एक समय था, जब भारत अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहा था। इस दौरान, राष्ट्र को एक नई राह की तलाश थी, खासकर जब राष्ट्रीय एकता और स्वतंत्रता के तरीकों पर भिन्न-भिन्न विचार सामने आ रहे थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस, उस दौर में, अक्सर ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता बिन स्वराज्य नहीं’ जैसे नारों पर बल देती थी। उनकी मुख्य चिंता यह रहती थी कि किसी भी प्रकार मुस्लिमों को अपने पक्ष में कर लिया जाए, जिसके कारण उन्हें कई बार तुष्टिकरण के फिसलन भरे मार्ग पर अग्रसर होना पड़ा। यह रणनीति इसलिए अपनाई गई थी ताकि एक साथ अंग्रेजों और मुस्लिमों, दो-दो प्रतिद्वंद्वियों का सामना न करना पड़े, और मुस्लिमों को राष्ट्रवादी खेमे में लाया जा सके।

परंतु, इस दौर में एक दूरदर्शी व्यक्तित्व थे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार, जो स्वयं धधकते ज्वालामुखी जैसे जन्मजात देशभक्त थे। उन्होंने अपनी सुकुमार अवस्था से ही विदेशी अंग्रेजी शासन के प्रति विरोध की चिंगारियाँ दिखानी शुरू कर दी थीं, और क्रांतिकारी आंदोलन को गहराई से समझा था। डॉ. हेडगेवार का मानना था कि मुस्लिमों को अपने पक्ष में मिलाने के लिए राष्ट्रवाद की भावना का पलड़ा कमजोर न किया जाए। वे चेतावनी दिया करते थे कि यदि मुस्लिमों की अनुचित मनुहार की जाएगी, तो उसका परिणाम यह होगा कि उनकी सांप्रदायिक और विघटनकारी मनोवृत्ति और भड़केगी। उनका स्पष्ट मत था कि मुस्लिमों से उनकी आक्रामक और राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियाँ तभी छुड़वायी जा सकती हैं, जब हिन्दू इतने सशक्त और संगठित हो जाएँ कि मुसलमान यह अनुभव करने लगें कि उनका हित हिन्दुओं के साथ राष्ट्र की मुख्य धारा में सम्मिलित होने में है।
डॉ. हेडगेवार ने कांग्रेस की इस नीति को एक भयंकर भूल माना। उनके अनुसार, मुस्लिमों को पक्ष में मिलाने की रणनीति स्वराज्य प्राप्ति की पहली शर्त बन गई, जिससे राष्ट्र के मनोबल पर भीषण कुठाराघात हुआ। इसके कटु परिणाम शीघ्र ही सामने आने लगे: मुस्लिम अलगाववाद को निरंतर बढ़ावा मिला और राष्ट्रवाद का मेरुदंड घातक रूप से जर्जर हो गया। यही कारण था कि डॉ. हेडगेवार ने स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए केवल हिन्दुओं की संगठित राष्ट्रीय शक्ति के निर्माण पर ही ध्यान केंद्रित करने का निश्चय किया। उनका यह दूरदर्शी दृष्टिकोण स्वतंत्रता-संग्राम की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखने के साथ-साथ राष्ट्र के मेरुदंड को सुदृढ़ करने का एक अनुपम संगम था।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की स्थापना इसी उद्देश्य से की गई थी। संघ का मुख्य उद्देश्य ‘मानव-स्वयंसेवक’ का निर्माण था, जो राष्ट्र के कायाकल्प का प्रमुख बन सके। संघ की कार्यशैली शांत भाव से काम करने की थी, बिना प्रचार-प्रसार के। वे कार्यकर्ताओं के नाम का उल्लेख करने से भी बचते थे, क्योंकि कार्यकर्ता प्रचार से कोसों दूर रहते हैं और शांत भाव से काम करना पसंद करते हैं।
स्वतंत्रता के बाद भी, डॉ. हेडगेवार की चेतावनी सत्य सिद्ध हुई। देश के नेतृत्व की यह धारणा थोथी निकली कि विभाजन के बाद मुस्लिम अलगाववाद का अंत हो जाएगा। वास्तव में, मुस्लिम अलगाववाद और कट्टरवादिता तुष्टिकरण का दूध पीकर दिनोंदिन नए और भयावह रूप धारण करती गई। इसी प्रकार, अल्पसंख्यकों के अधिकारों के नाम पर ईसाई मिशनरियों को भी प्रोत्साहन मिला, जिन्होंने पूर्वोत्तर भारत में अपनी विघटनकारी गतिविधियाँ तेज कर दीं। डॉ. हेडगेवार को ऐसी सभी राष्ट्र-विरोधी चुनौतियों का एकमात्र प्रभावी उपाय सुसंगठित हिन्दू मनोबल तैयार करना लगता था।

संघ ने इस दिशा में कई महत्वपूर्ण कदम उठाए:
- नागपुर की घटना (1927): संघ की स्थापना के दो वर्ष के भीतर ही नागपुर में मुस्लिमों ने हिन्दुओं पर हमला कर दिया। पुलिस तमाशा देखती रही, पर स्वयंसेवकों ने साहसपूर्वक सामना किया और आक्रमणकारियों को भागने पर विवश कर दिया। यह संगठित हिन्दू शक्ति की पहली बड़ी टक्कर थी।
