Vishwa Samvad Kendra Jodhpur

इतिहास दृष्टि- महान महाराणा और झूठी बुनियाद पर खड़ा अकबर

Facebook
Twitter
LinkedIn
Telegram
WhatsApp
Email
मुगल सम्राट अकबर तथा महाराणा प्रताप दोनों भारतीय इतिहास में विशिष्ट स्थान रखते हैं। दोनों समकालीन हैं। परंतु ऐतिहासिक तथ्यों के संदर्भ में दोनों की भूमिका पूर्णत: भिन्न है जिसमें जमीन-आसमान का अन्तर है। दोनों
में सामंजस्य अथवा तालमेल ढूंढना व्यर्थ होगा। प्राय: भारत के कुछ ईरानी लेखकों, पाश्चात्य इतिहासकारों भारतीय कम्युनिस्ट लेखकों तथा कुछ छद्म सेकुलरवादियों ने जानबूझकर इसे विवादित तथा भ्रामक बना दिया है। 
वस्तुत: यह भ्रम राष्ट्रीय दृष्टिकोण के अभाव में वर्तमान काल में ही नहीं बल्कि सम्राट अकबर के शासनकाल में भी था। अकबर के विश्वासपात्र अबुल फजल ने स्वयं लिखा है कि दीने इलाही की स्थापना के बाद जब इसके अनुयायी आपस में मिलते तो परस्पर अभिवादन करते समय ‘अल्लाह हो अकबर’ तथा ‘जलयाल हूं’ कहते थे तथा
वे इसका अर्थ ‘अल्लाह महान है’ की बजाय ‘अकबर अल्लाह है’ या ‘अकबर महान है’ ही समझते थे।
ब्रिटिश इतिहासकारों तथा प्रशासकों को सम्राट अकबर की हिन्दुओं के प्रति अपने शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए श्रेष्ठ लगी। अकबर की राजनीति में परस्पर अलगाव तथा टकराव के तत्व थे जिससे भारत में
विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों एवं समुदायों में अलगाव स्थापित कर लम्बे समय तक राज किया जा सके। अंग्रेजों ने भारत में अपने राज्य के अन्त तक अर्थात भारत विभाजन तक इस विभाजन और राज करो नीति का पोषण किया। उदाहरणत: कर्नल टाड ने मुगल सम्राट अकबर की भांति ब्रिटिश साम्राज्य के लिए राजपूतों को उपयोगी बताया (देखें, कर्नल टाड, एनल्स एण्ड ऐनकष्ट्रोन ऑफ राजस्थान, भाग दो पृ. 157) वस्तुत: नीति का स्वरूप संरक्षण तथा शोषण था। अत: सभी ने प्रमुख ब्रिटिश इतिहासकारों जेम्स टाड (1782-1835), विलियम विल्सन हण्टर (1840-1890), जे. डब्ल्यू.जी.बी. मैलीशन, वी.ए. स्मिथ, प्राय: सभी ने अकबर की नीति का अनुमोदन किया। उल्लेखनीय है कि भारत में अंग्रेजी राज्य का अंतिम वायसराय लार्ड माउन्टबेटन भी नवनिर्मित पाकिस्तान में पाकिस्तान के सदन में 14 अगस्त 1947 को सम्राट अकबर को भावभीनी श्रद्धांजलि देना न भूला।
भारतीय कम्युनिस्ट लेखकों ने मुगल साम्राज्य को भारत का शानदार युग तथा मुगल शासकों को महान मुगल कहा है (विपिन चन्द्र- मॉडर्न इण्डिया, पृ. 11) इससे भी एक कदम और बढ़कर इसे भारत में स्थापित राष्ट्रीय राज्य अथवा भारतीय राष्ट्रवाद की तुलना में राष्ट्रीय शासक थे (रोमिला थापर, हरवंस मुखिया तथा विपिन चन्द्र, कम्युनलिज्म एण्ड द राइटिंग्स आफ इंडियन हिस्ट्री, पृ. 