भारत भूमि पर, जहाँ सदियों से विविधता में एकता का संदेश गूँजता रहा है, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) एक ऐसा अनूठा संगठन है जो स्वयंसेवकों में राष्ट्र के प्रति विशुद्ध निष्ठा और संकट की घड़ी में त्वरित प्रतिक्रिया के बीज बोता है। यह कोई आकस्मिक घटना नहीं, बल्कि डॉ. हेडगेवार की दूरदृष्टि का परिणाम है, जिन्होंने ऐसी शाखा-पद्धति का आविष्कार किया जो प्रतिदिन ‘अति उत्कट अखिल भारतीय राष्ट्र-चेतना’ जाग्रत करती है।
देश के किसी भी कोने में, चाहे वह नगर हो, ग्राम हो या सुदूरवर्ती पर्वत-प्रदेश, हज़ारों शाखाओं में प्रतिदिन स्वयंसेवक एकत्र होते हैं। दिन की व्यस्तताओं से परे, वे एक शांत और अनुशासित वातावरण में आते हैं। यहाँ सामूहिक प्रार्थना संस्कृत में की जाती है, और प्रभु से अजेय शक्ति, चरित्र, ज्ञान, शौर्य और ध्येयनिष्ठा जैसे सद्गुणों के लिए प्रार्थना की जाती है। इस प्रार्थना के ठीक बाद, हर स्वयंसेवक प्रतिदिन ‘एकात्मता स्तोत्र’ और ‘एकात्मता मंत्र’ का पाठ करता है। इन पवित्र पंक्तियों में, हमारे इतिहास, संस्कृति और आध्यात्मिक परंपराओं के संगठनकारी और समन्वयकारी पक्षों को उजागर किया जाता है। यह दैनिक अभ्यास स्वयंसेवकों के मानस में अखंड राष्ट्रीय चेतना जगाता है, उन्हें यह बोध कराता है कि ‘समूचा राष्ट्र एक कुटुम्ब’ है, और मत, भाषा, जाति तथा अन्य सभी प्रकार के भेदभावों को निर्मूल करने वाले संस्कारों को सुदृढ़ करता है। इस प्रकार, स्वयंसेवक में राष्ट्र के प्रति विशुद्ध निष्ठा कट-कुटकर भरी रहती है।
इसी निष्ठा और गहरे संस्कार का परिणाम है, संकट की घड़ी में उनकी त्वरित और सहज प्रतिक्रिया। स्वयंसेवक केवल सैद्धांतिक बातों तक सीमित नहीं रहते, बल्कि व्यवहार में इसे चरितार्थ करते हैं।

संकट में त्वरित प्रतिक्रिया के जीवंत उदाहरण:
- विभाजन और दिल्ली की रक्षा (1947): जब विभाजन की काली छाया राष्ट्र पर मंडरा रही थी और मुस्लिम लीग की योजना दिल्ली पर कब्ज़ा करने, मंत्रियों और हज़ारों हिन्दुओं की हत्या करने की थी, तो स्वयंसेवकों ने बिल्कुल सही समय पर नेहरूजी और पटेलजी को इसकी सूचना दी। उनके इस शौर्यपूर्ण कार्य ने करोड़ों हिन्दुओं की जान बचाई और देश को ‘पाकिस्तान’ बनने से रोका।
- कश्मीर का भारत में विलय: महाराजा हरिसिंह के असमंजस के समय, संघ के नेताओं ने तुरंत स्थिति की गंभीरता को समझा और महाराजा से भारत में शामिल होने का आग्रह किया। जब श्रीनगर के डाक विभाग में पाकिस्तानी झंडा फहराया गया, तो संघ-स्वयंसेवकों और समर्थकों ने तुरंत उसे उतरवा दिया। आंतरिक विद्रोहियों का डटकर सामना किया और उनकी योजनाओं को विफल कर जम्मू की रक्षा की। यहां तक कि एक स्वयंसेवक मुस्लिम वेश में घुसपैठ की पाकिस्तानी योजना का भेद जानने में सफल रहा। स्वयंसेवकों ने जम्मू हवाई पट्टी को चौड़ा करने का काम भी तत्काल हाथ में लिया ताकि भारतीय सेना के विमान उतर सकें।
- पुर्तगाली आधिपत्य का उन्मूलन: गोवा, दादरा, नगर हवेली जैसे क्षेत्रों से पुर्तगाली शासन को समाप्त करने के लिए स्वयंसेवकों ने गुरिल्ला रणनीति अपनाई और बिना शर्त आत्मसमर्पण के लिए मजबूर किया। सेल्वासा में स्वयंसेवक बापूराव वाडेकर ने तिरंगा हाथ में लेकर ‘भारतमाता की जय’ का उद्घोष करते हुए प्राण न्यौछावर कर दिए, मरते-मरते भी उन्होंने ‘ध्वज की रक्षा करो’ का आदेश दिया।
- युद्धकाल में राष्ट्रीय समर्थन:
- भारत-चीन युद्ध (1962): जब चीन ने आक्रमण किया और कम्युनिस्टों ने भारत के रक्षा प्रयासों को विफल करने की कोशिश की, तो भारतीय मजदूर संघ की यूनियनों ने अपने सभी आंदोलन तुरंत वापस ले लिए और रक्षा-उत्पादन को सर्वोच्च प्राथमिकता दी।
- भारत-पाक युद्ध (1965): दिल्ली में जब सेना के अधिकारियों को तत्काल रक्त की आवश्यकता पड़ी, तो अर्द्धरात्रि में ही दिल्ली संघ-कार्यालय को फोन किया गया, और अगले दिन सवेरे 500 स्वयंसेवक रक्तदान करने अस्पताल पहुँच गए। स्वयंसेवकों ने सीमावर्ती क्षेत्रों में कैंटीनें भी खोलीं, जहाँ शत्रु का तोपखाना गोले बरसा रहा था।
- नक्सलवादी आतंक का सामना: आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र में, जब नक्सलवादियों ने आतंक फैला रखा था, तो अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (अ.भा.वि.प.) के कार्यकर्ताओं ने उनसे लोहा लिया। डॉ. सुरेंद्र रेड्डी जैसे स्वयंसेवकों ने अपनी जान की परवाह न करते हुए सत्य की रक्षा की और उनके बलिदान ने दूसरों में साहस भरा।

- प्राकृतिक आपदाओं में सेवा:
- आंध्र प्रदेश में चक्रवात (1977): जब चक्रवात से भारी तबाही हुई, तो सरकारी तंत्र के हाथ-पैर फूल गए थे। संघ-स्वयंसेवकों ने ही सबसे पहले चुनौती का सामना किया और सहायता-कार्य प्रारंभ कर दिया। उन्होंने शवों को ढोने जैसे अरुचिकर कार्य भी किए, जो सेना या पुलिस ने नहीं किए। श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी स्वीकार किया कि “मैं जहाँ भी देख रही हूँ केवल संघ के कार्यकर्ता ही पीड़ित क्षेत्रों में कार्य करते दिखाई देते हैं।”।
- भोपाल गैस त्रासदी (1984): जब हजारों लोग गैस के कुप्रभाव से अंधे हो गए थे और खाना नहीं बना सकते थे, तो संघ-स्वयंसेवकों ने घर-घर डबलरोटी, दूध और भोजन के पैकेट पहुँचाए। उन्होंने बची हुई गैस को निष्प्रभाव करने के अभियान में भी अपनी सेवाएँ अर्पित कीं।
- डबवाली अग्निकांड (1995): हरियाणा के डबवाली में एक भीषण अग्निकांड में सैकड़ों लोग मारे गए। अशोक वढेरा नामक स्थानीय स्वयंसेवक ने जलते हुए नारकीय कुंड में बार-बार जाकर 15 बच्चों के प्राण बचाए, और इस प्रयास में स्वयं शहीद हो गए।
- सामाजिक समरसता और अन्याय का प्रतिरोध:
- अस्पृश्यता निवारण: स्वयंसेवकों ने समाज में व्याप्त अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए अथक प्रयास किए। वे हरिजन बस्तियों में गए, उनके साथ भोजन किया, और मंदिरों में प्रवेश की सुविधा दिलाई।
- धर्मान्तरण का प्रतिरोध: जब तमिलनाडु में हजारों हरिजनों के सामूहिक धर्मान्तरण की ख़बर मिली, तो हिन्दू संगठन तुरंत मैदान में कूद पड़े। स्वयंसेवकों ने तुरंत वहाँ पहुँचकर ऐसी व्यवस्था की कि एक भी हिन्दू अपने धर्म से बाहर नहीं गया।
- आपातकाल (1975-1977): जब इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया और संचार के सभी माध्यम ठप्प कर दिए, तो संघ का देशभर में फैला शाखाओं का जाल ही भूमिगत आंदोलन का केंद्र बन गया। स्वयंसेवकों ने गुप्त मुद्रणालय चलाए, भूमिगत साहित्य प्रसारित किया, और लाखों परिवारों को सहायता दी। उन्होंने पुलिस के अत्याचारों को सहा, अनेकों को यातनाएँ दी गईं, लेकिन किसी को भी झुकाया नहीं जा सका।
यह सब दर्शाता है कि स्वयंसेवकों में राष्ट्र के प्रति एक अदम्य, निस्वार्थ निष्ठा होती है। वे केवल बात करने वाले नहीं, बल्कि कार्य करने वाले कर्मठ व्यक्ति होते हैं। यह निष्ठा और त्वरित प्रतिक्रिया संघ की अनुशासित कार्यशैली और चरित्र-निर्माण पर आधारित है, जिसका एकमात्र उद्देश्य ‘मानव-स्वयंसेवक’ का निर्माण है, जो राष्ट्र के कायाकल्प का प्रमुख आधार बनें।