तेरी माँ ने तुझे मना नहीं किया?
किया था
फिर क्यों आया?
मन किया तो आ गया
(पति की तरफ़ देखते हुए)
“थोने शरम बिजी आवेया, इत्ते छोटा छोटा टबरों नो घर छोड़ा दोई। अजे तो इयरे मुछों ही को उग्गी”
(आप लोगों को शर्म नहीं आती इतने छोटे बच्चों को घर छुड़वा देते हो, अभी इसके मूंछे भी नहीं आई है।)
“मनो क्या ठा, हूँ तो हिंदू परिषद में कॉम करोईं। ए तो शाखामें आय”(मुझे नहीं पता, ये तो शाखा के प्रचारक हैं। मैं तो विश्व हिंदू परिषद में काम करता हूँ)
कन्हैया जी ने अपना बचाव किया।
“मुझे पागल मत बनाओ, तुम सब एक ही थैली के चट्टे बट्टे हो” – माते बड़बड़ाई।
“बेटा जदेई तनो भुख्ख लगे, आ जाजे, शरम बिजी को करणी
(तुम्हें जब भी भूख लगे यहाँ आ जाया करो, शर्माना मत।)
माते श्रीनाथ जी की समर्पित भक्त। उनकी पूजा में कोई प्रवेश नहीं कर सकता था। न इस दौरान वो किसी को छूती थी और न ही उनको कोई छू सकता था। परंतु हमारी एंट्री उनके मंदिर तक थी। पूजा करते समय मैं उसको दिख जाता तो मुझे ‘लाला’ कहकर बुलाती। उसने मुझे हमेशा ही छोटे बच्चे की तरह देखा, वैसे ही लाड़ किया और गले भी लगाया । कभी-कभी तो कार्यालय से मेरे कपड़े उठाकर ले जाती और वॉशिंग मशीन से धोकर प्रेस करके भेज देती।
कोई पूछता- ये कौन है?
कहती- बेटा है।
वो मुझे देख कर ऐसे राजी होती जैसे गाय बछड़े को देख कर।
सर्दियों का मौसम आया तो माते ने पूरे तीस लड्डू बनाए। मनोज को लेकर कार्यालय आ गई।
“एकलो खाजे केनोई देजे मति”
(अकेले ही खाना, किसी को मत खिलाना)
उसने देखा कार्यालय में 3-4 विद्यार्थी भी है। वो जानती थी कि प्रचारक अकेले नहीं खाता। फिर एक दिन जब मैं वहाँ नहीं था तो कार्यालय के विद्यार्थियों की उसने मीटिंग बुलायी और उन सबको कहा कि इसके लड्डू मत खाना।
मुझे तब पता चला जब मैंने विद्यार्थियों को खिलाने की कोशिश की। वे सब दूर भागने लगे। कोई रेजोल्यूशन पास हुआ था, इसकी खबर बाद में लगी।
मेरा स्थानान्तरण बाड़मेर हो गया।
मेरे पहले स्थानांतरण पर माते को क्रोध भी आया। उन्होंने उस व्यक्ति को ढूंढने का प्रयास किया जिसने मेरा ट्रांसफर किया परंतु इसमें उसको सफलता नहीं मिली।
सर्दियों आई लड्डू का डिब्बा वहाँ भी पीछे आता रहा।
बाड़मेर से मैं पाली चला गया, वही तीस की संख्या। एक भी कम- अधिक नहीं… लड्डू पाली आने लगे।
भाग्य से मेरा स्थानांतरण फिर फलौदी हो गया। माते ने राहत की साँस ली।
” अब इसको मैं यहीं पर खिलाऊँगी पिलाऊँगी । “
रसोई में कोई भी चीज़ अच्छी बनती तो माते मेरे पड़ोस के PCO पर फ़ोन ज़रूर करती थी कि वह यहाँ है क्या?
माते के घर कई दिनों तक अच्छी -अच्छी खाद्य वस्तुएँ फ्रिज में पड़ी पड़ी मेरी प्रतीक्षा करती थी।
ख़ुश्बू ( माते की पुत्रवधू ) मुंबई में पली बढ़ी, अभी-अभी फलौदी आयी थी। माते का मेरे प्रति स्नेह देखकर अक्सर वह आश्चर्य में पड़ जाती है। उसको समझ में नहीं आता कि यह है कौन?
वैसे धीरे-धीरे वह भी समझ गई थी।
फिर वह हम माँ-बेटे के लाड़ को देखकर मुस्कुराती रहती।
दो वर्ष रुकने के बाद मेरा स्थानांतरण फिर से बाड़मेर हुआ ।
चार वर्षों तक वही लड्डू का डिब्बा बाड़मेर आता रहा ।
इस बीच माते को कैंसर हो गया। बीच में मैं उसको मिलने गया।
उसके चेहरे पर दुख नहीं था क्योंकि आध्यात्मिक थी परंतु उसकी आँखें बता रही थी कि -“अपना हिसाब पूरा हो गया है। अब अगली बार मैं तुझे स्नेह – दुलार नहीं कर पाऊँगी।”
२०१९ में बाड़मेर से जालोर स्थानांतरण हुआ। सर्दियाँ आयी। फलोदी से जालोर कोई सीधी बस नहीं है।
एक डिब्बा कई दिनों तक घूमता-घामता फलौदी से जोधपुर, जोधपुर से बालोतरा और बालोतरा से जालोर की यात्रा करते हुए पहुँचा।
मैंने मनोज को फ़ोन किया, “मैं माते का मन रखने के लिए लड्डू रखता था,अब माते नहीं रही तो यह परम्परा बंद होनी चाहिए।”
फ़ोन तुरंत खुसबू ने छीन लिया और बोली- “मम्मी मनो के गिया दा, सोम जी रे लाड़ू भेजजे।”
(माते जाते-जाते मुझे बोलकर गई, श्याम जी के लिए लड्डू भेजना। )
मैं सोचता हूँ -जब एक माँ छूटती है तो ऐसी अनेक स्नेहमयी और दुर्लभ माएँ मिलती है।
इस प्रेम को आप क्या कहेंगे?
मैं तो आज भी उसके लिए ठीक-ठाक शब्द नहीं ढूंढ पा रहा।