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अपनी बात- भारतीय सिनेमा का एक नया अध्याय

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अपनी बात- भारतीय सिनेमा का एक नया अध्याय
 हितेश शंकर 

एक फिल्म क्या कर सकती है? इस प्रश्न का सबसे सटीक उत्तर ज्यादा तीखा प्रतिप्रश्न है : एक फिल्म क्या नहीं कर सकती? पैसा कमाना एक बात है लेकिन अनपढ़ से संवाद करने, आज के समय में परिवारों को एक साथ बैठाने और सबसे बढ़कर समाज को कुछ चौंकाने, जगाने, हिलाने का काम भी एक फिल्म कर सकती है।

सिनेमा की इसी शक्ति का अनुभव कराती फिल्म है बाहुबली। वैचारिक पत्रिका के पाठकों के लिए बाहुबली का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि इसने एक झटके में कई मिथक तोड़ दिए।

कि बॉलीवुड का अर्थ ही भारतीय सिनेमा है…
कि भारत में मनोरंजक और सबसे सफल फिल्में सिर्फ हिन्दी में ही बन सकती हैं…
कि फिल्म की सफलता की गारंटी किसी ‘खान’ का नाम है…

ये सब गढ़ी हुई परिभाषाएं हैं। भ्रमित करने वाली हैं। और चूंकि हर भ्रम की नियति होती है अंतत: टूट जाना। सो भ्रम टूटते दिख रहे  हैं। पांच भाषाओं में बनी इस भव्य फिल्म ने बॉलीवुड से परे न देख पाने वाली सोच का बौनापन सामने ला दिया है। गढ़ी हुईं परिभाषाएं धूल में लोटने लगी हैं।

फिल्म देखना एक बात है लेकिन परिभाषाओं के किले ढहने से पसरी बेचैनी, सन्नाटे और छटपटाहट को देखना दूसरा अनुभव है। इसलिए बाहुबली सिर्फ फिल्म नहीं, बल्कि सिनेमा की धूल झाड़ने और एक बहस को जन्म देने वाली कृति है।

क्या यह सिर्फ संयोग है कि बॉलीवुड किसी भारतीय फिल्म की ऐसी वैश्विक कामयाबी से कन्नी काटता दिख रहा है?…या यह विषय के चुनाव और भारत के चित्रण की शैली का विरोधाभास है जो कुछ लोगों को जम नहीं रहा। ऑस्कर की चमक दिमाग पर चढ़ाए बगैर याद कीजिए सत्यजीत रे की ‘पाथेर पांचाली’ का दुर्बल, नि:सहाय, श्वेत-श्याम भारत। या फिर ‘स्लमडॉग मिलियनेअर’ का विष्ठा में सना झोपड़पट्टी में पला भारतीय बच्चा। यह एक
पक्ष है।
दूसरा पक्ष है बाहुबली का सम्मोहित करने वाला मिथकीय कथानक जिसमें हर जगह शौर्य, राष्ट्रभक्ति और देश के इतिहास का आभास गुंथा है।
अत्याधुनिक तकनीक का जादुई संसार रचते भारतीय सिनेमाकर्मियों की जीतोड़ मेहनत है।  इनके हिस्से की तालियां कमाई के तौर पर देश और दुनिया में गड़गड़ा रही हैं लेकिन बॉलीवुड में सन्नाटा है। फिल्म अत्यंत सफल है, किन्तु कहीं कुछ लोगों को टीस रही है। कुछ न्यूज पोर्टल पर ‘बजरंगी भाईजान’ और ‘बाहुबली’ की लड़ाई को लेकर खबर चलती है और इस बात पर खत्म होती है कि ‘बाहुबली’ वास्तव में ‘हिन्दू’ फिल्म है। ‘हिन्दू’ ठप्पा लगने के बाद फिल्म को लेकर जो सवाल उठे उनमें बौद्धिकता कम वामपंथी-सेकुलर छटपटाहट ज्यादा
है। मसलन, महिष्मति साम्राज्य जैसा नाम क्यों रखा गया जिससे पौराणिकता की गंध आती है? नायक शिवलिंग ही क्यों उठाता है?