- दिल्ली की रक्षा (1947): विभाजन के समय, जब देश में भयंकर उथल-पुथल मची थी, मुस्लिम लीग की योजना दिल्ली में सरकारी सदस्यों और हिन्दू नागरिकों की हत्या कर पाकिस्तान का झंडा फहराने की थी। उस नाजुक घड़ी में, संघ के उच्चमना और त्यागी नवयुवकों ने नेहरूजी और पटेलजी को एकदम सही समय पर सूचना दी, जिससे वर्तमान भारत सरकार बची और करोड़ों हिन्दुओं की हत्या रोकी जा सकी।
- जम्मू-कश्मीर का विलय आंदोलन (1947-1953): जम्मू और कश्मीर के महाराजा हरिसिंह दुविधा में थे। संघ ने महाराजा से भारत में तुरंत शामिल होने का आग्रह किया और इस मुद्दे पर व्यापक जनमत जुटाया। स्वयंसेवकों ने श्रीनगर में पाकिस्तानी झंडा उतारकर भारतीय तिरंगा फहराया। जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर आक्रमण किया, तो संघ के स्वयंसेवकों ने आंतरिक पाकिस्तान-समर्थक मुसलमानों का डटकर सामना किया, जम्मू की रक्षा की, और भारतीय सेना की सहायता के लिए हवाई पट्टी चौड़ी करने तथा सड़कें बनाने का काम किया। बाद में, जब शेख अब्दुल्ला ने राज्य की विशेष स्थिति बनाए रखने की कोशिश की, तो प्रजा परिषद् आंदोलन (जिसमें संघ के स्वयंसेवकों का महत्वपूर्ण योगदान था) ने जम्मू और कश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के लिए संघर्ष किया। इस आंदोलन में उन्हें सरकारी दमन, लाठीचार्ज और गिरफ्तारियों का सामना करना पड़ा, लेकिन उनके बलिदानों से परमिट प्रणाली समाप्त हुई और प्रांत का भारत संघ के साथ एकीकरण हुआ।
- बांग्लादेशी घुसपैठ का विरोध: स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में, बांग्लादेश से मुसलमानों की बड़े पैमाने पर घुसपैठ एक गंभीर खतरा बन गई थी। श्री बालासाहेब देवरस ने स्पष्ट किया कि बांग्लादेशी मुस्लिम ‘घुसपैठिये’ हैं, और असम को प्रमुखतः हिन्दू प्रांत बनाए रखना आवश्यक है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (अ.भा.वि.प.) और विश्व हिन्दू परिषद् (वि.हि.प.) ने इस घुसपैठ के विरुद्ध ‘जन-जागरण’ अभियान चलाए और सरकार पर कार्रवाई करने का दबाव डाला।
- केरल में सांप्रदायिक राजनीति का विरोध: केरल में मुस्लिम-बहुल ‘मालाप्पुरम्’ जिले के गठन को राष्ट्र-विरोधी षड्यंत्र के रूप में देखा गया था। संघ और अन्य हिन्दू संगठनों ने इसका कड़ा विरोध किया, इसे ‘मिनी-पाकिस्तान’ जैसी योजना बताया।
संघ का मानना रहा है कि उसका कार्य मुस्लिम-विरोधी अथवा ईसाई-विरोधी नहीं है। संघ की नीति ‘जोड़ने वाली बातों पर बल दो और तोड़ने वाले मतभेदों की ओर ध्यान ही न दो’ रही है। श्री गुरुजी ने स्पष्ट किया था कि पैगंबर मुहम्मद के जन्म न लेने पर भी, यदि हिन्दू वैसी ही असंगठित स्थिति में होते, तो संघ अपना कार्य ठीक उसी प्रकार करता जिस प्रकार आज कर रहा है। उनका जोर समाज में ‘एकात्म भाव’ जगाने और अटूट सामाजिक भाईचारे के बंधन में बाँधने पर था।
संघ के स्वयंसेवक हर क्षेत्र में अपने चरित्र और आचरण से लोगों का सहयोग प्राप्त करते रहे हैं। वे राष्ट्र की स्वतंत्रता, प्रभुसत्ता और सुरक्षा से संबंधित चुनौतियों के प्रति तुरंत प्रतिक्रिया देते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि केवल एक सशक्त, संगठित और पुनरुत्थानशील हिन्दू समाज ही राष्ट्रीय स्वतंत्रता और अखंडता की गारंटी दे सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने न केवल स्वतंत्रता-पूर्व बल्कि स्वतंत्रता-पश्चात् भी राष्ट्रहित में मुस्लिम तुष्टिकरण का मुखर विरोध किया और भारत की अखंडता और राष्ट्रीयता की रक्षा में एक निर्णायक भूमिका निभाई, चाहे वह सीधे आंदोलन में भाग लेकर हो या जन-जागरण और हिन्दू शक्ति के संगठन के माध्यम से। यह उनका निरंतर प्रयास रहा है कि हिन्दू समाज आंतरिक रूप से सुदृढ़ होकर राष्ट्र की मुख्य धारा को सशक्त करे।