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अमेरिकी स्वार्थ की राजनीति: जब तक जरूरत, तब तक साथ; फिर हितों के सामने सब बेगाने

समय के साथ राष्ट्रों के हित बदलते हैं, और इस बदलाव के साथ ही वैश्विक भू-राजनीति भी नए आयाम ग्रहण करती है। अमेरिका की विदेश नीति भी इसी सिद्धांत पर आधारित रही है—जिस समय जिसकी जरूरत होती है, उसका साथ दिया जाता है और जब उसकी आवश्यकता समाप्त हो जाती है, तो उसे छोड़ दिया जाता है।

1970 के दशक में ईरान के शाह, मोहम्मद रज़ा शाह पहलवी, अमेरिका और ब्रिटेन के करीबी सहयोगी थे। लेकिन जब उन्होंने तेल के लिए डॉलर की जगह अपनी मुद्रा का इस्तेमाल करने की कोशिश की, तो अमेरिका और ब्रिटेन का उनके प्रति समर्थन कम हो गया। 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति आई और शाह को सत्ता से हटा दिया गया। कई विश्लेषकों का मानना है कि अमेरिका ने इस क्रांति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन दिया था, क्योंकि शाह अब उनके हितों के अनुकूल नहीं थे।

इसी तरह, खाड़ी युद्ध के दौरान अमेरिका ने कुवैत और ओमान जैसे देशों को अपने हितों के अनुसार देखा। जब इराक के तत्कालीन नेता सद्दाम हुसैन ने कुवैत पर आक्रमण किया, तो अमेरिका ने खाड़ी युद्ध में हस्तक्षेप किया और इराक पर बमबारी की। इस युद्ध में अमेरिका का मुख्य उद्देश्य तेल के प्रवाह को सुरक्षित रखना और अपने क्षेत्रीय सहयोगियों को सहायता देना था।

अमेरिका की विदेश नीति में सोवियत संघ के विरुद्ध लड़ाई भी एक प्रमुख अध्याय रही है। सोवियत संघ को कमजोर करने के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान में जिहादियों और तालिबान का इस्तेमाल किया। इसी दौर में ओसामा बिन लादेन जैसे चरमपंथी नेताओं का उदय हुआ, जिन्हें बाद में अमेरिका का दुश्मन घोषित किया गया।

यूगोस्लाविया के मामले में भी अमेरिका ने अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिए सर्बिया की मदद से यूगोस्लाविया पर बमबारी करवाई, ताकि वहां यूरेनियम और परमाणु बम बनाने की संभावना को रोका जा सके।

समय बदला और ओसामा बिन लादेन अमेरिका के लिए दुश्मन बन गए। 9/11 की घटना के बाद अफगानिस्तान युद्ध शुरू हुआ, जिसमें अमेरिका ने तालिबान के खिलाफ सैन्य कार्रवाई की। इसी तरह, इराक युद्ध भी तेल और सोने के भंडार तथा डॉलर से अलग होने की कोशिशों के कारण शुरू हुआ। सद्दाम हुसैन को आतंकवादी घोषित किया गया और उन पर रासायनिक हथियारों के आरोप लगाए गए, जिन्हें कभी अमेरिकी प्रयोगशालाओं और पेंटागन ने ही आपूर्ति की थी।

लीबिया के मुअम्मर गद्दाफी भी अमेरिका के लिए तब तक सहयोगी रहे, जब तक उन्होंने अफ्रीकी संघ बनाने और अपनी मुद्रा को डॉलर से अलग करने की कोशिश नहीं की। इसके बाद उन्हें भी दुश्मन घोषित कर दिया गया और उनकी सरकार का तख्तापलट कर दिया गया।

सीरिया भी तब अमेरिका के निशाने पर आया, जब उसने अपने तेल संसाधनों को अमेरिकी कंपनियों के साथ साझा करने से इनकार कर दिया। इसके बाद आईएसआईएस जैसे आतंकी संगठनों का उदय हुआ, जिन्हें सीरिया को अस्थिर करने के लिए इस्तेमाल किया गया। बाद में अमेरिका ने आईएसआईएस को खत्म करने के लिए ईरान और हौथी समूहों का भी इस्तेमाल किया, ताकि सऊदी अरब पर दबाव बनाया जा सके और पेट्रोडॉलर समझौते को बनाए रखा जा सके।

अब जब ईरान परमाणु बम बनाने की कोशिश कर रहा है, तो अमेरिका उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करना चाहता है, क्योंकि अब वह उसके भू-राजनीतिक हितों के अनुकूल नहीं है। इतिहास गवाह है कि अमेरिका ने अपने हितों की रक्षा के लिए कभी भी किसी भी देश, नेता या संगठन का साथ दिया है और जब उनकी आवश्यकता समाप्त हो गई, तो उन्हें छोड़ दिया है।

इस प्रकार, अमेरिका के नेतृत्व वाली वैश्विक व्यवस्था में कुछ भी स्थायी नहीं है—सिर्फ हित बदलते हैं और उसी के अनुसार नीतियां भी बदल जाती हैं।

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