एक ‘श्रेष्ठ’ संपादक को कालिकेय आक्रांताओं में वनवासियों का आपत्तिजनक चित्रण दिखाई दिया और वह
खुद को ट्विटर पर भड़ास निकालने से नहीं रोक पाए। एक वामी चैनल के नामी ‘एंकर’ का दर्द यह रहा कि फिल्म एक नायक को स्थापित करती है और इसलिए लोकतंत्र की आधारभूत कल्पना के खिलाफ है! वैसे, याद नहीं पड़ता कि किसी वामपंथी ने कभी खूनी क्रांति के सिद्धांत या जिहाद की मानसिकता को लेकर इतने मासूम सवाल उठाए हों!

कमाल की बात है, तकनीक और फंतासी के मेल वाली बाहुबली ने सरलता से दोमुंहे बुद्धिजीवियों का सच उघाड़कर  रख दिया।
दरअसल, बाहुबली को स्वीकारती जनता और नकारती लामबंदियों की यह लड़ाई बेवजह नहीं है। सिनेमा को अपने-अपने हित का औजार और बॉलीवुड को अखाड़ा बनाने वालों में यह रस्साकशी पुरानी है। फिल्म उद्योग पर काबिज लोगों ने इस विधा का उपयोग सिर्फ अपने हित और इसके साथ-साथ खास विचारधारा के लिए किया है। मुद्दा चाहे बाहुबली की सफलता का हो या कोई और, कुछ लोगों के लिए यह ‘एजेंडा’ को चोट पहुंचाने वाली बातें हैं। बाहुबली की सफलता भौंडी फिल्मों की राह रोक इस धारा को ऐतिहासिक आख्यानों तक ले गई तो!! व्यक्ति और कोटरियों के जमे-जमाए खेमे दक्षिण की आंधियों से उखड़ गए तो!! आशंकाओं के ऐसे बुलबुले कुछ लोगों को बेचैन कर रहे हैं।

कला और सिनेमा में भी विद्वेष और राष्ट्र विरोध के बीज बोने वालों से एक सवाल तो बनता ही है। सिनेमा के जरिए समाज में खीझ, कंुठा, नैराश्य या लालसा भरने वालों ने बिना भौंडेपन और अश्लीलता के कितनी खुशी और सकारात्मकता बांटी? बॉलीवुड के गिरोहबाजों और उनके पैरोकारों को बताना चाहिए कि फिल्मों के लिए विषयों के चयन और ‘ट्रीटमेंट’ का उनका पैमाना क्या है? मातृभूमि से प्यार की बजाय ‘गैंगवार’ और अश्लीलता उन्हें ज्यादा रास क्यों आती है?

बहरहाल, एस.एस. राजामौली की इस फिल्म ने सिनेमा को एक खालिस भारतीय स्फूर्ति दी है। अर्जुन सी चपलता और भीम से शरीर वाला नायक। दुयार्ेधन सा धूर्त, दुर्धर्ष गदाधारी भाई। भीष्म सा पराक्रमी किन्तु सिंहासन के प्रति निष्ठा से बंधा सेनापति। धरती पर ही किसी अन्य अद्भुत लोक की कल्पना और सबसे बढ़कर… ऐसा रण जिसकी एक झलक रोंए-रोंए में सनसनाहट भर दे… इसे सिर्फ फिल्म की तरह मत देखिए। यह भारतीय प्रतीकों, मिथकों, किंवदंतियों के रहस्य लोक की ऐसी यात्रा है जिससे पूरी दुनिया रोमांचित है।

बाहुबली ने सिनेमा के सिर चढ़कर बैठे लोगों को झटका दिया है। फिल्म की ताकत दिखा दी है। आक्रोश में भिंची मुट्ठियों के साथ दर्शक खुशी में रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। कुछ समीक्षक हताशा में माथे पर हाथ धरे बैठे हैं। भारतीय सिनेमा के इस ऐतिहासिक मोड़ पर आप भी इन दृश्यों का आनंद लीजिए।

साभार:: पाञ्चजन्य

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