ईरान-इज़राइल तनाव के बीच भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर समेत पूरे देश के कम-से-कम 110 भारतीय छात्रों को सुरक्षित निकालकर दिल्ली लाने में सफलता पाई। इस अभियान में सरकार ने लाखों रुपये खर्च करके, आर्मेनिया के रास्ते इन छात्रों को भारत पहुँचाया। यह कार्य किसी भी दृष्टि से सरल नहीं था—ईरान की हवाई सीमा बंद होने के बावजूद, जमीन के रास्ते से छात्रों को सुरक्षित निकालना, फिर विशेष फ्लाइट से दिल्ली लाना, यह सब भारत की कूटनीतिक और प्रशासनिक क्षमता का उदाहरण है।
लेकिन दिल्ली एयरपोर्ट पर पहुँचते ही कुछ छात्रों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया। उनकी माँग थी कि उन्हें बसों में नहीं, बल्कि ‘डोर-टू-डोर एयरलाइन सेवा’ चाहिए। कुछ लोगों ने तो भारत सरकार के प्रयासों का आभार भी व्यक्त नहीं किया और अपनी अलग मांगों पर अड़ गए। उनका कहना था कि अब सरकार उन्हें उनके घर तक पहुँचाए।
इस तरह की प्रतिक्रियाएँ समाज में चर्चा का विषय बन गई हैं। कई लोगों का मानना है कि सरकार ने इन छात्रों की जान बचाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन कुछ लोगों का व्यवहार कृतघ्नता और मांगों की अतिशयता की ओर इशारा करता है। भारत सरकार, विशेषकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, बार-बार यह साबित कर चुकी है कि भारतीय नागरिकों की सुरक्षा सर्वोपरि है, चाहे वे दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न हों।
हालाँकि, यह भी सच है कि लोकतंत्र में आलोचना और विरोध का अधिकार सबको है। लेकिन जब सरकार किसी की जान बचाने के लिए इतनी मेहनत करती है, तो कम से कम सम्मान और कृतज्ञता की भावना तो बनती है। आलोचना लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन कृतघ्नता और अंधविरोध लोकतांत्रिक भावना का अपमान करते हैं। यह जरूरी नहीं कि हर कोई सरकार की हर नीति से सहमत हो, लेकिन जब सरकार ने जीवन बचाया हो, तो थोड़ा आत्मचिंतन जरूरी है।
अंत में, यह घटना दर्शाती है कि भारत सरकार अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिए हर संभव प्रयास करती है, चाहे वे कहीं भी हों। साथ ही, यह भी याद दिलाती है कि लोकतंत्र में आलोचना का अधिकार है, लेकिन कृतज्ञता और सम्मान की भावना भी जरूरी है।