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“सिर्फ 30 साल की उम्र में देश के लिए फांसी चढ़ने वाला वो कवि क्रांतिकारी — जानिए रामप्रसाद बिस्मिल की अद्भुत कहानी”

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11 जून का दिन भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अत्यंत गौरवपूर्ण है। यही वह दिन है जब 1897 में एक ऐसा बालक जन्मा, जिसने मात्र 30 वर्ष की अल्पायु में भारत की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति दे दी। यह बालक कोई और नहीं बल्कि रामप्रसाद बिस्मिल थे — एक कवि, लेखक, अनुवादक, क्रांतिकारी और राष्ट्रप्रेम का जीवंत प्रतीक।

क्रांति का आरंभ किशोरावस्था से

बिस्मिल जी का झुकाव किशोरावस्था में ही आर्य समाज और स्वामी सोमदेव के विचारों की ओर हुआ। सत्य और स्वराज की प्रेरणा उन्हें इतनी गहराई से मिली कि मात्र 19 वर्ष की उम्र में क्रांतिकारी गतिविधियों में कूद पड़े।

कलम से भी, बंदूक से भी

उन्होंने एक ओर जहां 11 पुस्तकें लिखीं और खुद ही प्रकाशित कीं, वहीं क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए धन एकत्रित करने हेतु उन्होंने अंग्रेजों के खजाने को भी निशाना बनाया। उनका लिखा काव्य इतना उग्र और प्रेरणादायक था कि अंग्रेज सरकार ने उनकी अधिकांश पुस्तकों पर प्रतिबंध लगा दिया।

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मातृवेदी’ और मैनपुरी षड्यंत्र

बिस्मिल जी ‘गोंडालाल दीक्षित’ के मार्गदर्शन में ‘मातृवेदी’ नामक संगठन से जुड़े। इस संगठन के लिए उन्होंने कई डकैतियाँ कीं — लेकिन सिर्फ धन के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र की सेवा के लिए। एक घटना में अंग्रेजों ने उनकी पहचान की, लेकिन वे पुलिस से बचने के लिए यमुना नदी में कूद गए और कई मील तैरकर शरण ली।

गांधी से असहमत, लेकिन देश के प्रति अडिग

जब गांधी जी ने ‘चौरी-चौरा’ की घटना के बाद असहयोग आंदोलन वापस लिया, तो बिस्मिल जी ने इसका विरोध किया। वे मानते थे कि सशस्त्र क्रांति के बिना स्वतंत्रता संभव नहीं।

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काकोरी कांड और अमर बलिदान

1925 में उन्होंने काकोरी क्रांति का नेतृत्व किया, जिसमें ब्रिटिश सरकार की ट्रेन से धन लूटा गया। इस ऐतिहासिक घटना के बाद उन्हें गिरफ्तार किया गया और लंबी सुनवाई के बाद 19 दिसंबर 1927 को फांसी दे दी गई। उस समय उनकी आयु मात्र 30 वर्ष थी।

आज की प्रेरणा

रामप्रसाद बिस्मिल केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि विचारों के योद्धा थे। आज जब हम स्वतंत्रता का आनंद ले रहे हैं, यह आवश्यक है कि हम उन महान आत्माओं को याद करें, जिन्होंने हमें यह आज़ादी दिलाई। उनकी कविताएं, उनका बलिदान और उनका संकल्प हमें हर दिन प्रेरित करते हैं।




“मेरा रंग दे बसंती चोला…”
यही गीत नहीं, एक युग की पुकार था — और आज भी बिस्मिल के नाम से हर देशभक्त का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है।

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