58-60) भारतीय कम्युनिस्ट लेखकों तथा तथाकथित सेकुलरवादियों ने महाराण प्रताप को केवल दिल्ली सम्राट के संदर्भ में ही देखने का प्रयत्न किया जा या मेवाड़ के राजाओं की श्रृंखला की एक कड़ी माना। उन्होंने राणा प्रताप का प्रभाव सीमित श्रेत्र तक ही बतलाया। वस्तुत: मुगल शासक की तुलना करते हुए, महाराणा प्रताप से श्रेष्ठ इसे बतलाते हुए, एक झूठे प्रचारतंत्र तथा राजनीतिक परिस्थितियों के अनुरूप अवसरवादिता ही कहा जा सकता है, परन्तु इतिहास के पाठकों को इस प्रचार के प्रमाण रहित तथ्यों के आधार पर ज्यादा देर तक भ्रमित नहीं किया जा सकता। हद तो तब हो गई जब कांग्रेस सरकार के काल में प्रकाशित कक्षा छह से कक्षा बारह तक की सभी इतिहास की पुस्तकों में एनसीईआरटी द्वारा महाराणा प्रताप को इतिहास से निष्कासित कर दिया गया। उसका नाम भी इतिहास की पुस्तकों में नहीं है। साथ ही श्याम नारायण पाण्डे की पुस्तक हल्दीघाटी के पदों को पुस्तको से निकाल दिया गया। ऐसी क्षुद्र मानसिकता क्या कभी किसी देश में अपने देश के वीरों के संदर्भ में मिलेगी? कदापि नही।
मूल प्रश्न है कि आखिर महान कहलाने की कसौटी क्या है? किसे महान कहा जाए। अति संक्षेप में किसी शासक का मूल्यांकन उसके द्वारा राष्ट्रजीवन के विकास में किये गये प्रयत्नों के रूप में आंका जाना चाहिए। उसकी मातृभूमि, भक्ति तथा सांस्कृतिक जीवन मूल्यों की स्थापना में उसके योगदान से की जानी चाहिए। उसके धर्म संरक्षण तथा जनकल्याण के कार्यों से आंकी जाना चाहिए। अत: सम्राट अकबर तथा महाराणा प्रताप का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक होगा।
साम्राज्यवादी अकबर सम्राट अकबर मुगल वंश का तीसरा शासक था जिसने 1956-1605 ई. तक अर्थात लगभग पचास वर्ष राज्य किया था। पहले दो शासकों की भांति वह भी विदेशी था। उसकी रगों में भारतीय रक्त की एक  बूंद भी न थी (वी.ए. स्मिथ, अकबर द ग्रेट मुगल, पृ.1) वह अफीम मिली शराब का व्यसनी था। नशे में इतना धुत हो जाता था कि मेहमान से बातें करते-करते सो जाता था (विवियन, अकबर पृ.16) उसमें महिला विषयक सभी बातें थीं। अबुल फजल के अनुसार उसके हरम में 3000 महिलाएं थीं (अबुल फजल, अकबरनामा) सम्राट अकबर का जीवन-दर्शन तथा दैनिक क्रियाकलाप एक विदेशी साम्राज्यवादी तथा कट्टर मुसलमान के समान थे। उसने प्रारंभ से ही भारत में अपना राजनीतिक एवं मजहबी प्रभुत्व स्थापित करने का प्रयत्न किया। अकबर के राज्य विस्तार की भावना तैमूरिया वंश परंपरा के अनुकूल थी, जो नृशंसता, क्रूरता, दमन तथा अत्याचारों से पूर्ण थी। उसे छल कपट से दूसरे राज्य को जीत लेने में जरा भी हिचक न होती थी। विशेषकर हेमचन्द्र विक्रमादित्य (हेमू), महारानी दुर्गावती तथा महाराणा प्रताप से संघर्ष सम्राट अकबर के राष्ट्रीय चरित्र की क्षुद्रता को दर्शाते हैं। 
क्या सम्राट अकबर को हेमू का सिर कटवाने, हेमू के पिता संत पूरनदास को मौत के घाट उतारने तथा बाबर की भांति कत्ले आम कर काफिरों का स्तंभ बनवाने तथा स्वयं गाजी की उपाधि प्राप्त करने जैसे कुकृत्यों से उसे भारतीय राष्ट्र का पोषक अथवा महान कहा जा सकता है? रानी दुर्गावती पर उसका आक्रमण केवल उसकी साम्राज्यवादी लिप्सा तथा क्षुद्र स्वार्थ भावना का द्योतक है। अबुल फजल ने भी इसे अकबर की अदूरदर्शिता माना
