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“आरक्षण, इतिहास और समाज – संघ के दृष्टिकोण की पड़ताल” :- दत्तात्रेय होसबाले

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“धर्म आधारित आरक्षण: संविधान के खिलाफ एक खतरा?”

हाल ही में बेंगलुरु में आयोजित अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के दौरान राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने एक महत्वपूर्ण वक्तव्य दिया—”धर्म आधारित आरक्षण हमारे संविधान के खिलाफ है।”

यह बयान उस समय आया जब कर्नाटक सरकार ने मुस्लिम समुदाय के लिए सरकारी नौकरियों में 4% आरक्षण देने का निर्णय लिया। श्री होसबाले ने स्पष्ट किया कि संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की अनुमति नहीं देता और ऐसे निर्णय सामाजिक संतुलन को बिगाड़ सकते हैं।

उन्होंने यह भी कहा कि आरक्षण केवल सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए होना चाहिए, न कि धार्मिक पहचान के आधार पर। यह विचार संविधान की मूल भावना को भी सुदृढ़ करता है।

“औरंगजेब बनाम दारा शिकोह – इतिहास की नई व्याख्या”

इस सम्मेलन में इतिहास पर भी चर्चा हुई। श्री होसबाले ने कहा कि “हमने औरंगजेब को प्रतीक बनाया, लेकिन दारा शिकोह जैसे व्यक्तित्वों को नहीं पहचाना, जो भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति के प्रतीक थे।” उन्होंने महाराणा प्रताप जैसे महान योद्धाओं के उदाहरण देते हुए बताया कि किस प्रकार इतिहास को संतुलित दृष्टिकोण से देखने की आवश्यकता है।

राम मंदिर और हिंदू समाज की एकता

राम मंदिर के निर्माण को लेकर एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा, “यह केवल संघ की उपलब्धि नहीं, बल्कि पूरे हिंदू समाज की सामूहिक भावना की अभिव्यक्ति है।”

जातिवाद खत्म करने के लिए शाखाएं आवश्यक

संघ का मानना है कि शाखाएं ही वह माध्यम हैं जिससे जातिवाद की जड़ों को समाप्त किया जा सकता है। श्री होसबाले ने इस बात पर बल दिया कि समाज को जातिगत आधार पर नहीं, एकता के आधार पर संगठित किया जाना चाहिए।

एक राष्ट्र, एक संस्कृति की अवधारणा

उन्होंने ‘एक राष्ट्र, एक संस्कृति’ की अवधारणा को भारत की आत्मा बताया और कहा कि विविधता में एकता हमारी ताकत है, लेकिन इसके लिए प्रयास भी जरूरी हैं।

वक्फ बिल पर चर्चा

उन्होंने 2024 में प्रस्तावित वक्फ (संशोधन) विधेयक को भी सकारात्मक कदम बताया और उम्मीद जताई कि यह सही दिशा में ले जाएगा।




निष्कर्ष:
RSS का यह रुख देश में चल रही राजनीति और समाज के सामने कई विचारणीय प्रश्न खड़े करता है—क्या आरक्षण का आधार धर्म हो सकता है? क्या हमें अपने इतिहास को एक नई दृष्टि से देखने की जरूरत है? और सबसे महत्वपूर्ण, क्या सामाजिक समरसता के लिए हमें नए रास्तों की तलाश करनी चाहिए?


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