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हाइपरसोनिक मिसाइल खतरे से निपटने के लिए भारत को सैकड़ों सैटेलाइट्स की जरूरत: पूर्व इसरो प्रमुख एस. सोमनाथ

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भारत और दक्षिण एशिया में बदलते युद्ध के स्वरूप ने राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अंतरिक्ष की भूमिका को अभूतपूर्व बना दिया है। हाल ही में इसरो के पूर्व चेयरमैन एस. सोमनाथ ने स्पष्ट किया है कि हाइपरसोनिक मिसाइल खतरे का मुकाबला करने के लिए भारत को सैकड़ों रक्षा सैटेलाइट्स की आवश्यकता है। उनका कहना है कि आज के दौर में युद्ध केवल ज़मीन या हवा में नहीं, बल्कि अंतरिक्ष और साइबर स्पेस में भी लड़े जा रहे हैं, जहां वास्तविक समय की निगरानी और कम्युनिकेशन सबसे अहम है।

सोमनाथ के अनुसार, हाइपरसोनिक मिसाइलें इतनी तेज़ और मैन्युवरेबल होती हैं कि पारंपरिक जमीनी डिफेंस सिस्टम या रडार उन्हें समय रहते ट्रैक नहीं कर सकते। ऐसे में, अमेरिका जैसे देश 500 से अधिक सैटेलाइट्स का नेटवर्क स्थापित कर रहे हैं, जो मिसाइल लॉन्च होते ही उसकी पहचान, ट्रैकिंग और काउंटर-मेजर गाइडेंस का काम करते हैं। भारत को भी इसी स्तर की तैयारी करनी होगी, वरना संकट के समय हमारी सेनाओं के पास “ब्लाइंड स्पॉट्स” रह जाएंगे, जो सुरक्षा के लिए बेहद खतरनाक है।

उन्होंने यह भी कहा कि केवल विज़िबल इमेजिंग ही नहीं, बल्कि नाइट-विज़न, थर्मल, रडार, मल्टीस्पेक्ट्रल और हाइपरस्पेक्ट्रल सेंसर्स से लैस सैटेलाइट्स चाहिए, जो आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से विशाल डेटा को युद्ध के मैदान में त्वरित निर्णय में बदल सकें। इसके अलावा, सैटेलाइट्स को खुद भी सुरक्षित और जरूरत पड़ने पर आक्रामक प्लेटफॉर्म के रूप में तैयार करना होगा, क्योंकि अब सैटेलाइट्स भी युद्ध का हिस्सा बन चुके हैं।

यूक्रेन-रूस युद्ध का उदाहरण देते हुए सोमनाथ ने बताया कि कैसे ड्रोन और मिसाइल हमलों में सैटेलाइट इंटेलिजेंस ने निर्णायक भूमिका निभाई। भारत के लिए भी, खासकर चीन और पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों के हाइपरसोनिक मिसाइल विकास के बीच, यह चुनौती और भी गंभीर है। यदि भारत को अपनी सीमाओं और रणनीतिक परिसंपत्तियों को सुरक्षित रखना है, तो उसे रक्षा क्षेत्र में सैटेलाइट नेटवर्क का विस्तार और आधुनिकीकरण करना ही होगा।

आज भारत के पास सीमित संख्या में सैन्य सैटेलाइट्स हैं, लेकिन हाइपरसोनिक मिसाइलों की गति और दिशा बदलने की क्षमता को देखते हुए, हर 15 मिनट में एक नया सैटेलाइट उस क्षेत्र की निगरानी करता रहे, इसके लिए सैकड़ों सैटेलाइट्स की जरूरत है। यह न केवल राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए अनिवार्य है, बल्कि भारत को वैश्विक रक्षा तकनीक में प्रतिस्पर्धी बनाए रखने के लिए भी जरूरी है।

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