भारत की सांस्कृतिक चेतना में यदि किसी एक संत ने जनमानस को राम के स्वरूप से जोड़ने का महान कार्य किया, तो वह हैं गोस्वामी तुलसीदास। उन्होंने न केवल भगवान श्रीराम के चरित्र को घर-घर तक पहुँचाया, बल्कि उसे भारतवर्ष की आत्मा में रचा-बसा दिया। उनकी काव्य साधना, भक्ति भावना और समाज के लिए की गई सेवा ने उन्हें एक साधारण कवि से उठाकर राष्ट्रसंत बना दिया — वह संत, जिन्होंने राम को राष्ट्र को समर्पित किया।
एक संत का उदय
गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 16वीं शताब्दी में उत्तर प्रदेश के राजापुर (चित्रकूट) में हुआ था। यह वह समय था जब भारत राजनीतिक अस्थिरता, विदेशी आक्रमणों और सामाजिक विघटन से गुजर रहा था। धर्म और अध्यात्म के मार्ग आमजन के लिए कठिन और अस्पष्ट हो गए थे। ऐसे समय में तुलसीदास ने रामभक्ति को माध्यम बनाकर भारतीय समाज को एक नई दिशा दी।
तुलसीदास ने अपना जीवन साधना, तप और भक्ति में समर्पित किया। ऐसा माना जाता है कि उन्हें स्वयं भगवान श्रीराम और हनुमानजी के दर्शन हुए। उनके जीवन का उद्देश्य स्पष्ट था — राम को जन-जन तक पहुँचाना।
रामचरितमानस: भारत को मिली चेतना
तुलसीदास द्वारा रचित रामचरितमानस सिर्फ एक धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि भारत की आत्मा है। संस्कृत में लिखे गए वाल्मीकि रामायण को आमजन नहीं समझ पाते थे। तुलसीदास ने इस दिव्य कथा को अवधी भाषा में लिखा — उस भाषा में, जिसे किसान, व्यापारी, गृहणी और साधु-संत सभी सहजता से समझ सकते थे। रामचरितमानस में न केवल श्रीराम का चरित्र वर्णित है, बल्कि उसमें धर्म, नीति, राजनीति, समाजशास्त्र, दर्शन और जीवन मूल्यों का गहन चित्रण है। इस ग्रंथ ने राम को मंदिरों से निकालकर जन-जन के हृदय में स्थान दिया।
जब भारत विदेशी शासन की जंजीरों में जकड़ा हुआ था, तब रामचरितमानस ने लोगों को सांस्कृतिक आत्म-गौरव और नैतिक संबल प्रदान किया। यह केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं रहा — यह एक आन्दोलन बन गया। राम के आदर्श, मर्यादा, न्याय और सेवा भावना ने स्वतंत्रता सेनानियों को प्रेरणा दी। चाहे वह महात्मा गांधी हों जिन्होंने “रामराज्य” का आदर्श प्रस्तुत किया, या लोकमान्य तिलक जिन्होंने रामलीला को जन-जागरण का माध्यम बनाया — हर किसी के प्रेरणा स्रोत तुलसीदास ही थे।
लोकभाषा में भक्ति का प्रवाह
तुलसीदास ने यह सिद्ध किया कि भक्ति केवल संस्कृत या ब्राह्मण समाज की बपौती नहीं है। उन्होंने रामकथा को अवधी, ब्रज, बुंदेली और खड़ी बोली में जन-जन के हृदय तक पहुँचाया।
उनकी अन्य रचनाएँ जैसे हनुमान चालीसा, विनय पत्रिका, कवितावली, दोहावली, आदि ने जनमानस को भक्ति, नीति और जीवन जीने की कला सिखाई।
एक राष्ट्रसंत की भूमिका
गोस्वामी तुलसीदास को केवल भक्त कवि कहना उनके योगदान को सीमित करना होगा। वे भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण के अग्रदूत थे। उन्होंने राम के माध्यम से भारत को उसकी परंपरा, संस्कृति और धर्मबोध से जोड़ा। उन्होंने यह बताया कि राष्ट्र की आत्मा उसकी संस्कृति और नायकों में निहित होती है — और भारत का नायक है राम।
निष्कर्ष
गोस्वामी तुलसीदास केवल एक कवि या संत नहीं थे, वे भारत माता के ऐसे सपूत थे जिन्होंने राम को राष्ट्र के हृदय में प्रतिष्ठित किया। उन्होंने हमें बताया कि भक्ति केवल व्यक्तिगत मुक्ति का मार्ग नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का माध्यम भी हो सकती है। आज जब भारत अपनी सांस्कृतिक अस्मिता की पुनर्खोज कर रहा है, तुलसीदास और उनका रामचरितमानस फिर से हमारी दिशा और दृष्टि को आलोकित कर रहे हैं।
दया धर्म का मूल है पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छोडिये जब तक घट में प्राण॥