राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) आज सिर्फ एक संगठन नहीं, बल्कि एक जन-आंदोलन के रूप में उभर रहा है। यह एक ऐसी पहचान है जिसने दशकों से चली आ रही पुरानी धारणाओं को तोड़ा है और समाज के एक बड़े वर्ग को अपने साथ जोड़ा है। इस परिवर्तन ने कई लोगों को, खासकर उन लोगों को जो संघ की पारंपरिक छवि से परिचित थे, भयभीत किया है। यह भय, जिसे संघ विरोधी और हिंदुत्व विरोधी विचारधाराओं ने दशकों तक पोषित किया, अब संघ की नई, अधिक पारदर्शी और संवाद-केंद्रित कार्यशैली से टूट रहा है। इस लेख में, हम इसी प्रक्रिया, संघ के बदलते स्वरूप और इस बदलाव से उत्पन्न होने वाले भय का विस्तार से विश्लेषण करेंगे।

संघ विरोधी नैरेटिव का टूटना: रज्जू भैया का योगदान
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के चौथे सरसंघचालक प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह, जिन्हें प्यार से रज्जू भैया के नाम से जाना जाता है, ने संघ के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ ला दिया। उनके कार्यकाल में, संघ ने पहली बार अपना प्रचार विभाग और संपर्क विभाग स्थापित किया। यह कदम संघ के बारे में दशकों से चले आ रहे संघ विरोधी नैरेटिव को चुनौती देने के लिए एक रणनीतिक प्रयास था। उस समय, बाबरी ढांचा टूट चुका था और ‘गर्व से कहो हम हिंदू हैं’ का नारा पूरे देश में गूंज रहा था। हिंदुत्व विरोधी बुद्धिजीवी इस हिंदू लहर का मुकाबला करने में कठिनाई महसूस कर रहे थे।
संघ विरोधी समूहों का सबसे बड़ा हथियार यह था कि वे संघ को ‘हिंदू विरोधी’ और ‘आजादी के आंदोलन में हिस्सा न लेने वाला’ संगठन बताते थे। वे यह भी आरोप लगाते थे कि संघ ने अंग्रेजों का साथ दिया। रज्जू भैया ने इस नैरेटिव को तोड़ने की शुरुआत की। 1994 में, उन्होंने माधव गोविंद वैद्य को नागपुर से दिल्ली बुलाकर संघ का पहला आधिकारिक प्रवक्ता नियुक्त किया। वैद्य ने अपनी सूझबूझ और धैर्य के साथ संघ विरोधी पत्रकारों के तीखे और भ्रामक सवालों का सामना किया और नए पत्रकारों के बीच संघ के बारे में फैली भ्रांतियों को दूर करने का प्रयास किया। इस पहल से संघ के खिलाफ चला आ रहा एकतरफा प्रचार रुक गया और विभिन्न मुद्दों पर संघ का दृष्टिकोण सीधे सामने आने लगा।
इस प्रयास के परिणामस्वरूप, कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य भी सामने आए। यह उजागर हुआ कि संघ के संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने अंग्रेजों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप में दो बार, एक-एक साल का कारावास भोगा था। 1922 में जब वे पहली बार जेल से रिहा हुए, तो उनके सम्मान में आयोजित सभा में मोतीलाल नेहरू और सरदार पटेल जैसे महान नेता उपस्थित थे। यह बात संघ विरोधी दावों के ठीक विपरीत थी कि संघ ने आजादी के आंदोलन में भाग नहीं लिया।
स्वतंत्रता संग्राम में संघ की भूमिका का खुलासा
संघ विरोधी समूहों के इस झूठे प्रचार के विपरीत, यह तथ्य सामने आया कि डॉ. हेडगेवार स्वयं कलकत्ता के क्रांतिकारियों के संगठन अनुशीलन समिति के सदस्य थे। उनके सुभाष चंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, और राजगुरु जैसे क्रांतिकारियों के साथ लगातार विचार-विमर्श होते थे। उन्होंने तो राजगुरु को नागपुर और अकोला में भूमिगत आवास भी उपलब्ध कराया था।