है। इतिहासकारों ने अकबर के इस आक्रमण को अकारण माना है (वी.ए. स्मिथ, अकबर द ग्रेट, पृ. 50-51) क्या वास्तव में यह आक्रमण अतिक्रमण के अलावा कुछ न था (वीवी कुलकर्णी, हीरोज, हू मेक हिस्ट्री, पृ. 65) अकबर का मेवाड़ (चित्तौड़) पर आक्रमण उसके जीवन का भयंकरतम युद्ध था। यह आक्रमण उसकी उत्तरी भारत में सवेरच्चता प्राप्त करने की नीति का भाग था (डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव, भारत का इतिहास,  पृ.497) यह संघर्ष विदेशी साम्राज्यवाद तथा मातृभूमि के प्रति उत्कृष्ट प्रेम से परिपूर्ण राष्ट्रवाद का युद्ध था।
अकबर ने चितौड़ पर दो आक्रमण किया था। पहला 1567 ई. जो मेवाड़ के राजा उदयसिंह के साथ हुआ था। कर्नल टाड और वीर विनोद में इसका विशद वर्णन है। इस महायुद्ध में 30,000 हिन्दुओं का नरसंहार किया गया था। इतने वीभत्स अत्याचार तो क्रूर अलाउद्दीन खिलजी ने भी नहीं किये थे (वी.वी. कुलकर्णी, पूर्वोद्धृत, पृ. 45) पांथिक तथा सांस्कृतिक दृष्टि से भी अकबर के कुकृत्य किसी भी विदेशी धर्मान्ध शासक से कम न थे। हेमू का सिर काटकर गाजी की उपाधि इतनी छोटी आयु में प्राप्त करने वाला, वह पहला और आखिरी मुगल बादशाह था। 
प्रारंभ में बदायूंनी के अनुसार पांच बार नमाज पढ़ता था। मक्का जाने वाले यात्रियों को एक बड़ी धनराशि सरकारी खजाने से दी जाती थी (वी.ए. स्मिथ, वही पृ 48) उसके द्वारा स्थापित इबादतखाने में प्रारंभ में केवल शेखों और उलेमाओं का प्रभुत्व था। वह इस्लाम का पैगम्बर बनना चाहता था। उसने एक महर भी तैयार करवाया था। वी ए स्मिथ ने इसे एक सुनियोजित पाखण्ड की नीति कहा है। उसने एक तारीखे इलाही भी प्रारंभ की। 1582 ई. दी ए इलाही धर्म की स्थापना उसके राजनीतिक प्राप्त का अगला पक्ष था। इसके सदस्यों के लिए सबसे महत्वपूर्ण कसौटी पूर्ण राजभक्ति की शर्त थी….. वी.ए. स्मिथ ने लिखा कि संपूर्ण योजना मिथ्यास्पद तथा निरंकुश स्वेच्छाचारिता का विकास थी। आश्चर्य है कि अकबर के मरते ही इस धर्म का कोई नामलेवा भी न रहा।
शूरवीर महाराणा 
सन 1572 में महाराणा उदयसिंह की मृत्यु पर गोगन्दा में महाराणा प्रताप को मेवाड़ का महाराजा बनाया गया। विराजसत में उन्हें मिला मेवाड़ राज्य के नाम पर केवल 450 वर्ग किमी. परिधि वाला छोटा सा पर्वतीय भूभाग, प्राचीन मेवाड़ की गौरवमयी कुल परंपरा तथा 1568 में अकबर द्वारा चित्तौड़ का ध्वंस, जौहर तथा तीस हजार राजपूतों के नरसंहार की स्मृतियां। उसके सम्मुख दो विकल्प थे-
साम्राज्यवादी क्रूर तथा चालाक सम्राट अकबर की अधीनता अथवा भारत की स्वाधीनता के लिए विदेशी अकबर से अनवरत संघ र्ष। प्रताप ने दूसरा मार्ग चुना। नि:संदेह महारणा प्रताप ने अकबर के विरुद्ध अपनी स्वाधीनता की रक्षार्थ आजीवन संघर्ष ने भारत के राष्ट्रीय चरित्र को शक्ति तथा उच्चता प्रदान की। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने लिखा प्रताप के अकबर महान के विरुद्ध सफल संघर्ष के कारण भारतवर्ष की प्रधान तात्विक भावना का प्रतीक माना गया है जो सर्वथा उचित है। यह भावना देश के परंपरागत गौरव की रक्षा करती है और इस गौरव पर आंच लाने वाली हर बात के विरुद्ध संघर्ष करती है। 
