डॉ. हेडगेवार का जीवन स्वयंसेवकों के लिए एक उज्ज्वल आदर्श और शाश्वत प्रेरणास्रोत रहा है। उनका पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित था, और उन्होंने जिस कार्यपद्धति का प्रवर्तन किया, वह राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के विभिन्न क्षेत्रों में जुटे स्वयंसेवकों को लगातार प्रेरित करती रही है। उनके जीवन के विभिन्न पहलू और उनका दृष्टिकोण स्वयंसेवकों के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं।
एक जन्मजात देशभक्त का उदय (A Born Patriot’s Emergence): डॉ. हेडगेवार, एक धधकते ज्वालामुखी जैसे जन्मजात देशभक्त थे। उनकी सुकुमार अवस्था से ही विदेशी अंग्रेजी शासन के प्रति विरोध की चिंगारियाँ फूटने लगी थीं। उन्होंने इस विरोध के लिए बहुत कुछ सहा – उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया, सरकारी मुखबिर साये की तरह उनका पीछा करते रहे, और उनके चाचा को भी सताया गया। वे डॉक्टरी की पढ़ाई करने कलकत्ता गए, लेकिन उनका मुख्य उद्देश्य धन कमाना नहीं था, बल्कि क्रांतिकारी आंदोलन को गहराई से समझना था। डॉक्टर बनकर घर लौटने पर भी उन्होंने अपनी और अपने परिवार की सुख-सुविधा से मुंह मोड़ लिया और सशक्त संगठन के निर्माण में जी-जान से जुट गए। उनकी पीड़ा इस बात को लेकर थी कि “समय कितनी तेजी से बीतता जा रहा है और हम हैं कि अभी लक्ष्य तक पहुँचे ही नहीं”। यह उनकी मुक्ति के लिए गहरी वेदना और छटपटाहट को दर्शाता था।

स्वतंत्रता संग्राम के प्रति दूरदर्शी दृष्टिकोण (A Far-sighted Approach to the Freedom Struggle): डॉ. हेडगेवार तत्कालीन स्वतंत्रता के नारों और सस्ते, उथले उपायों से सहमत नहीं थे। उन्होंने ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता बिन स्वराज्य नहीं’ जैसे नारों के बोलबाले के बावजूद, कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति को भयंकर भूल माना। वे आगाह करते थे कि मुस्लिमों की अनुचित मनुहार से उनकी साम्प्रदायिक और विघटनकारी मनोवृत्ति और भड़केगी। उनका दृढ़ मत था कि मुस्लिमों को राष्ट्र की मुख्य धारा में तभी लाया जा सकता है जब हिन्दू इतने सशक्त और संगठित हो जाएँ कि मुसलमान अपना हित हिन्दुओं के साथ जुड़ने में महसूस करें। इसलिए, उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए केवल हिन्दुओं की संगठित राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण पर ही ध्यान केंद्रित करने का निश्चय किया। उनका यह दृष्टिकोण तात्कालिक स्वतंत्रता तक सीमित नहीं था; वे भारत के विगत इतिहास के गहन अध्ययन से जानते थे कि राष्ट्र को विदेशी आक्रामकों का शिकार इसलिए होना पड़ा क्योंकि जनमानस में प्रखर अखंड राष्ट्रीय चेतना का अभाव था। वे मानते थे कि यदि यह भूल बनी रहती है, तो ब्रिटिश दासता से मुक्ति मिलने के बाद भी राष्ट्र की स्वाधीनता संकट में रहेगी।

