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अपेक्षाओं तथा अपेक्षापूर्ती के विश्वास का वातावरण हैं! – डॉ॰ मोहनजी भागवत

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अपेक्षाओं तथा अपेक्षापूर्ती के विश्वास का वातावरण हैं!
      डॉ॰ मोहनजी भागवत
नागपुर 22 अक्तूबर:
दो वर्ष पूर्व देश में जो निराशा, अविश्वास का वातावरण था वह अब प्रायः लुप्त हो गया हैं। अपेक्षाओं तथा अपेक्षापूर्ती के विश्वास का वातावरण निर्माण हुआ हैं। इस वातावरण का साक्षात अनुभव देश के अंतिम पंक्ती में खड़े व्यक्ती तक पहुंचे तथा, अपने स्वयं के अनुभव से अपने एवं देश के भाग्य परिवर्तन में समाज के विश्वास की मात्रा निरंतर बढ़ती रहे इसका ध्यान रखना होगा, ऐसा प्रतिपादन रा॰ स्व॰ संघ के सरसंघचालक डॉ मोहनजी भागवत ने किया। वे रेशिमबाग के मैदान पर आयोजित विजयादशमी उत्सव में बोल रहे थे। DRDO के भूतपूर्व वैज्ञानिक एवं नीती आयोग के सदस्य पद्मभूषण डॉ॰ विजयकुमारजी सारस्वत कार्यक्रम के प्रमूख अतिथी थे। उन्होने आगे कहा की गत दो वर्षोंमें द्रुत गतीसे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ी हैं। अपना हित ध्यान में रखते हुएँ पड़ोसी देशोंसे संबंध सुधारने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाएँ गए और उनके सफल परिणाम भी दिखाई दे रहे हैं। ऐसा लगता हैं की विश्व को आधुनिक भारत का एक अलग नया परिचय मिल रहा हैं। भारत की गीता, भारत का योगदर्शन, भारत के तथागत विश्वमान्य हो रहे हैं। तथाकथित महाशक्तीयोंके अवांछनीय प्रभाव से मुक्त होने के लिए छटपटानेवाली विकासनशील दुनिया नेतृत्व के लिए भारत के ओर देख रहे हैं।
विकास के लिए विश्व ने अपनाएं पश्चिमी दृष्टीकोण का अधूरापन खुलकर सामने आ गया हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के सामाजिक एवं आर्थिक कार्य विभाग ने १९५१ में इसका सम्पूर्ण समर्थन किया था, लेकिन इसके परिणाम के बाद आक्तुबर २००५ में जी२० राष्ट्रोंके केंद्रीय अधिकोषोने और २००८ में विश्वबैंक नें इस दृष्टीकोण का खंडन कीया ऐसा संबन्धित संस्थाओंके रिपोर्ट का हवाला देते हुये डॉ॰ मोहनजी ने कहा की विकास के लिए हमें हमारी समन्वय एवं सहयोग पर आधारित कमसे कम ऊर्जा व्यय, अधिकतम रोजगार, पर्यावरण, नैतिकता एवं कृषी के प्रति पूरकता तथा स्वावलंबन और विकेंद्रित अर्थ तंत्रका पुरस्कार करने वाले उद्योग तंत्र मानने वाली समयसिद्ध शाश्वत दृष्टी के आधार पर चलना होगा। जनसंख्या एवं उससे संबंधीत प्रश्नोंकी चर्चा करते हुएँ डॉ मोहनजी ने कहा की पिछली दो जनगणनाओंके आकडे प्रसिद्ध होने के बाद, जनसंख्या का स्वरूप, उसमे उत्पन्न हुआ असंतुलन आदी की पर्याप्त चर्चा हो रही हैं। देश के वर्तमान तथा भविष्य पर उसके परिणाम होते है, हो रहे हैं। वोट बैंक की राजनीती से ऊपर उठ कर इन बातोंका समग्र विचार कर, देश की प्रजा के लिए समान जनसंख्या नीती बनाने की आवश्यकता हैं। वह नीती मात्र शासन तथा कानून से लागू नाही होती। उसका स्वीकार करने के लिए समाज का मन बनाने के लिए पर्याप्त प्रयास करने पड़ते हैं। उसका विचार भी नीती बनाते समय ही कर लेना उचित होगा।
शिक्षा व्यवस्था समाज परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण साधन हैं। लेकिन हाल के वर्षोंमें वह व्यापार का साधन बनती जा रही हैं। महंगी हो कर सर्वसमान्य व्यक्ती की पहुँच से बाहर होती जा रही हैं। इस कारण समाज में शिक्षा के उद्देश पूरे होते नहीं दिखते। विश्व में शिक्षा के क्षेत्र में अनेक प्रयोग हो रहे हैं, इन बातोंकों ध्यान में रखते हुएँ, शिक्षा संचालन, शुल्क-व्यवस्था, पाठ्यक्रमोंमें परिवर्तन के लिए तज्ञों, संघटनों, एवं आयोगो द्वारा दिएँ गएँ उपयुक्त सुझाओंका अध्ययन कर उन्हे लागू किया जाना चाहिएँ ऐसा मत उन्होनें व्यक्त किया।
पंथ संप्रदाय तथा सं
सांस्कृतिक परम्पराओंमें देश काल की परिस्थिती अनुसार उचित परिवर्तन आवश्यक हैं। लेकिन ऐसे परिवर्तन केवल कानून से कभी हुएँ हैं और न कभी होंगे, ऐसा बताते हुएँ डॉ॰ मोहन जी ने कहा की ऐसे [अरिवर्तनोंसे पहले और बादमें भी, समाज प्रबोधन द्वारा मन बनाने का सौहार्दपूर्ण प्रयास शासन, प्रशासन माध्यमों एवं समाज के धुरीण तथा सज्जनोंकों सतत करना पड़ता हैं। सस्ती लोकप्रीयता तथा राजनईतीक लाभ से दूर रह कर समाज के सभी वर्गोंके प्रती आत्मीयता रखकर समाज का मन प्रबोधन के द्वारा बदला जा सकता हैं। इस संदर्भ में हाल ही में जैनोंकी संथारा प्रथा, दिगंबर आचार्योंका विशिष्ट जीवनक्रम, बाल दीक्षा आदी से की गई छेड-छाड का उल्लेख कर, उन्होने काहन की इसका परिणाम समाज के स्वास्थ्य, सौहार्द व अंततोगत्वा देश के लिए घातक होगा।
पाकिस्तान का शत्रुता पूर्वक रवैय्या और चीन के विसतारवाद के खतरोंके साथ आंतर्राष्ट्रीय राजनीती के कारण निर्माण हुआ आईएसआईएस का संकट भी भारत की सुरक्षा के लिये खतरा बन गया हैं। शासन ने एक समग्र नीती बनाकर इन समस्याओंका दृढ़ता पूर्वक पूर्ण निरसन करना चाहिएँ ऐसा मत डॉ॰ मोहनजी ने व्यक्त किया।
महानगर संघचालक श्री राजेशजी लोया ने अतिथीयोंका परिचय दिया एवं आभार प्रदर्शन किया। मंच पर प्रांत सह संघचालक श्री राम हरकरे उपस्थीत थे। 
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