संकट की बेला में महाराणा प्रताप ने अद्भुत धैर्य, क्षमता तथा शौर्य का परिचय दिया। उन्होंने भीलों तथा अन्य जनजातियों को समरसता, सहयोग से संगठित कर उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ दिया, जो आज भी राष्ट्रीय कर्णधारों के लिए बेजोड़ मिसाल है। सम्राट अकबर ने अपने स्वभाव के विपरीत महाराणा प्रताप पर तुरंत आक्रमण नहीं किया। पहले उसने मेवाड़ के चारों ओर के क्षेत्रों पर महाराणा प्रताप के संबंधियों को शासक बनाया, जो महाराणा के विरुद्ध थे। मेवाड़ के आसपास मुसलमानों को बसाया। एक-एक करके चार बार अकबर ने अपने दूत प्रताप को अधीनता स्वीकार करने को भेजे, पर सभी असफल रहे। आखिर मानसिंह को प्रताप के विरुद्ध भेजा। 
राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. के.एस. गुप्ता ने इसका विस्तृत वर्णन किया। मुख्य युद्ध खमनौर के पास रक्त तिलाई में हुआ (यहां स्मृति के रूप में एक विशाल सरोवर बना हुआ है) हल्दीघाटी में भयंकर मारकाट हुई। अबुल फजल ने लिखा, युद्ध में इज्जत महंगी और जान सस्ती थी। युद्ध में महाराणा प्रताप को भारी सफलता मिली तथा मुगल सेना को भागना पड़ा। हल्दीघाटी का यह युद्ध भारत के इतिहास की अमर गाथा है। विदेशी मुगल शासन की स्थापना के पश्चात पचास वषेरं में यह पहला मुगलों के विरुद्ध संघर्ष था जिसने मुगलों की अजेय सेना की धारणा को समूल नष्ट कर दिया था। (डॉ. राजेन्द्र सिंह कुशवाहा, ग्लिम्प्सेज ऑफ इंडियन हिस्ट्री, पृ. 312) इस महान संघर्ष ने हिन्दू समाज में नवचेतना, आत्मविश्वास तथा विजिगीषु वृत्ति को जगाया। कर्नल टाड का यह कथन अकाट्य है कि अरावली पर्वत श्रृंखलाओं का कोई भी पथ ऐसा नहीं है जो प्रताप के किसी कार्य से पवित्र न हुआ हो, किसी भी शानदार विजय अथवा उससे भी शानदार पराजय से। हल्दीघाटी मेवाड़ का पवित्र रणक्षेत्र है तथा दिवेर का मैदान उसकी मैराथन है। कुछ ईरानी लेखकों, पाश्चात्य इतिहासकारों तथा चाटुकार भारतीय विद्वानों ने इस युद्ध में महाराणा प्रताप की पराजय का उल्लेख किया है जो नितांत बेहूदा तथा गलत है। राजस्थान तथा अन्य समकालीन इतिहासकार महाराणा प्रताप की विजय की गवाही देते हैं। इस संदर्भ में राज प्रशस्तियां, अमर काव्य, वंशावली, राजा रासो तथा जगदीश मंदिर का अभिलेख इसके बारे में स्पष्ट रूप से प्रकाश डालते हैं। सार रूप में अभिलेख में मानसिंह की सेनाओं के भागने का उल्लेख है। प्रशस्ति 13 मई 1652 की है इसे प्रसिद्ध इतिहासकार गौरीशंकर ओझा ने उद्घृत किया है। (देखें, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग एक पृ.441) इस भयंकर संघर्ष में अकबर को केवल महाराणा प्रताप का हाथी राम प्रसाद मिल गया, जिसका नाम अकबर ने बदलकर पीर प्रसाद कर दिया था। इस संघर्ष से अकबर मानसिंह तथा आसिफ खां से बहुत नाराज हुआ तथा
उनके दरबार में आने पर प्रतिबंध लगा दिया। इसके पश्चात अकबर की महाराणा प्रताप से लड़ने की हिम्मत न हुई। परंतु छुटपुट संघर्ष चलते रहे। अकबर ने क्रमश: शाहबाग खां, अब्दुर्रहीम खानखाना तथा जगन्नाथ कुशवाहा को भेजा, पर सभी असफल रहे। इसके पश्चात भी महाराणा आसपास के राजाओं के साथ संगठन करते रहे। इसका परिणाम यह हुआ कि 1597 ई में उन्होंने मृत्यु से पूर्व चित्तौड़ के आसपास के प्राय: सभी मुगलों द्वारा कब्जाए विभिन्न किलों तथा क्षेत्रों को पुन: मुक्त करा लिया।
महान कौन?
