भारतीय इतिहास के पन्नों में वीरता और स्वाभिमान के कई अद्वितीय उदाहरण मिलते हैं, परंतु वीर दुर्गादास राठौड़ का नाम उनमें सबसे उज्ज्वल है। उन्होंने अपने जीवन को धर्म, देश और अपनी मातृभूमि मारवाड़ की रक्षा के लिए समर्पित कर दिया।
प्रारंभिक जीवन
वीर दुर्गादास राठौड़ का जन्म 13 अगस्त 1638 को हुआ। वे मारवाड़ के शासक महाराजा जसवंत सिंह के विश्वसनीय मंत्री आसकरण राठौड़ के पुत्र थे। बचपन से ही उनमें युद्धकला, नेतृत्व क्षमता और निडरता के गुण प्रकट हो चुके थे।
औरंगज़ेब से संघर्ष
महाराजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद मुगल शासक औरंगज़ेब ने मारवाड़ पर अधिकार जमाने का प्रयास किया। उस समय महाराजा का उत्तराधिकारी बालक अजीत सिंह था। औरंगज़ेब ने षड्यंत्रपूर्वक अजीत सिंह और उनकी माता जादम को दिल्ली में बंदी बना लिया और अजीत सिंह को इस्लाम कबूल कराने की कोशिश की।
दुर्गादास राठौड़ ने औरंगज़ेब की इस नीति को भांप लिया और अजीत सिंह को दिल्ली से सुरक्षित निकालकर जोधपुर लाने की योजना बनाई।

20 वर्षों का संघर्ष
करीब 20 वर्षों तक वीर दुर्गादास राठौड़ और उनके सहयोगियों ने अजीत सिंह को जोधपुर की गद्दी पर बैठाने के लिए लगातार संघर्ष किया। वे न केवल मुगल सेना से टकराए बल्कि अनेक रणनीतियों से मारवाड़ की स्वतंत्रता बनाए रखी।
निर्णायक मोड़
1707 में औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद अवसर का लाभ उठाते हुए वीर दुर्गादास और अजीत सिंह ने मुगल सेना को मारवाड़ से बाहर खदेड़ दिया। इसके बाद भी दुर्गादास राठौड़ जीवनभर धर्म और मारवाड़ की सेवा करते रहे।
अंत और विरासत
दुर्भाग्य से अजीत सिंह के राजा बनने के बाद कुछ दरबारियों ने उन्हें दुर्गादास के विरुद्ध भड़काना शुरू किया। अजीत सिंह का व्यवहार बदलते देख वीर दुर्गादास ने मोह त्यागकर संन्यास ले लिया और 22 नवंबर 1718 को उनका देहावसान हुआ।
वीर दुर्गादास राठौड़ का जीवन हमें सिखाता है कि स्वाभिमान और धर्म रक्षा के लिए त्याग, धैर्य और अदम्य साहस आवश्यक है। वे आज भी मारवाड़ की आत्मा और राजस्थान के गौरव के रूप में अमर हैं।
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