एक समय था, जब हमारा महान राष्ट्र भारत, विदेशी शासन की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था। हर देशभक्त की तरह, डॉ. हेडगेवार के हृदय में भी देश की मुक्ति के लिए गहरी वेदना और छटपटाहट थी। वे जन्मजात देशभक्त थे, एक धधकते ज्वालामुखी जैसे, जिनकी सुकुमार अवस्था में ही विदेशी अंग्रेजी शासन के प्रति विरोध की चिंगारियाँ फूटने लगी थीं। उन्होंने स्कूल से निकाले जाने, सरकारी मुखबिरों द्वारा पीछा किए जाने और अपने चाचा को सताए जाने जैसे अनेक कष्ट झेले। डॉक्टरी की पढ़ाई करने वे कलकत्ता गए, पर उनका उद्देश्य केवल डॉक्टर बनना नहीं था, बल्कि क्रांतिकारी आंदोलन को गहराई से समझना था।

परन्तु, डॉ. हेडगेवार ने उस समय प्रचलित आज़ादी के नारों और सस्ते, उथले उपायों को कभी पसंद नहीं किया। वे ‘हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई’ और ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता बिन स्वराज्य नहीं’ जैसे नारों से असहमत थे। वे कांग्रेस की इस चिंता को समझते थे कि मुसलमानों को अपने पक्ष में कैसे किया जाए, और इसी कारण कांग्रेस तुष्टिकरण के फिसलन भरे मार्ग पर अग्रसर हो गई थी। डॉ. हेडगेवार का मानना था कि अंग्रेजों से मुस्लिमों को अलग करना और उन्हें राष्ट्रवादी शिविर में लाना सही था, और उन्होंने स्वयं राष्ट्रवादी आंदोलन में भाग लेने वाले मुस्लिमों से घनिष्ठ संबंध रखे।
किन्तु, डॉ. हेडगेवार एक महत्वपूर्ण बात पर समान रूप से बल देते थे: मुसलमानों को अपने पक्ष में लाने के लिए राष्ट्रवाद की भावना को कमजोर नहीं किया जाना चाहिए। वे चेतावनी देते थे कि यदि मुस्लिमों की अनुचित मनुहार की गई, तो उनकी सांप्रदायिक और विघटनकारी मनोवृत्ति और भड़केगी। उनका दृढ़ विश्वास था कि मुस्लिमों की आक्रामक और राष्ट्रविरोधी प्रवृत्तियों को तभी छुड़वाया जा सकता है, जब हिन्दू इतने सशक्त और संगठित हो जाएँ कि मुसलमान यह अनुभव करें कि उनका हित हिन्दुओं के साथ राष्ट्र की मुख्य धारा में सम्मिलित होने में ही है। उनकी दूरदर्शी दृष्टि थी कि भारतीय संदर्भ में, राष्ट्रीय भवन का मूलाधार हिन्दुओं को सशक्त बनाना सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए, तभी अंग्रेजों से टक्कर ली जा सकेगी और मुस्लिमों को राष्ट्रवादी धारा में मिलाया जा सकेगा।
डॉ. हेडगेवार ने यह भी महसूस किया कि स्वाधीनता-प्राप्ति से सभी कष्ट समाप्त नहीं होंगे। उन्होंने भारत के अतीत का गहन अध्ययन किया और समझा कि हमारी पिछली भयंकर भूलों से न सीखने का शाप हमें पुनरावृत्ति के रूप में भोगना पड़ता है। उन्होंने देखा कि अतीत में, एक समय जब हमारा देश स्वतंत्र और समृद्ध था, तब भी मुट्ठीभर विदेशी आक्रामकों के हाथों उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। इसका कारण राष्ट्र के शरीर में घर कर चुके अनेक गंभीर दोष थे, जिनमें सबसे गंभीर था जनमानस में प्रखर अखंड राष्ट्रीय चेतना का अभाव। जब देश के एक भाग पर आक्रमण होता था, तो शेष भाग तमाशा देखते थे, यह भूलकर कि स्वाधीनता का बंटवारा नहीं किया जा सकता। डॉ. हेडगेवार कहा करते थे कि यदि यह भूल बनी रहती है, तो राष्ट्र की स्वाधीनता संकट में पड़ी रहेगी, भले ही ब्रिटिश दासता से मुक्ति मिल जाए।

