“आखिर इस मानसिकता से निपटें कैसे?”
पाकिस्तान में कुछ ऐसे भी तत्व हैं, जो युद्ध की कल्पना कर भारत पर लूटमार की खुली घोषणाएं कर रहे हैं। सोशल मीडिया पर वे भविष्यवाणी करते हैं कि जीतने के बाद ताज होटल से लेकर रामजन्मभूमि तक और माधुरी दीक्षित से लेकर ऐश्वर्या राय तक, सब कुछ उनके अधिकार में होगा। यह मानसिकता केवल हिंसक कल्पनाओं तक सीमित नहीं, बल्कि ऐतिहासिक प्रवृत्तियों और धार्मिक आस्था की आड़ में आई है।
इतिहास गवाह है कि मध्यकाल में आक्रांताओं ने भारत पर केवल जीत हासिल नहीं की, बल्कि लूटमार, अपमानजनक व्यवहार और सांस्कृतिक विनाश को भी एक ‘धार्मिक कर्तव्य’ मानकर किया। आज के कुछ कट्टरपंथी उसी मानसिकता को “गजवा-ए-हिंद” की अवधारणा में जी रहे हैं।

सबसे चिंताजनक बात यह है कि यह सोच केवल कुछ सिरफिरों तक सीमित नहीं, बल्कि उनके समाज का एक बड़ा तबका इस ‘अधिकारभाव’ में पला-बढ़ा है। वे यह मानते हैं कि अगर उन्हें ताकत मिली, तो लूटमार, कब्जा और धर्म के नाम पर दमन करना उनकी धार्मिक जिम्मेदारी बन जाती है।
आज भारत सहित विश्व का एक बड़ा वर्ग — चाहे वे गैर-मुस्लिम हों या उदारवादी — यह मान बैठा है कि “वे तो ऐसा करेंगे ही।” यह स्वीकृति खतरनाक है। भारतीय न्यायव्यवस्था, मीडिया, यहां तक कि राजनीतिक दल भी कई बार इस मानसिकता के प्रति नरमी दिखाते हैं। इसे “भावनाओं का सम्मान” या “अल्पसंख्यक अधिकार” कहकर जायज़ ठहराया जाता है, जिससे कट्टरता और भी बल पाती है।
कट्टरपंथियों के तर्क भी साफ हैं:
“अगर हम कुछ करते हैं तो वह हमारी धार्मिक मान्यता है। अगर तुम नहीं कर पाते तो यह तुम्हारी कमजोरी है। अल्लाह ने हमें यह हक दिया है।”
आज ज़रूरत है उस मानसिकता को चुनौती देने की जो यह मानती है कि भारत की ज़मीन, संसाधन, महिलाएं, कला और संस्कृति — सब कुछ उनका है, और बाकी सब ‘अवरोधक’ हैं। जो भी इस विचारधारा से लड़ता है, वह उनके लिए दुश्मन है, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, वामपंथी हो या सेक्युलर।
तो सवाल है — इस मानसिकता से कैसे निपटें?
- सांस्कृतिक जागरूकता: लोगों को यह समझाना होगा कि भारत की भूमि, संस्कृति और स्वतंत्रता किसी मजहबी किताब का हिस्सा नहीं है, बल्कि एक साझा विरासत है जिसे सभी को मिलकर बचाना है।
- सिद्धांत का उत्तर सिद्धांत से: अगर कोई ‘धार्मिक अधिकार’ की आड़ में हिंसा या लूटमार को जायज ठहराता है, तो जवाब में स्पष्टता के साथ बताया जाना चाहिए कि भारत का संविधान, संस्कृति और कानून किसी भी कट्टरपंथ को स्वीकार नहीं करता।
- राजनीतिक और वैचारिक स्पष्टता: भारत की नीति निर्धारक संस्थाओं को यह तय करना होगा कि वे हर प्रकार के धार्मिक कट्टरपंथ के खिलाफ एक जैसा रुख अपनाएं — चाहे वह किसी भी पंथ से जुड़ा हो।
- सामाजिक सुरक्षा: हर नागरिक को यह भरोसा दिलाना होगा कि भारत की भूमि किसी की जागीर नहीं है। जो भी भारतवासी है, वह उसके सम्मान और सुरक्षा का अधिकारी है — बिना किसी मजहबी पूर्वाग्रह के।
निष्कर्ष:
अगर कोई मजहबी सोच यह मानती है कि दुनिया की हर वस्तु पहले से उसकी है, तो उसका उत्तर केवल नीतिगत स्पष्टता और सांस्कृतिक आत्मविश्वास हो सकता है। भारत किसी की कृपा से नहीं, अपने शौर्य, तप और त्याग से बना है।
जो भ्रम में हैं कि वे कुछ जीत लेंगे, उन्हें शांति से और दृढ़ता से समझाना होगा: “यह तुम्हारा कभी था ही नहीं, अब भी नहीं है, और भविष्य में भी नहीं होगा।”