कर्नाटक में कांग्रेस सरकार के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन की अनदेखी ने एक बार फिर भारतीय मीडिया के दोगले रवैये को उजागर कर दिया है। जब उत्तर भारत में किसान सड़कों पर उतरते हैं, तो राष्ट्रीय मीडिया में चौबीसों घंटे कवरेज मिलती है, बड़े-बड़े ‘किसान नेता’ बयान देते हैं, और सोशल मीडिया पर बहस छिड़ जाती है। लेकिन कर्नाटक में हजारों किसान विरोध कर रहे हैं, पुलिस-प्रशासन से टकराव हो रहा है—फिर भी न तो मीडिया में हेडलाइन बनती है, न कोई सेल्फ-प्रोक्लेम्ड किसान नेता सामने आता है।
क्या सिर्फ इसलिए कि यह आंदोलन कांग्रेस सरकार के खिलाफ है?
क्या मीडिया की प्राथमिकताएं राजनीतिक समीकरणों से तय होती हैं?
यह सवाल हर जागरूक नागरिक को खुद से पूछना चाहिए।
कर्नाटक में इस समय किसानों का बड़ा विरोध-प्रदर्शन चल रहा है, खासकर टुमकुरु ज़िले में हेमावती लिंक कैनाल परियोजना (Hemavathi Link Canal Project) के खिलाफ। हजारों किसान और कई विपक्षी नेता इस प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उनका आरोप है कि इससे टुमकुरु क्षेत्र के किसानों के लिए पानी की भारी समस्या खड़ी हो जाएगी और पानी रामनगर जिले की ओर डायवर्ट किया जा रहा है।
इस विरोध में बीजेपी, जेडीएस के नेता, किसान संगठन और स्थानीय लोग शामिल हैं। कई जगह विरोध हिंसक भी हुआ—पुलिस ने 11 से ज्यादा FIR दर्ज की हैं, कई नेताओं और किसानों को हिरासत में लिया गया है। प्रशासन ने 10 किलोमीटर के दायरे में धारा 144 भी लागू की थी, फिर भी किसान सड़क पर उतरे और काम रुकवाया।
मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और डिप्टी सीएम डीके शिवकुमार ने कहा है कि यह प्रोजेक्ट तकनीकी समिति की सिफारिश पर शुरू हुआ है और इसका विरोध राजनीतिक रूप से प्रेरित है। वहीं, कांग्रेस के कुछ स्थानीय विधायक भी किसानों की चिंता जता रहे हैं, लेकिन हिंसा से दूरी बना रहे हैं।
आपका सवाल बिल्कुल सही है—यह विरोध मुख्यधारा मीडिया में उतना प्रमुख नहीं दिख रहा, जितना पंजाब या हरियाणा के किसान आंदोलनों के समय दिखा था। न ही कोई बड़ा ‘सेल्फ-प्रोक्लेम्ड’ किसान नेता इस मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर बोलता दिख रहा है। यह आंदोलन कांग्रेस सरकार के खिलाफ है और कर्नाटक तक ही सीमित बताया जा रहा है।