कर्मयोगियों की मौन गाथा: राष्ट्र निर्माण में संघ की सक्रिय भूमिका
एक समय था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) की वैचारिक प्रतिबद्धता के बारे में लोग कुछ हद तक जानते थे, किंतु उसके व्यवहार-पक्ष के बारे में समाज में बहुत कम जानकारी थी। संघ मानता है कि किसी भी संगठन की वास्तविक कसौटी यह है कि वह अपने कार्यकर्ताओं को कितनी प्रेरणा दे सकता है, ताकि वे संगठन के विचारों और मूल्यों को आत्मसात करके जन-जीवन में उच्च कायाकल्प ला सकें। संघ की कार्यशैली और चिंतन का एकमात्र उद्देश्य ऐसे ‘मानव-स्वयंसेवक’ का निर्माण है, जो राष्ट्र के कायाकल्प का प्रमुख आधार बने। यह कहानी उन्हीं कर्मयोगियों की है, जिन्होंने शांत भाव से राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाई।
संघ की कार्यशैली हमेशा बिना प्रचार-प्रसार के शांत भाव से काम करने की रही है। यही कारण था कि उसके प्रारंभिक प्रयासों के लिखित विवरण बहुत कम उपलब्ध थे। प्रस्तुत संकलन (कृतिरूप) तो केवल उसके अल्प आभास को ही दर्शा सकता है। संगठन ने अखिल भारतीय महत्व की कुछ घटनाओं को छोड़कर शेष को कम-से-कम शब्दों में समेटा, ताकि उनका अनूठापन और सार-तत्व ही बोधगम्य हो सके।

मनुष्य निर्माण और चरित्र कायाकल्प यह सब एक बीज से शुरू हुआ, जिसे डॉ. हेडगेवार ने बोया था। उन्होंने समाज में आत्मसम्मान की सुप्त भावना को जगाने पर जोर दिया। शाखाएँ, जहाँ प्रतिदिन स्वयंसेवक एकत्र होते हैं, इसी मनुष्य-निर्माण की प्रयोगशालाएँ बन गईं। यहाँ शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक प्रशिक्षण के माध्यम से आत्मानुशासन के संस्कार डाले जाते हैं। इसका एक जीवंत उदाहरण बेलागाम की पिछड़ी बस्ती के वे बालक थे, जो पहले भीख मांगते और चोरी करते थे, पर स्वयंसेवक के प्रेमपूर्ण व्यवहार और आदर्श से आत्मसम्मान की भावना से भर उठे। इसी प्रकार, नासिक के जिला संघचालक ने स्वयं अपनी घुमंतू बेलदार जाति से निकलकर, संघ के संस्कारों से समय पर और उच्च स्तर का कार्य करने का स्वभाव विकसित किया और अपनी जाति को व्यसनों से मुक्त किया। यह चरित्र-निर्माण केवल व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता, बल्कि यह पूरे गाँव में आपसी सहयोग और पवित्रता का वातावरण बनाता है, जैसा कि पेसोदा और कोटा जिलों के गाँवों में देखा गया।

सामाजिक समरसता और समानता का सेतु एक समय था जब समाज जातिवाद और अस्पृश्यता जैसी गंभीर बुराइयों से ग्रस्त था। संघ ने इन विभाजनों को मिटाने के लिए अभूतपूर्व कार्य किए। स्वयंसेवकों ने “हिन्दव: सोदरा: सर्वे” (सारे हिन्दू भाई-भाई) के ऐतिहासिक मंत्र को जीवन में उतारा। मंदिरों में हरिजनों को पूजा करने की सुविधा दी गई, और परम्परावादी धर्मगुरुओं ने स्वयं आगे आकर अस्पृश्यता को धर्म-विरुद्ध ठहराया। कर्नाटक में पेजावर मठ के स्वामी विश्वेश तीर्थ ने बंगलौर की पिछड़ी बस्ती