दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के इतिहास में 25 जून 1975 का दिन एक काला अध्याय है। इस दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश में “आंतरिक अशांति” के नाम पर “आपातकाल” थोप दिया था। यह निर्णय न केवल राजनीतिक अस्थिरता का परिणाम था बल्कि इसने भारतीय लोकतंत्र की नींव तक को हिला दिया था ।
विशेष रूप से प्रेस की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया गया और आम जनता के संवैधानिक मूल्यों का मर्दन बड़ी क्रूरता के साथ किया गया था।
एक स्वतंत्र और जीवंत “मीडिया” किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।आपातकाल का सबसे घातक शिकार लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले “मीडिया” को बनाया गया। आपातकाल के दौरान देश में हो रही प्रताड़ना के विरोध में कलम उठाने वाले पत्रकारों को धमकाया गया, गिरफ्तार किया गया और बड़ी निर्दयता से प्रताड़ित किया गया, क्योंकि उनका एकमात्र अपराध सच लिखने या सरकार की नीतियों पर सवाल उठाने का प्रयास करना था।
सरकार ने समाचार पत्रों और मीडिया घरानों पर कठोरता से नियंत्रण स्थापित कर लिया था। खबरें प्रकाशित करने से पहले सरकारी अधिकारियों द्वारा उनकी समीक्षा की जाती थी, विरोध की हर आवाज को दबाने का प्रयास हो रहा था।इस तरह के अनैतिक कार्य से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जो किसी भी जीवंत लोकतंत्र की आत्मा है पर सीधा प्रहार किया गया था। सत्य को कुचला गया और जनता को वस्तुनिष्ठ जानकारी से वंचित रखा गया, जिससे देश में भय का वातावरण निर्मित हुआ। आपातकाल में केवल प्रेस को ही नहीं बल्कि भारतीय संविधान के मूल सिद्धांतो को ही चुनौती दी गई थी। संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, एकत्रित होने की स्वतंत्रता और यहां तक की जीवन जीने की स्वतंत्रता का अधिकार जैसे मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया। नागरिकों को अपने अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत के दरवाजे खटखटाने का अधिकार तक भी छीन लिया गया।

इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी के नेतृत्व में पुरुष नसबंदी अभियान चलाया गया। कहा जाता है कि इस अभियान में अविवाहित युवकों की भी जबरन नसबंदी कर दी गई। इससे लोगों में सत्ता पक्ष के प्रति भारी क्रोध उत्पन्न हो गया। इस क्रोध को दबाने के लिए मीसा (Maintenance of Internal Security Act ) जैसे draconian कानून का दुरुपयोग करके हजारों राजनीतिक विरोधियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और यहां तक की आम नागरिकों को बिना किसी आरोप,अपराध के गिरफ्तार कर लिया गया।
इस तानाशाही निर्णय ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगाने का प्रयास किया।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत को भी परोक्ष रूप से चुनौती दी गई जिससे विधायिका की मनमानी पर लगाम लगाने वाले संवैधानिक संतुलन को खतरा उत्पन्न हुआ । यह सभी कुकृत्य लोकतंत्र के उन आधार स्तंभों पर कड़ा प्रहार था जिन पर स्वतंत्र भारत की नींव टिकी थी।आपातकाल का दौर भारत के लिए एक कड़वा सबक था। यह दौर भारतीय लोकतंत्र की दृढ़ता की सबसे कठोर परीक्षा थी इसमें कई संस्थाएं पंगु बनी वहीं कुछ ने अधिक प्रतिरोध कर संवैधानिक चेतना को जीवित रखा। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी लोकतंत्र के पुनरुत्थान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का महत्वपूर्ण योगदान था
आपातकाल में संवैधानिक चेतना को जीवित रखने में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की महत्वपूर्ण भूमिका
