Vishwa Samvad Kendra Jodhpur

अपनी बात-दिन पलटे, बात उलटी

Facebook
Twitter
LinkedIn
Telegram
WhatsApp
Email
@hiteshshanker @eppanchjanya

विरोध बुरी बात नहीं, यह बात का दूसरा पहलू उजागर करता है। विपक्ष में ताल ठोकने वाले की पहचान भी गढ़ता है। लेकिन क्या हो यदि विपक्षी तर्क रखने वाले व्यक्ति या उसके खेमे में विरोध की बजाय विरोधाभास पैदा हो जाए!

यकीन मानिए साख जमने की बजाए मिट्टी कुट जाती है।

सामाजिक-राजनैतिक-बौद्धिक जगत में पिछले कुछ दिनों से विरोधाभासों की यह धूल इतनी ज्यादा उड़ी कि कुछ लोगों (या पक्षों) की मिट्टी-पलीद तय लगने लगी है।

उलटबांसियों की इस सूची में सबसे पहले आवाज उस इलाके की जिसने पड़ोसी देश के दोमुंहेपन को उजागर कर दिया। पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर में फौजी जमावड़े के बावजूद हजारों युवकों, महिलाओं और बच्चों की भीड़ का जुटना पूरी दुनिया को इस क्षेत्र में पलती घुटन से रू-ब-रू करा गया। पाकिस्तान अब कश्मीरियों के हक की बात करे तो किस मुंह से! गिलगित-बाल्टिस्तान, मीरपुर-मुजफ्फराबाद की लगातार बुलंद होती इन आवाजों से इस्लामाबाद थर्रा रहा है। हालिया प्रदर्शनों के बाद संयुक्त राष्ट्रसंघ में नवाज शरीफ के पास कहने के लिए कुछ नहीं था। ‘एस्टैब्लिशमेंट’ से मिला पर्चा विश्व चौपाल पर पढ़ा तो गया लेकिन पर्दा उठ चुका है…कितनी भद कहां और कैसे पिटेगी, देखना     बाकी है।

विरोधाभास का दूसरा नजारा दिखा दिल्ली में। दावों और कार्यशैली में दो ध्रुवों का अंतर रखने वाले लोग एक और क्रांतिकारी विचार लेकर आए। जिस राज्य में डीटीसी कर्मियों की सेवानिवृत्ति और भुगतान की फाइलें महीनों से अटकी हैं, जहां निगम कर्मियों की पेंशन और चतुर्थ श्रेणी कर्मियों का वेतन समय से चुकाना राज्य सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं है वहां नए-नवेले नेताओं को चौगुने वेतन का भोग लगाने की तैयारियां पूरी हो चुकी हैं। डेंगू पर सो जाने और तुष्टीकरण के लिए दादरी की दौड़ लगाने वालों का इस पर भी तुर्रा यह कि पूरी वीआईपी ललक और ठसक के बावजूद बिल्ला ‘आम आदमी’ का ही लगाएंगे। चूंकि यह नई तरह की राजनीति है सो, जनता को किसी तरह की कोई सफाई देने का मतलब ही नहीं है। आठ माह में साठ तरह के पैंतरे आजमाने वाले इस परिवर्तन की परख लोग कैसे करेंगे, देखना बाकी है।

कथनी-करनी में फर्क का तीसरा झरोखा खुला बुद्धि के कुछ स्वयंभू ठेकेदारों की ओर। जाहिर है, बात अक्ल की थी इसलिए भंगिमा भी सोच-समझकर बनाई गई। हिन्दू धर्म को विकृत करने और भारत को नष्ट करने के प्रयासों के विरोध में ‘सेकुलर ग्रंथि से पीडि़त’ कुछ कलमकारों ने अपने तमगे लौटा दिए। देश को चाहे जो शासन पसंद हो, इन्हें ‘नेहरू मॉडल’ से इतर कुछ स्वीकार नहीं। वही नेहरू जिन्होंने 1938 में जिन्ना को लिखे पत्र में गोहत्या करना मुसलमानों का मौलिक अधिकार माना था। कांग्रेसी राज्य रहने पर गोहत्या जारी रखने का वचन दिया था। इतना ही नहीं गो हत्या जारी रखने के लिए प्रधानमंत्री पद तक छोड़ने की घोषणा की थी। वही ‘नेहरू मॉडल’ इन्हें चाहिए। सिख दंगों के दोषियों के हाथों से ‘सम्मानित’ होने में ये बुद्धिजीवी आहत नहीं हुए थे। अल्पसंख्यक की सेकुलर परिभाषा सिर्फ एक वर्ग तक सिमटी है। कश्मीर के विस्थापित हिन्दुओं के लिए इनके मुंह से एक बोल न फूटा था। क्योंकि इनके हिसाब से हिन्दुओं के मानवाधिकार जैसी कोई चीज होती नहीं है। लेकिन अब राज बदला, कामकाज बदला, पूछ-परख कुछ रही नहीं तो बात बर्दाश्त से बाहर हो रही है। असहिष्णु बुद्धिजीवियों ने अपनी कुनमुनाहट उजागर कर दी है। सहिष्णुता और हिन्दू धर्म के प्रति अनुराग की नेहरूवादी टेर में विरोधाभास कितना है! जनता सच तलाशने लगी है। बौखलाहट इसलिए है क्योंकि कुर्सी जा चुकी है, लेकिन कसक बाकी है।

उलट कथन का चौथा उदाहरण बिहार में एक राजनीतिक दल के मुखिया ने सामने रखा है। बहुसंख्यक समाज और बिरादरी से उलट वह शायद देश के ऐसे इकलौते ‘यादव’ होंगे जो गाय और बकरी को समान मानते हैं। ऐसे यदुवंशी जो गाय को गोकुलनंदन कृष्ण की बजाय मांसाहारी की दृष्टि से देखना सही मानते हैं। यदि उन्हें लगता है कि उन्होंने समझदारी की बात की तो समाज उनकी समझदारी में साझीदार होने को तैयार नहीं है। यदि उन्हें लगता है कि मसखरी में सब माफ हो जाता है, तो इस बार समाज के मिजाज से खिलवाड़ की मसखरी उन्हें भारी पड़ने वाली है।

विरोधाभास का पंचम और अंतिम स्वर जरा खिलखिलाता हुआ। बिहार में शेखपुरा की एक राजनैतिक सभा में जब यह स्वर फूटा तो ज्यादातर लोगों के चेहरे पर हंसी तैरने लगी। कुनबा पार्टी के बुढ़ाते युवराज के बारे में सब एक बात पर तो एकमत हैंं …जनता उन्हें गंभीरता से नहीं लेती। खुद पार्टी के वरिष्ठजन दबी जुबान से यह कहते रहे हैं। लेकिन अपने बारे में स्वयं उनकी राय स्थापित मान्यताओं के उलट है।

उन्हें लगता है कि देश के प्रधानमंत्री उन्हें और उनकी बातों को गंभीरता से लेने लगे हैं। पहनावा भी उनके तेवरों से डर कर बदल दिया है।

खैर, खामख्याली से किसे कौन रोक सका है।

पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाली वादी से शेखपुरा के मैदान तक मुद्दों का दरिया उफना रहा है। विरोधाभास के चप्पू चलाते हुए कौन कहां पहुंचेगा, देखना बाकी है

Facebook
Twitter
LinkedIn
Telegram
WhatsApp
Email
Tags
Archives
Scroll to Top