में पदयात्रा की और मछुआरे के घर में अपनी दैनिक पूजा की, जिससे लोगों ने अनुभव किया कि “स्वामी जी के रूप में स्वयं भगवान ने ही हमें दर्शन दिए हैं”। तमिलनाडु में मदपल्ली गाँव के वार्षिक शाखा समारोह में जब द्रविड़ कषगम के नेता ने देखा कि अग्रहारम् (ब्राह्मण बस्ती) के बालक और हरिजन मुहल्ले के बालक बिना किसी भेदभाव के एकसाथ खेल रहे हैं, तो वह चकित रह गया। यह दिखाता है कि संघ ने सामाजिक कायापलट के लिए हृदय जीतने का मार्ग अपनाया।
राष्ट्रीय एकता और संस्कृति का संरक्षण भारत की विविधता में एकता को बनाए रखने के लिए संघ ने कई मोर्चों पर काम किया। डॉ. हेडगेवार ने ‘शाखा-पद्धति’ का आविष्कार इस उद्देश्य से किया कि अखंड राष्ट्रीय चेतना जाग्रत की जाए। संघ ने ‘आर्य आक्रमण के सिद्धांत’ जैसी अंग्रेजों द्वारा गढ़ी गई विभाजनकारी धारणाओं का भी खंडन किया, यह सिद्ध करते हुए कि ‘आर्य’ का अर्थ आदरणीय, प्राज्ञ और संस्कारवान व्यक्ति है। पूर्वोत्तर के जनजातीय क्षेत्रों में, जहाँ ईसाई मिशनरियों ने अलगाववाद को बढ़ावा दिया, संघ और वनवासी कल्याण आश्रम ने जनजातीय संस्कृति और पहचान को अक्षुण्ण रखने का प्रयास किया। उन्होंने संस्कृत को जनजीवन की जीवंत ज्योति बनाने का भी प्रयास किया, ताकि यह सभी वर्गों की भावनात्मक एकात्मता के लिए सशक्त साधन बन सके।

संकटों में सेवा: राष्ट्र का संबल जब भी राष्ट्र पर संकट आया, चाहे वह दैवी हो या मानवीय, संघ के स्वयंसेवकों ने तत्परता और निस्वार्थ भाव से अपनी भूमिका निभाई। 1947 के विभाजन के दौरान, जब दिल्ली पर पाकिस्तानी लीगियों द्वारा हमले की योजना थी, स्वयंसेवकों ने समय पर सूचना देकर हजारों हिन्दुओं की जान बचाई और दिल्ली की रक्षा की। कश्मीर में महाराजा हरिसिंह के भारत विलय के निर्णय में भी स्वयंसेवकों ने आतंरिक विद्रोहियों का सामना किया, हवाई पट्टी चौड़ी की, और हजारों हिन्दुओं के जीवन और सम्मान की रक्षा की। आंध्रप्रदेश में 1977 के चक्रवात में, जब शव चारों ओर बिखरे पड़े थे और महामारी का खतरा था, संघ के स्वयंसेवकों ने सबसे पहले चुनौती का सामना किया और शवों को उठाने जैसे अरुचिकर कार्य भी किए। श्रीमती इंदिरा गांधी ने भी संघ के कार्यकर्ताओं की निस्वार्थ सेवा की सराहना की। गुजरात के मोरवी में बाढ़ के समय, जब सरकारी अधिकारी भी हक्के-बक्के रह गए थे, स्वयंसेवकों ने शवों को उठाया और हैजा फैलने से रोका। डबवाली अग्निकांड में, श्री अशोक वढेरा जैसे स्वयंसेवक ने अपनी जान जोखिम में डालकर बच्चों को बचाया और स्वयं मृत्यु को प्राप्त हुए। चम्पा रेल दुर्घटना में भी घायल यात्रियों को सुरक्षित निकालने और प्राथमिक चिकित्सा देने में स्वयंसेवक सबसे आगे थे।

