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भारत की प्रेस की आज़ादी पर हमला: एक ऐतिहासिक सत्य और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की निर्णायक भूमिका”

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भारत जैसे लोकतांत्रिक देश की रीढ़ उसकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। लेकिन जब सत्ता, तानाशाही के रास्ते पर चलती है, तो सबसे पहले आवाज़ दबाने की कोशिश होती है—और वो होती है प्रेस की आवाज़। भारत में भी ऐसा ही हुआ। बार-बार।

लेकिन, जब जब सरकारें चुप्पी थोपने की कोशिश करती हैं, कोई न कोई सत्य के लिए खड़ा होता है। और भारत के इतिहास में एक संस्था है जिसने बार-बार सत्ता से टकरा कर पत्रकारिता की स्वतंत्रता को बचाने का प्रयास किया — राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)।




🛑 आपातकाल: जब भारत में लोकतंत्र मरा हुआ था

25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित किया। प्रेस पर ताले लग गए। सैकड़ों पत्रकारों को गिरफ्तार कर लिया गया। अखबारों की बिजली काट दी गई। सेंसरशिप लागू हुई। किसी भी खबर को छापने से पहले सरकारी मंज़ूरी जरूरी कर दी गई। यह भारत के इतिहास का सबसे अंधकारमय युग था।

लेकिन क्या सब चुप रहे?

नहीं!




📰 जब ‘मदरलैंड’ ने जलाया उम्मीद का दीपक

इसी दौर में ‘मदरलैंड’ जैसे अखबारों ने, जो RSS की प्रेरणा से चलाए जा रहे थे, आपातकाल की खबर छापने का साहस दिखाया। नतीजा यह हुआ कि उस अखबार के ऑफिस की बिजली काट दी गई, जबकि बगल में मौजूद वामपंथी अखबार ‘जनयुग’ को बिजली मिलती रही।

K.R. Malkani, जो ‘मदरलैंड’ और ‘ऑर्गनाइज़र’ के संपादक थे और RSS से जुड़े थे, आपातकाल के पहले गिरफ्तार होने वाले पहले पत्रकार बने। उन्होंने जेल में रहकर भी कलम को बंद नहीं होने दिया।




📣 राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ: एक मौन नहीं, मुखर प्रतिरोध

जब कांग्रेस सरकार ने प्रेस को दबाने का पूरा तंत्र बना दिया था, तब RSS ने भूमिगत साहित्य, पर्चे और पत्रिकाओं के माध्यम से जनता तक सच्चाई पहुँचाई।

‘पांचजन्य’, ‘तरुण भारत’, ‘राष्ट्रधर्म’, ‘विवेक’, ‘युगधर्म’ जैसी पत्रिकाओं ने सत्य की लौ जलाए रखी। संघ के स्वयंसेवकों ने खतरे के बावजूद ये पत्रिकाएँ छापीं और बाँटीं — निःस्वार्थ, निडर।

RSS के स्वयंसेवक देश भर में बंदियों के परिवारों तक राशन पहुँचाते रहे, प्रचारकों ने भूमिगत नेटवर्क बनाकर लोकतंत्र की मशाल जलाए रखी।




🗣️ नेहरू से लेकर राजीव और मनमोहन तक: लगातार हमले

यह सिर्फ इंदिरा गांधी तक सीमित नहीं रहा।

नेहरू ने 1951 में ही पहला संशोधन लाकर प्रेस की स्वतंत्रता पर “यथोचित प्रतिबंध” थोपे।

राजीव गांधी ने 1988 में मानहानि विधेयक लाकर आलोचना को अपराध बनाने की कोशिश की।

मनमोहन सिंह सरकार ने Section 66A के ज़रिए डिजिटल स्पेस में सेंसरशिप का जाल फैलाया।


हर बार सत्ता ने अपनी आलोचना को कुचलने का प्रयास किया।




🧭 अब क्या करें?

1. पढ़ें – समझें – सवाल करें।
2. सोशल मीडिया और प्रेस को स्वतंत्र बनाए रखने के लिए आवाज़ उठाएं।
3. उन संस्थाओं को जानें और समर्थन दें जो सत्य के पक्ष में खड़ी होती हैं।

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