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भाषाई विवाद: एक सामाजिक और सांस्कृतिक चुनौती

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भाषा किसी भी समाज की पहचान एवं संस्कृति की आधार होती है।
यह न केवल संचार का माध्यम है बल्कि संस्कृति, परंपराओं और विचारों,भावों को व्यक्त करने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका भी है। भाषा केवल शब्दों का संग्रह नहीं है, यह एक जीवित इकाई है जो हमारे अस्तित्व के ताने-बाने को बुनती है।
भाषा के माध्यम से ही समाज में सामाजिक व्यवस्था स्थापित होती है और इसी के माध्यम से व्यक्तियों में समन्वय स्थापित होता है।

लेकिन जब भाषा विवाद का विषय बन जाती है, तो यह सामाजिक विभाजन और असहमति को जन्म दे सकती है।
भाषाई विवाद केवल शब्दों का संघर्ष नहीं होते, बल्कि सामाजिक संरचना, जनसंख्या के आपसी संबंध, और विकास की गति पर गहरा प्रभाव डालते हैं।

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सामाजिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो भाषाई विवाद अक्सर समाज को अलग-अलग समूहों में बाँट देते हैं।
जनता अपनी भाषा को लेकर गर्व महसूस करती है,लेकिन कई बार यह अन्य भाषाओं के प्रति असहिष्णुता को जन्म दे देती है,जातीय या क्षेत्रीय पहचान अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है,जिससे अन्य भाषाएँ बोलने वाले के बीच दूरी बढ़ जाती है,सामाजिक समरसता बाधित होती है और इसमें अगर राजनीति का मिश्रण हो जाए तो यह ओर भी ज्यादा घातक रूप ले लेती है।हाल ही में दिए गए अभिनेता कमल हासन के बयान ने कन्नड़ और तमिल भाषियों में भारी तनाव पैदा कर दिया।

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किसी भी प्रकार का मेरी भाषा का अहंकार समाज में विभाजन का कारण न हो जाए,ये सब बाते गौण है कोई अर्थ नहीं  रखती


राजनेता अपने राजनीतिक लाभ हेतु ऐसे विवादों को चुनावी मुद्दा बना लेते है,ओर जनता थोड़ी भावुक हो जाती है,उन्हें लगता है कही उनकी भाषाई पहचान मिटा न दी जाए।ओर अपनी पहचान,संस्कृति की रक्षा के लिए वो ओर अधिक संवेदनशील हो जाती है।आगे चलकर विवाद धीरे धीरे अलगाव में बदल जाता है जो हमारी विविधता में एकता की पहचान को नुकसान पहुंचाती है।

राजनीति में भाषाई विवाद क्षणिक लाभ तो दे सकते है लेकिन इनके दूरगामी परिणाम बेहद नुकसानदायक होते है उदाहरण के लिए श्रीलंका में सिंहली और तमिल भाषाओं को लेकर विवाद उग्र हुआ ,जिससे जातीय संघर्ष और गृहयुद्ध की स्थिति बनी।

ऐसी स्थिति अपने देश में नहीं बने इसलिए
भाषा विवाद से निपटने के लिए संवाद, शिक्षा, कानूनी ढांचे और सामाजिक-सांस्कृतिक समझ को एक साथ लाना चाहिए।

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भाषाई विवादों को समाप्त करने के लिए सहिष्णुता, बहुभाषिकता को प्रोत्साहन, और संवाद की संस्कृति को बढ़ावा देना आवश्यक है।सरकारों को भी समावेशी नीतियाँ बनानी चाहिए ताकि सभी भाषाओं को समान महत्व मिले। एक भाषा को जबरन थोपने के बजाय सभी भाषाओं को समान रूप से मान्यता दी जाए।मीडिया प्लेटफॉर्म्स को भी चाहिए कि वो पूरी संवेदनशीलता के साथ मुद्दों को प्रस्तुत करे।
भाषा को संघर्ष का कारण नहीं, बल्कि एकता और विविधता का प्रतीक बनाने से ही समाज में सामंजस्य स्थापित हो सकता है।जब सभी भाषाओं को समान सम्मान मिलता है, तब समाज अधिक समरस और प्रगतिशील बनता है।

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