भारत की स्वाधीनता के संग्राम के दौरान, एक दूरदर्शी व्यक्तित्व थे डॉ. हेडगेवार। वे एक जन्मजात देशभक्त थे, जिनके प्रचंड व्यक्तित्व से ही ब्रिटिश शासन के प्रति विरोध की चिंगारियाँ फूटने लगी थीं। उन्होंने स्वतंत्रता के लिए गहरी छटपटाहट महसूस की, लेकिन वे तत्कालीन नारों और उथले उपायों से सहमत नहीं थे, जैसे “हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई” या “हिन्दू-मुस्लिम एकता बिन स्वराज्य नहीं”। उन्हें कांग्रेस की तुष्टीकरण की नीति में एक “भयंकर भूल” दिखी, जिसने मुस्लिम अलगाववाद को पोषित किया और राष्ट्रवाद के मेरुदंड को कमजोर किया।

डॉ. हेडगेवार का दृष्टिकोण केवल तात्कालिक स्वतंत्रता प्राप्ति तक सीमित नहीं था। उन्होंने भारत के अतीत के इतिहास का गहन अध्ययन किया और समझा कि कैसे देश ने मुट्ठीभर विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों पराजय और अपमान का सामना किया, जबकि वह कभी स्वतंत्र और समृद्ध था। इसका मूल कारण था “प्रखर अखंड राष्ट्रीय चेतना का अभाव”। उन्होंने देखा कि जब देश के एक हिस्से पर आक्रमण होता था, तो बाकी हिस्से तमाशा देखते थे, यह भूलकर कि स्वतंत्रता का बँटवारा नहीं किया जा सकता। उन्हें यह भी पता था कि यदि यह भूल बनी रहती, तो ब्रिटिश दासता से मुक्ति मिलने के बाद भी राष्ट्र की स्वाधीनता संकट में रहेगी।
इसी गहरी अंतर्दृष्टि के साथ, डॉ. हेडगेवार ने राष्ट्र के मेरुदंड को सुदृढ़ करने के लिए एक “दूरदर्शी दृष्टिकोण” अपनाया। उन्होंने यह समझा कि राष्ट्र की सबसे बड़ी आवश्यकता सुसंगठित हिन्दू मनोबल तैयार करना है। इस महान कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी थी, ताकि अंग्रेजों से टक्कर ली जा सके और मुस्लिमों को भी राष्ट्रवादी धारा में मिलाया जा सके।
इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, डॉ. हेडगेवार ने एक अद्भुत ‘शाखा-पद्धति’ का आविष्कार किया। इसका उद्देश्य “अति उत्कट अखिल भारतीय राष्ट्र-चेतना” को जाग्रत करना था। इन शाखाओं में प्रतिदिन अनेक बहुमुखी कार्यक्रम होते हैं, चाहे वे नगरों में हों, ग्रामों में या सुदूरवर्ती पर्वतीय प्रदेशों में। यहाँ स्वयंसेवक:
- सामूहिक प्रार्थना संस्कृत में करते हैं।
- महापुरुषों से संबंधित गीत और कहानियाँ सुनते हैं।
- राष्ट्र की समस्याओं पर वार्ता और चर्चा करते हैं।
- राष्ट्रीय आस्था और जीवन-मूल्यों के मान-बिंदुओं पर बल दिया जाता है।
- प्रतिदिन ‘एकात्मता स्तोत्र’ और ‘एकात्मता मंत्र’ का पाठ किया जाता है, जो इतिहास, संस्कृति और आध्यात्मिक परंपराओं के संगठनकारी और समन्वयकारी पक्षों को उजागर करते हैं।

ये कार्यक्रम और संघ-शिक्षा वर्ग नामक प्रशिक्षण-शिविर स्वयंसेवकों में एकात्मता संबंधी स्वस्थ संस्कारों को सुदृढ़ करते हैं, जिससे मत, भाषा, और जाति के सभी भेदभाव निर्मूल किए जा सकें। विभिन्न भाषाएँ और रीति-रिवाजों का पालन करने वाले कार्यकर्ता देश के कोने-कोने से नागपुर पहुँचकर सामूहिक जीवन का अनुभव करते हैं, जिससे वे “समूचा राष्ट्र एक कुटुम्ब” की संकल्पना का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकें। यह सब स्वयंसेवकों में राष्ट्र के प्रति विशुद्ध निष्ठा और संगठित हिन्दू शक्ति का निर्माण करता है।डॉ. हेडगेवार का यह दृढ़ विश्वास था कि केवल एक सशक्त, संगठित और पुनरुत्थानशील हिन्दू समाज ही राष्ट्रीय स्वाधीनता और अखंडता की पक्की गारंटी दे सकता है। उनका एकमात्र उद्देश्य “मानव-स्वयंसेवक” का निर्माण करना था, जो राष्ट्र के कायाकल्प का प्रमुख आधार बनें। इस प्रकार, स्वाधीनता-संग्राम की ज्योति को प्रज्ज्वलित रखते हुए, साथ-साथ राष्ट्र के मेरुदंड को भी सुदृढ़ किया गया, जिसे “अनुपम संगम, जैसे सोने पर सुहागा” कहा गया है। उनका मानना था कि हिन्दू-संगठन की शक्ति का संवर्धन और सुदृढ़ीकरण कहीं अधिक आवश्यक कार्य है, न कि केवल स्वतंत्रता प्राप्ति।