शाखा पद्धति का आविष्कार और मानव निर्माण (Invention of Shakha System and Human Building): इस गंभीर दोष को दूर करने और अखिल भारतीय राष्ट्र-चेतना जगाने के लिए, डॉ. हेडगेवार ने संघ की अद्भुत शाखा-पद्धति का आविष्कार किया। उनका मानना था कि मानव ही समाज को बनाता या बिगाड़ता है, और राष्ट्र की प्रगति का स्तर अंततः सामान्य मानव के चरित्र और योग्यता के स्तर से ही आंका जाता है। इसलिए, संघ ने अपने जन्मकाल से ही उचित स्तर के मानव-निर्माण पर अपना समूचा ध्यान केंद्रित किया। शाखा पद्धति का उद्देश्य स्वयंसेवकों में उन त्रुटियों को आने से रोकना था जो उन्होंने अन्य संगठनों के कार्यकर्ताओं में देखी थीं, और उनमें सर्वांगीण राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के लिए आवश्यक गुणों और सद्गुणों के संस्कार डालना था।
डॉ. हेडगेवार ने यह भी सिद्ध किया कि राष्ट्र के लिए कार्य और त्याग करना साधारण मानव के वश की बात है। शाखा की सीधी-सादी पद्धति से लोग प्रतिदिन एक घंटे के लिए एकत्र होते हैं और मनोरंजक, प्रेरणादायी कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। यह पद्धति साधारण मानव की शक्ति को राष्ट्रहित-साधन के लिए जुटाने में प्रभावी सिद्ध हुई है। उन्होंने कार्यकर्ताओं को व्यक्तिगत प्रलोभनों से मुक्त रखने के लिए एक उपयुक्त पद्धति विकसित की, जिसमें 24 घंटों में से एक घंटा मातृभूमि की सेवा के लिए निकाला जाता है। इस कठोर प्रशिक्षण से स्वयंसेवकों में आत्मनिर्भरता और आत्मत्याग की अडिग भावना का रोपण हुआ।
चरित्र और अनुशासन का प्रतीक (An Embodiment of Character and Discipline): संघ में अनुशासन डॉ. हेडगेवार के विचारों का एक और महत्वपूर्ण पक्ष था, जो सहज, स्वतःस्फूर्त आत्मसंयम पर आधारित था। यह व्यक्तिगत स्वार्थ के बजाय समाज-कल्याण के प्रति उच्च दायित्वों की आत्मचेतना से उपजता है। शाखाओं में दिए गए शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक प्रशिक्षण का उद्देश्य इसी प्रकार के आत्मानुशासन के संस्कार डालना है। इस दिशा में संघ को असाधारण सफलता मिली है, और अब ‘अनुशासन’ को ‘संघ’ का पर्याय माना जाने लगा है।
डॉ. हेडगेवार ने भगवा ध्वज को सर्वोच्च आदर्श – ‘गुरु’ – के रूप में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने स्वयं को गुरु को समर्पित एक स्वयंसेवक ही समझा। यह उनकी ‘व्यक्ति-निष्ठ’ न होकर ‘संगठन-निष्ठ’ कार्यशैली की दूरदर्शिता को दर्शाता था, जिसके दुखद परिणाम व्यक्तिनिष्ठ संगठनों में देखे जाते हैं।

स्वयंसेवकों के लिए सतत प्रेरणा (Continuous Inspiration for Volunteers): डॉ. हेडगेवार का अपना निजी उदाहरण स्वयंसेवकों के गुणों और सद्गुणों के बहुमुखी प्रस्फुटन में सतत मार्गदर्शन करता रहा है। उनकी बातचीत, उनकी पसंद-नापसंद, उनका व्यवहार – भले ही अनौपचारिक क्षणों का रहा हो – एक प्रेरणादायी सीख देता रहा है। उन्होंने अपने स्वत्व को राष्ट्र पर न्यौछावर कर दिया, अपार कष्ट झेले, और निपट निर्धनता को हँसते-हँसते गले लगाया। उन्होंने अपने अत्यंत उग्र स्वभाव में असाधारण परिवर्तन किया और अपने अद्भुत कौशल से विविध प्रकृति और स्वभाववाले असंख्य लोगों का हृदय जीतकर उन्हें संघ से जोड़ा। उनकी अपने ध्येय की दैवी प्रकृति में अटूट आस्था थी, और यह सब खान-पान और परिधान में पूर्ण सादगी तथा निरहंकारिता से सुशोभित था। स्वयंसेवकों के हर प्रयास में ये सभी गुण प्रकाशस्तंभ की भांति उनका मार्गदर्शन करते रहेंगे, और उनसे प्रेरित होकर वे डॉ. हेडगेवार के हिन्दू राष्ट्र के स्वप्न को साकार करने तक बढ़ते जाएंगे।
डॉ. हेडगेवार का जीवन, उनका दूरदर्शी चिंतन, स्वतंत्रता के प्रति उनका अनूठा दृष्टिकोण, शाखा पद्धति का उनका आविष्कार और उनका व्यक्तिगत उदाहरण, स्वयंसेवकों के लिए एक अविस्मरणीय और निरंतर प्रेरणादायक आदर्श है, जिसने राष्ट्र के कायाकल्प का मार्ग प्रशस्त किया है।