इन गहन समस्याओं के समाधान के लिए, डॉ. हेडगेवार ने एक अद्भुत शाखा-पद्धति का आविष्कार किया। इसका एकमात्र उद्देश्य ‘मानव-स्वयंसेवक’ का निर्माण करना था, जो राष्ट्र के कायाकल्प का प्रमुख होगा। शाखा का उद्देश्य इस गंभीर दोष को दूर करना और अति उत्कट अखिल भारतीय राष्ट्र-चेतना जागृत करना था। इसमें प्रतिदिन अनेक बहुमुखी कार्यक्रम होते हैं, जहाँ सामूहिक प्रार्थना संस्कृत में की जाती है, महापुरुषों से संबंधित गीत और कहानियाँ सुनाई जाती हैं, राष्ट्र की समस्याओं पर चर्चा होती है, और राष्ट्रीय आस्था एवं जीवन-मूल्यों पर बल दिया जाता है।
वे चाहते थे कि स्वयंसेवकों में वे त्रुटियाँ न आएं जो सार्वजनिक संगठनों के कार्यकर्ताओं में उन्होंने देखी थीं। उनका मानना था कि राष्ट्र के लिए कार्य और त्याग करना साधारण मानव के वश की बात नहीं, इस प्रचलित धारणा को शाखा की सीधी-सादी पद्धति निर्मूल कर सकती है। शाखा में प्रतिदिन एक घंटे के लिए लोग एकत्र होते हैं और मनोरंजक, प्रेरणादायी कार्यक्रमों में भाग लेते हैं। इससे समाज के सभी वर्गों और स्तरों के लोग राष्ट्रहित-साधन के लिए अपनी शक्ति जुटा रहे हैं। डॉ. हेडगेवार ने ऐसी उपयुक्त पद्धति का आविष्कार किया, जिससे स्वयंसेवक व्यक्तिगत प्रलोभनों से मुक्त रहें। वे चौबीस घंटों में एक घंटा मातृभूमि की सेवा के लिए निकालते हैं, पूर्ण समर्पण की भावना से भारत माता की सामूहिक प्रार्थना करते हैं, और समाज की निःस्वार्थ सेवा के भाव से गुरु-दक्षिणा देते हैं। यह कठोर प्रशिक्षण स्वयंसेवकों के चरित्र को वज्रमय बनाने में और उनमें आत्मनिर्भरता एवं आत्मत्याग की अडिग भावना के रोपण में महत्वपूर्ण योगदान करता है।
डॉ. हेडगेवार की संकल्पना केवल राजनीतिक मुक्ति तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसका सार राष्ट्रीय सम्मान और जीवन-मूल्यों को पुनः प्रतिष्ठा दिलाना था, जिन्हें विदेशी शासनकाल में कलंकित किया गया था। वे मानते थे कि केवल एक सशक्त, संगठित और पुनरुत्थानशील हिन्दू समाज ही राष्ट्रीय स्वाधीनता और अखंडता की पक्की गारंटी दे सकता है। उनका स्वप्न एक ऐसा हिन्दू राष्ट्र था, जिसकी जीवंत छवि स्वयंसेवकों की नई पीढ़ियों को प्रेरणा प्रदान करेगी। इस प्रकार, डॉ. हेडगेवार ने एक ऐसे मार्ग का सूत्रपात किया जो राष्ट्र की आंतरिक शक्ति को जागृत कर उसे सच्चे अर्थों में स्वतंत्र और गौरवान्वित बनाता।