जिस समय देश पर आपातकाल का काला साया पड़ा था, उस समय राजनीतिक दल और कई संगठन निष्क्रिय हो गए थे या उन्हें दबा दिया गया था। ऐसी विषम परिस्थितियों में “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संघ को आपातकाल की घोषणा के तुरंत बाद प्रतिबंधित कर दिया गया था। उसके हजारों कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। कई स्वयंसेवकों की हत्या तक कर दी गई। आपातकाल के दौरान सत्याग्रह करने वाले कुल 1,30,000 सत्याग्रहियों में से 1,00,000 से अधिक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक थे। मीसा के तहत कैद 30,000 लोगों में से 25,000 से अधिक संघ के स्वयंसेवक थे। आपातकाल के दौरान, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के करीबन 100 कार्यकर्ताओं की जान चली गई।
इसके बावजूद RSS ने पूरी दृढ़ता से देश के साथ हो रहे अन्याय का पुरजोर विरोध किया।
एच वी शेषाद्री की पुस्तक “कृतिरूप संघ दर्शन” के अनुसार सभी प्रकार की संचार व्यवस्था और निर्वाचित विधान मंडलों को ठप्प कर दिया गया। प्रश्न था कि इस स्थिति में जन आंदोलन को कौन संगठित करे? इसे “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ” के अतिरिक्त और कोई नहीं कर सकता था। संघ का देश भर में शाखाओं का अपना जाल था और वही इस भूमिका को निभा सकता था। संघ ने प्रारम्भ से ही जन से जन के संपर्क की प्रविधि से अपना निर्माण किया है। जन संपर्क के लिए वह प्रेस अथवा मंच पर कभी भी निर्भर नहीं रहा।RSS ने भूमिगत रहकर प्रतिरोध का एक सशक्त नेटवर्क तैयार किया। स्वयंसेवकों ने गुप्त रूप से लोक संघर्ष समिति के माध्यम से पैंपलेट छापने, विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करने और जनता को आपातकाल की सच्चाई से अवगत कराने, एवं विपक्षी दलों में समन्वय स्थापित करने का कार्य किया। उन्होंने सत्याग्रह आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई और लोकतांत्रिक मूल्यों की बहाली के लिए संघर्ष किया।

– पूजनीय सरसंघचालक जी
मोहनलाल रुस्तगी की पुस्तक “आपातकालीन संघर्ष गाथा” के अनुसार श्री जयप्रकाश नारायण ने अपनी गिरफ्तारी से पूर्व ‘लोक संघर्ष समिति’ का आन्दोलन चलाने के लिए ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ के पूर्णकालिक कार्यकर्ता श्री नानाजी देशमुख को जिम्मेदारी सौंपी थी।
जब नानाजी देशमुख गिरफ्तार हो गए तो नेतृत्व की जिम्मेदारी श्री सुन्दर सिंह भण्डारी को सर्वसम्मति से सौंपी गई। आपातकाल लगाने से उत्पन्न हुई परिस्थिति से देश को सचेत रखने के लिए तथा जनता का मनोबल बनाए रखने के लिए भूमिगत कार्य के लिए संघ के कार्यकर्ता तय किए गए।
संघ के स्वयंसेवकों ने सत्ता की नीतियों के विरोध में सत्याग्रह किया। इस कड़ी में 9 अगस्त,1975 को मेरठ नगर में सत्याग्रह किया गया। उसी दिन मुजफ्फरपुर में जगह- जगह जोरदार ध्वनि करने वाले पटाखे फोड़े गए। तत्कालीन सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध और उत्पीड़न के बावजूद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)ने अपने संगठनात्मक कौशल और राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना से प्रेरित होकर आपातकाल के खिलाफ एक मजबूत और सुसंगठित मोर्चा संभाले रखा। आपातकाल के दौरान संघ द्वारा किए गए विरोध प्रदर्शनों ने जनता पर अमिट छाप छोड़ी।
पुलिस के अत्याचारों और बर्बरता के बीच आंदोलन का नेतृत्व करने में स्वयंसेवकों की वीरता और साहस को देखकर मार्क्सवादी सांसद श्री एके गोपालन भी भावुक हो गए। उन्होंने कहा था, “इस तरह के वीरतापूर्ण कृत्य और बलिदान के लिए उन्हें अदम्य साहस देने वाला कोई उच्च आदर्श होना चाहिए।” (9 जून, 1979, इंडियन एक्सप्रेस)
RSS के प्रतिरोध ने लोकतंत्र के विजयघोष की दिशा में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और यह साबित किया कि राष्ट्रीय चेतना और दृढ़ इच्छाशक्ति किसी भी तानाशाह को चुनौती दे सकती है।
लोकतंत्र की पुनरुत्थान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का योगदान अतुलनीय है।