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बकरीद पर कुर्बानी नहीं! मुस्लिम देश मोरक्को का ऐतिहासिक फैसला और उसके पीछे की वजहें

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बकरीद यानी ईद-उल-अज़हा, इस्लामी कैलेंडर का एक महत्वपूर्ण त्योहार है, जिसमें परंपरागत रूप से पशु कुर्बानी दी जाती है। लेकिन 2025 में एक मुस्लिम देश ने इस परंपरा को अस्थायी रूप से विराम देने का ऐतिहासिक फैसला लिया है। अफ्रीकी देश मोरक्को, जिसकी 99% आबादी मुस्लिम है, ने इस साल बकरीद पर कुर्बानी पर रोक लगाने का निर्णय लिया है। यह कदम मोरक्को के लिए धार्मिक दृष्टि से जितना बड़ा है, उतना ही यह पर्यावरणीय और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण माना जा रहा है।

मोरक्को के राजा मोहम्मद VI ने यह निर्णय देश में जारी भीषण सूखे और घटती पशु संख्या को देखते हुए लिया है। बीते छह वर्षों से देश भयंकर सूखे की चपेट में है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भेड़ों की संख्या में 38% की गिरावट दर्ज की गई है। इतना ही नहीं, इस साल बारिश भी औसत से 53% कम हुई है, जिससे पशु चारे और पीने के पानी की भारी कमी पैदा हो गई है।

सूखे की वजह से न सिर्फ भेड़-बकरी पालन प्रभावित हुआ है, बल्कि इससे देश की मांस उत्पादन प्रणाली और समग्र अर्थव्यवस्था पर भी गंभीर असर पड़ा है। मोरक्को सरकार के लिए यह सिर्फ एक धार्मिक मुद्दा नहीं था, बल्कि पशु संरक्षण और कृषि-आधारित जीवनशैली की सुरक्षा का भी सवाल था।

इस फैसले के पीछे सामाजिक जिम्मेदारी की भावना साफ झलकती है। राजा मोहम्मद VI ने नागरिकों से अपील की है कि वे इस बार कुर्बानी की जगह इबादत, प्रार्थना और जरूरतमंदों को दान देकर त्योहार मनाएं। यह संदेश एक गहरी संवेदनशीलता और दूरदर्शिता को दर्शाता है, जो प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और संतुलन की दिशा में एक उदाहरण बन सकता है।

इस फैसले की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा हो रही है। यह एक ऐसा कदम है जो यह दिखाता है कि परंपराएं भी समय और परिस्थिति के अनुसार विवेकपूर्ण बदलाव की मांग कर सकती हैं। मोरक्को का यह निर्णय सिर्फ पर्यावरण के प्रति जागरूकता ही नहीं दर्शाता, बल्कि यह भी संकेत देता है कि धर्म और प्रकृति के बीच संतुलन बनाए रखना कितना आवश्यक है।

जहां एक ओर कुछ लोग इस फैसले को परंपरा से विचलन मान सकते हैं, वहीं दूसरी ओर यह एक ऐसा दृष्टांत बन सकता है, जिसे आने वाले समय में अन्य मुस्लिम देश भी अपनाने पर विचार कर सकते हैं, खासकर तब जब जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय संकट लगातार बढ़ते जा रहे हैं।

मोरक्को ने यह दिखा दिया है कि धार्मिक भावनाओं को आहत किए बिना भी सामाजिक, आर्थिक और पारिस्थितिक संकटों का समाधान संभव है – बस आवश्यकता है दूरदृष्टि और जनहित में लिए गए निडर फैसलों की।

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