सामाजिक एवं आर्थिक न्याय के प्रहरी संघ ने समाज के शोषित और उपेक्षित वर्गों को न्याय दिलाने के लिए भी काम किया। झारखंड में वनवासियों को उनकी भूमि के अधिकार वापस दिलाए गए। महाराष्ट्र में बंधुआ मजदूरों को विवाह प्रथा के कारण होने वाली दासता से मुक्ति दिलाई गई। मछुआरा समुदाय को मुस्लिम महाजनों के शोषण से मुक्त कराया गया और उन्हें शिक्षित व संगठित किया गया। भारतीय मजदूर संघ (BMS) ने श्रमिकों में कर्तव्यनिष्ठा की भावना पैदा की और उन्हें राष्ट्रहित में काम करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ‘औद्योगिक परिवार’ की संकल्पना दी, जहाँ धन-पूँजी, श्रम-पूँजी और प्रबंध-कौशल को समान भागीदार माना जाता है। भारतीय किसान संघ ने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रेरित किया, उन्हें तकनीकी जानकारी दी, और नशाखोरी जैसी बुराइयों से दूर रहने के लिए प्रोत्साहित किया।
शिक्षा और युवा शक्ति का संचार संघ ने शिक्षा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विद्या भारती द्वारा स्थापित सरस्वती शिशु मंदिर और विद्या मंदिर पारंपरिक भारतीय मूल्यों के साथ उच्च गुणवत्ता की शिक्षा प्रदान करते हैं। ये विद्यालय छात्रों में देशभक्ति और सेवाभाव को बढ़ावा देते हैं, जैसा कि कानपुर के उस छोटे बालक ने दिखाया जिसने अपनी बहन को जलते घर से बचाया। ज्ञान प्रबोधिनी जैसे संस्थानों ने युवाओं को नेतृत्व प्रशिक्षण और सामाजिक समस्याओं के प्रति संवेदनशीलता विकसित करने में मदद की है।
वैश्विक मंच पर भारतीयता का गौरव विदेशों में भी संघ के स्वयंसेवकों ने भारतीय संस्कृति और मूल्यों का प्रचार किया। श्री गुरुजी ने विदेशों में बसे हिन्दुओं से कहा कि धन कमाना ही एकमात्र लक्ष्य न हो, बल्कि वे स्थानीय लोगों की समस्याओं को समझें और हिन्दुत्व के महान सिद्धांतों का बोध कराएं। कीनिया में, जब हिन्दुओं पर दोहरे प्रहार हो रहे थे, हिन्दू स्वयंसेवक संघ ने उन्हें संगठित किया और “भारतमाता की जय” के उद्घोष से उनमें आत्मगौरव जगाया। त्रिनिदाद में, हिन्दू संगठनों ने भगवद्गीता को पद की शपथ के लिए अपनाया। बर्मा में बौद्ध धर्म के माध्यम से भारत की आध्यात्मिक विरासत का प्रसार किया गया। संघ की इस निरंतर चलने वाली यात्रा का एक जीवंत प्रमाण है। यह उन अथक परिश्रमों का परिणाम है जो संकलनकर्ताओं ने प्रामाणिक जानकारी जुटाने और उसे व्यवस्थित करने में किए। यह केवल सूचनाओं का संग्रह नहीं, बल्कि लाखों स्वयंसेवकों के शांत और निस्वार्थ कार्यों की एक झलक है, जिनके निजी अनुभव भी कम प्रभावशाली नहीं हैं। यह संस्करण न केवल पिछली पीढ़ी के स्वयंसेवकों को प्रेरणा देता है, बल्कि नई पीढ़ियों को भी राष्ट्र-निर्माण में अपनी भूमिका का विस्तार करने के लिए प्रोत्साहित करता है। और इसकी कहानी यहीं समाप्त नहीं होती, क्योंकि पाठक अभी भी नए उपयोगी सुझाव और जानकारी भेजने के लिए आमंत्रित हैं, ताकि भविष्य में इसे और भी अधिक परिपूर्ण बनाया जा सके। यह दर्शाता है कि संघ का कार्य निरंतर चलने वाली एक प्रक्रिया है, जिसमें हर चरण में सुधार और समर्पण का भाव निहित है।