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महारानी दुर्गावती: शौर्य, पराक्रम और बलिदान की अनुपम प्रतीक

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भारत का इतिहास वीरांगनाओं की गाथाओं से सुसज्जित है, जिन्होंने अपने अदम्य साहस और आत्मबलिदान से नारी शक्ति की एक अमिट छवि प्रस्तुत की। ऐसी ही एक वीरांगना थीं महारानी दुर्गावती, जिनका जन्म 5 अक्टूबर 1525 को कालिंजर में चंदेल वंश के राजा कीर्तिवर्मन द्वितीय के घर हुआ। वह बचपन से ही निडर, युद्ध-कला में निपुण और आत्मविश्वासी थीं।

विवाह और राज्य का उत्तरदायित्व

महारानी दुर्गावती का विवाह गढ़ा मंडला राज्य के राजकुमार दलपत शाह कछवाहा से हुआ, जो राजपूत वंश से संबंध रखते थे। यह विवाह राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, जिससे चंदेल और गोंड वंश के बीच संबंध मजबूत हुए। दुर्भाग्यवश विवाह के कुछ वर्षों बाद ही दलपत शाह का निधन हो गया। उस समय उनका पुत्र वीरनारायण बहुत ही छोटा था। ऐसे समय में महारानी ने ना केवल राज्य की जिम्मेदारी संभाली, बल्कि एक सशक्त प्रशासक और कुशल योद्धा के रूप में गढ़ा राज्य का संचालन किया।

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मुगलों से संघर्ष

1550 से 1564 तक का उनका शासनकाल वीरता और राजनीतिक चातुर्य का उदाहरण है। उन्होंने तीन बार मुगल सेनाओं को पराजित किया। सबसे प्रसिद्ध युद्ध 1564 में हुआ, जब अकबर के सेनापति असफ खान ने गढ़ा राज्य पर आक्रमण किया। महारानी दुर्गावती ने स्वयं मोर्चा संभाला और रणभूमि में अपने वीर सैनिकों के साथ डटी रहीं।

अद्भुत पराक्रम और अंतिम युद्ध

जब युद्ध की स्थिति विकट हो गई, तब भी महारानी ने हार नहीं मानी। वह घोड़े की लगाम को दांतों से पकड़कर, दोनों हाथों में तलवार लेकर शत्रुओं से युद्ध करती रहीं। जब उन्हें ज्ञात हुआ कि अब विजय संभव नहीं है और वे बंदी बनाई जा सकती हैं, तो उन्होंने आत्मसमर्पण की अपेक्षा कटार से स्वयं को वीरगति देना उचित समझा। 24 जून 1564 को उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर यह सिद्ध कर दिया कि पराजय की अपेक्षा बलिदान श्रेष्ठ होता है।

स्मरण और प्रेरणा

महारानी दुर्गावती केवल गढ़ा राज्य की रानी नहीं थीं, वे भारत की वीरता, आत्मसम्मान और नारी सशक्तिकरण की प्रतीक हैं। उनका जीवन आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणा है। मध्यप्रदेश में उनके नाम पर “दुर्गावती विश्वविद्यालय” और कई स्मारक हैं जो उनके बलिदान को नमन करते हैं।




नारी शक्ति की प्रतीक, दुर्गावती की गाथा,
हर युग में देती है साहस की परिभाषा।

महारानी दुर्गावती का जीवन संदेश देता है कि सम्मान की रक्षा के लिए प्राणों का बलिदान भी छोटा पड़ जाता है, और सच्चा शासक वही है जो अंतिम सांस तक अपने धर्म, जनता और सम्मान की रक्षा करे।

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