भारत के अनेक प्रबुद्ध इतिहासकारों ने महानता की कसौटी पर माप कर महाराणा प्रताप तथा अकबर के योगदान तथा प्रभावों का मूल्यांकन किया है। विद्वानों ने महाराणा प्रताप को भारतीय इतिहास का वह स्वर्णिम पृष्ठ बतलाया है जिनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व ने भारत की श्रेष्ठ वीर पुरुषों की परंपरा को अमरत्व प्रदान किया। 
महाराणा प्रताप का जीवन वह संघर्ष गाथा है जिसके जीवन में विश्राम नहीं था। डॉ. गौरीशंकर ओझा ने प्रताप को राजस्थान के इतिहास को उज्ज्वल और गौरवमय बनाने का श्रेय देने वाला तथा अकबर की कूटनीति का उत्तर देने वाला एकमात्र व्यक्ति बतलाया है। प्रसिद्ध विद्वान मार्क्सवादी चिंतक डॉ. रामविलास शर्मा ने अकबर की साम्राज्यसादी नीति की आलोचना करते हुए लिखा कि अकबर के सामने देश में चक्रवर्ती सम्राटों का आदर्श होता तो वह गुजरात और बंगाल जैसे क्षेत्रों पर विशेष रक्तपात के बिना स्वात्तशासी प्रदेश रहने देता (डॉ. रामविलास शर्मा, इतिहास दर्शन) भारत के इतिहास में महाराणा प्रताप सदैव प्रेरक रहे, अकबर नहीं। वस्तुत: अंग्रेजों के काल में दासता से मुक्ति दिलाने में प्रताप के नाम ने जादू का काम किया था (डॉ. के.एस. गुप्ता, साम्राज्यवाद के विरुद्ध स्वतंत्रता का पथ प्रदर्शक मेवाड़) क्रांतिकारी शचीन्द्र सान्याल की अभिनव भारत समिति की सदस्यता के लिए चित्तौड़ जाकर विजय स्तंभ के नीचे शपथ लेने की पहली शर्त थी। सदस्य बनने के पश्चात चितौड़ तीर्थ की यात्रा तथा हल्दी घाटी की माटी का तिलक आवश्यक था। श्यामनारायण पाण्डे ने अपनी प्रसिद्ध काव्य हल्दीघाटी (1949) में प्रताप को भारत का गौरव लिखा। 
गणेश शंकर विद्यार्थी प्रताप को अपने इष्टदेव के रूप में मानते थे। 9 नवम्बर 1913 को उन्होंने अपनी साप्ताहिक पत्रिका प्रताप को समर्पित करते, पहले अंक में लिखा- संसार के किसी भी देश में तू (राणा प्रताप) होता तो तेरी पूजा होती और तेरे नाम पर लोग अपने को न्योछावर करते। 
अमरीका में होता तो वाशिंगटन या नेल्सन को तेरे आगे झुकना पड़ता। फ्रांस में जॉन ऑफ आर्क तेरी टक्कर में गिनी जाती और इटली तुझे मैजिनी के मुकाबले रखती।’ हल्दीघाटी के पश्चात सम्राट अकबर की महाराणा प्रताप से लड़ने की हिम्मत न हुई। इतिहास का कोई भी पाठक स्वयं निर्णय कर सकता है कि क्या भारत की महानता, महाराणा प्रताप की स्वाभिमानपूर्ण तथा राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत स्वराज्य के लिए संघर्ष में थी या साम्राज्यवादी, विदेशी, मतान्ध तथा महत्वाकांक्षी अकबर की कूटनीति में। वस्तुत: सम्राट अकबर के साथ महान शब्द जोड़ना सर्वथा अनुचित तथा तथ्यहीन है। नि:संदेह ‘महान’ महाराणा प्रताप का जीवन भावी पीढ़ी के लिए सतत् प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा। 
                   –डॉ. सतीशचन्द्र मित्तल
साभार: पाञ्चजन्य  
Facebook
Twitter
LinkedIn
Telegram
WhatsApp
Email
Tags
Archives
Scroll to Top