इसी समय, राकेश सिन्हा की पुस्तक ‘अंडरस्टैंडिंग आरएसएस’ प्रकाशित हुई, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम में डॉ. हेडगेवार की भूमिका का विस्तार से खुलासा किया गया। इस पुस्तक ने हिंदुत्व विरोधी समूहों द्वारा गढ़े गए झूठ को और भी कमजोर कर दिया। संघ के कार्यकर्ताओं ने भी हिंदुत्व विरोधी समूहों का असली चेहरा उजागर करना शुरू किया। यह सामने आया कि संघ नहीं, बल्कि हिंदुत्व विरोधी समूह ही अंग्रेजों की दलाली कर रहे थे और आजादी के आंदोलन की पीठ में छुरा घोंप रहे थे।
हिंदुत्व विरोधी समूहों ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के खिलाफ अंग्रेजों का साथ दिया और उन्हें ‘अंग्रेजों का कुत्ता’ तक कहा था। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का भी विरोध किया, जबकि संघ के स्वयंसेवक इस आंदोलन का हिस्सा थे। 1946 में, इन समूहों ने भारत के विभाजन का समर्थन किया था। आजादी के बाद 1950 तक, वे भारत सरकार के खिलाफ सशस्त्र आंदोलन चला रहे थे।
हिंदुत्व विरोधी समूहों का एक और आरोप यह था कि संघ अपने कार्यालय पर राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराता। लेकिन यह बात भी गलत निकली। नागपुर स्थित संघ कार्यालय पर 15 अगस्त 1947 को ही राष्ट्रीय ध्वज फहराया गया था। यह तथ्य भी उजागर हुआ कि खुद इन समूहों ने 1952 तक अपने कार्यालय पर राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया था। यदि रज्जू भैया ने प्रचार विभाग शुरू न किया होता, तो संघ विरोधी समूहों द्वारा फैलाए गए इन झूठे नैरेटिव का जवाब कभी सामने नहीं आ पाता, क्योंकि 1994 से पहले संघ केवल अपने संगठन और सेवा कार्यों पर ध्यान केंद्रित कर रहा था।

मोहन भागवत: संवाद के माध्यम से भ्रांतियों को तोड़ना
संघ के छठे सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत को यह श्रेय जाता है कि उन्होंने रज्जू भैया के काम को और भी आगे बढ़ाया। उन्होंने संघ के बारे में फैलाई गई भ्रांतियों को तोड़ने के लिए संवाद का रास्ता अपनाया और संघ के दृष्टिकोण तथा विचारों को जन-जन तक पहुँचाने का काम शुरू किया। इसी कारण आज संघ एक संगठन से बढ़कर एक जन-आंदोलन बन चुका है।
इस दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम 2016 में प्रभु चावला को दिया गया उनका एक बड़ा इंटरव्यू था। इसके बाद 2018 में दिल्ली के विज्ञान भवन में उन्होंने तीन दिनों तक समाज के विभिन्न क्षेत्रों के प्रतिष्ठित लोगों को बुलाया और विभिन्न विषयों पर संघ का दृष्टिकोण स्पष्ट किया, साथ ही उनके सवालों के जवाब भी दिए।
संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर, डॉ. मोहन भागवत ने एक बार फिर जन संवाद की शुरुआत की है। इस शृंखला का पहला कार्यक्रम दिल्ली में हो चुका है और इसी तरह के कार्यक्रम कोलकाता, मुंबई और बेंगलुरु में भी होंगे। इसके बाद, देश भर में एक हजार स्थानों पर संघ के अन्य अधिकारी भी इसी तरह के शंका निवारण और जनसंपर्क कार्यक्रम करेंगे।
इन कार्यक्रमों में मोहन भागवत ने मुख्य रूप से दो बड़े मुद्दों पर खुलकर बात की, जो संघ के बारे में बने नैरेटिव को तोड़ने वाले थे:
