यह वही सत्य था जिसे हम सब जानते हैं – पर बोलने से डरते हैं। जैसे ही कोई बोलता है, हमारे राष्ट्रवादी और राष्ट्रविरोधी दोनों गुटों के ‘आईटी योद्धा’ तलवारें खींच लेते हैं। बस यह तय करना बाकी रह जाता है कि किसे काटना है – भक्त को या लिबरल को।
अब सबसे अंत में, उस ‘मूल मुद्दे’ की बात कर लें – ‘महिला की गरिमा’। यह मुद्दा ठीक वैसे ही नेताओं के भाषणों में आता है जैसे आचार्य जी के प्रवचन में ब्रह्मचर्य – सब सुनते हैं, कोई पालन नहीं करता। और जैसे ही बात किसी अपनी ‘राजनीतिक बहनजी’ की होती है, नेताजी ‘द्रोणाचार्य’ हो जाते हैं – बोलते नहीं, सिर्फ अंगूठा मांगते हैं।
इस पूरे प्रकरण में मुझे केवल एक चीज की श्रद्धा जागी – वह है ‘गिरफ्तारी’। क्योंकि इस देश में गिरफ्तारी अब पुरस्कार है, अपमान नहीं। जिसे गिरफ्तार करो वह ट्रेंडिंग हो जाता है। दो दिन बाद उसे कोई चैनल अपने डिबेट में बुलाता है। फिर उसे ‘लोकतंत्र का रक्षक’ घोषित कर दिया जाता है। और हम – जो न गिरफ्तार होते हैं, न टीवी पर आते हैं – वही सबसे ज्यादा गुनहगार ठहराए जाते हैं, क्योंकि हमने किसी का पक्ष नहीं लिया।
कभी-कभी सोचता हूं कि लोकतंत्र अब किसी सरकारी अस्पताल के वॉर्ड जैसा हो गया है – जिसमें खाट कम हैं, मरीज ज़्यादा, और इलाज वही पा रहा है जो डॉक्टर को पहचानता है।
तो भाइयो, बहनो और उन सब ‘गिरफ्तारी-प्रेमी क्रांतिकारियों’ से कहना चाहता हूं – “यह श्रद्धा का नहीं, संदेह का मौसम है। यह चरण छूने का नहीं, लात खाने-मारने का मौसम है। जो बोलेगा, वही घसीटा जाएगा। जो चुप रहेगा, वह अगला नंबर होगा।”
और हां, अगर अगली गिरफ्तारी में कोई नेता, कलाकार या लेखक हो… तो कम से कम लाठी अच्छे से लगनी चाहिए। ताकि अगली बार वो श्रद्धा की नहीं, सच्चाई की बात कर सके।
– दीपक शर्मा आज़ाद

img 20250601 085102 7516209907895613414330
सोशल शेयर बटन

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archives

Recent Stories

Scroll to Top