- मुस्लिम विरोधी होने का नैरेटिव: संघ पर हमेशा यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वह मुस्लिम विरोधी है और भारत को केवल एक ‘हिंदू राष्ट्र’ मानता है। मोहन भागवत ने स्पष्ट किया कि संघ मुसलमानों से नफरत नहीं करता है। उन्होंने जोर दिया कि दोनों समाजों को सह-अस्तित्व को समझना चाहिए और परस्पर प्रेम से रहना चाहिए। उन्होंने कहा कि भारतीय मुसलमानों और हिंदुओं का डीएनए एक ही है और सभी भारतीय मुसलमान पहले हिंदू ही थे, जिन्होंने केवल अपनी पूजा पद्धति बदली है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि ‘रिलीजन बदलने से कौम नहीं बदलती’ और ‘हिंदू’ हम सब भारतीयों की सांस्कृतिक पहचान है। उन्होंने धर्म और मत के बीच का अंतर भी समझाया और कहा कि धर्म रिलीजन नहीं है।
- जातिवाद और मनुस्मृति का नैरेटिव: हिंदुत्व विरोधी समूहों ने यह भी धारणा फैलाई थी कि संघ भारतीय संविधान को नहीं मानता और देश में जातिवाद वाली मनुस्मृति लागू करना चाहता है। इस आरोप का जवाब देते हुए, मोहन भागवत ने स्पष्ट किया कि ‘हिंदू राष्ट्र’ का मतलब सांस्कृतिक राष्ट्र है, राजनीतिक राष्ट्र नहीं। उन्होंने जोर देकर कहा कि राजनीतिक दृष्टि से संघ भारतीय संविधान को पूरी तरह मानता है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि संघ ने जातिवाद को बढ़ावा देने वाले मनुस्मृति सहित सभी ग्रंथों को खारिज कर दिया है।
जन-आंदोलन बनने से किसको है भय? - अब सवाल यह उठता है कि संघ के एक जन-आंदोलन बनने से किसको भय है?
यह भय उन लोगों को है, जो दशकों से झूठे नैरेटिव और भ्रम की राजनीति के माध्यम से अपना राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव बनाए हुए थे। जब संघ चुपचाप अपने सेवा और संगठनात्मक कार्यों में लगा हुआ था, तब हिंदुत्व विरोधी इतिहासकारों ने अपनी विचारधारा के अनुरूप एक झूठा इतिहास और नैरेटिव गढ़ा, जिसमें संघ को खलनायक के रूप में चित्रित किया गया। इस नैरेटिव ने समाज के एक बड़े वर्ग को संघ से दूर रखा।
संघ के प्रचार विभाग और मोहन भागवत के जन-संवाद कार्यक्रमों ने इस दीवार को तोड़ दिया है। अब लोग सीधे संघ के विचारों को सुन रहे हैं, उनसे सवाल कर रहे हैं, और भ्रांतियों को दूर कर रहे हैं। यह पारदर्शिता उन लोगों के लिए खतरा है, जिनकी पूरी राजनीति संघ के विरोध पर टिकी है। जब लोगों को पता चलता है कि संघ मुस्लिम विरोधी नहीं है, वह संविधान को मानता है, और उसने आजादी के आंदोलन में भाग लिया था, तो उनके पूर्वाग्रह टूट जाते हैं। यह स्थिति उन समूहों और राजनीतिक दलों के लिए असहज है जो अपनी पहचान और प्रभाव को बनाए रखने के लिए संघ-विरोध को अपना मूल मंत्र मानते हैं।
इस प्रकार, संघ का जन-आंदोलन बनना उन लोगों को भयभीत कर रहा है, जिन्होंने भ्रम और झूठ के सहारे अपना जनाधार बनाया था। संघ अब एक बंद और गुप्त संगठन नहीं रहा, बल्कि एक ऐसा मंच बन गया है जहां लोग सीधे संवाद कर सकते हैं। यह बदलाव भारत के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में एक महत्वपूर्ण मोड़ है, जो भविष्य में और भी गहरे प्रभाव डालेगा।

लेखक मनमोहन पुरोहित
प्रधानाचार्य
रा उ मा वि बावड़ी कल्ला
1 thought on “जन-आंदोलन बनते रा.स्व. संघ से भय किसको: एक विस्तृत विश्लेषण”
आपके द्वारा लिखे गए विचार सराहनीय है। संघ कार्य एवं संघ विचारधारा को जन जन तक पहुंचाने का सबसे उत्तम तरीका हमारा कृतित्व ही है।