“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा” — लोकमान्य तिलक का यह उद्घोष भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की आत्मा बन गया। लेकिन स्वराज केवल राजनीतिक आज़ादी नहीं है, यह उससे कहीं अधिक गहरा, सांस्कृतिक और आत्मिक विचार है।
स्वराज: परिभाषा और मूल विचार
‘स्वराज’ दो शब्दों से मिलकर बना है — ‘स्व’ यानी स्वयं और ‘राज’ यानी शासन। इसका सीधा तात्पर्य है “स्वयं का शासन”, यानी ऐसा तंत्र जहां व्यक्ति, समाज और राष्ट्र अपनी इच्छा, मूल्यों और संस्कृति के अनुरूप अपना जीवन स्वयं निर्धारित करें।

हिंदवी स्वराज्य की संकल्पना: छत्रपति शिवाजी महाराज का दृष्टिकोण
छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिस “हिंदवी स्वराज्य” की स्थापना का संकल्प लिया था, वह केवल एक राजनीतिक सत्ता नहीं थी। वह एक सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता की पुनर्प्रतिष्ठा थी। उस समय भारत विविध आक्रांताओं की सांस्कृतिक एवं धार्मिक दमन नीति का शिकार हो रहा था। ऐसे में शिवाजी महाराज ने एक ऐसा राज्य स्थापित करने का संकल्प लिया जिसमें प्रजा की रक्षा हो, धर्म-संस्कृति का संरक्षण हो और न्याय आधारित प्रशासन हो।
हिंदवी स्वराज्य की संकल्पना का मूल उद्देश्य था कि भारत की जनता अपने धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों के अनुरूप स्वयं के द्वारा शासित हो — न कि किसी बाहरी सत्ता के दबाव में।
आज की स्वतंत्रता और स्वराज की स्थिति
1947 में भारत ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की। अंग्रेजों की सत्ता समाप्त हुई, लेकिन क्या यह पूर्ण स्वराज था? क्या हम आज वैसा ही स्वशासन स्थापित कर पाए जैसा सुभाष चंद्र बोस, भगतसिंह, तिलक या शिवाजी महाराज ने सोचा था?
आज हमारी नीतियाँ, शिक्षा प्रणाली, प्रशासनिक ढाँचे और सामाजिक दृष्टिकोण कहीं-न-कहीं अभी भी पश्चिमी दृष्टिकोण से प्रभावित हैं। स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी अगर ग्रामीण भारत आत्मनिर्भर नहीं है, अगर हमारी संस्कृति उपेक्षित हो रही है, अगर शिक्षा हमारे चरित्र निर्माण की बजाय केवल नौकरी पाने का साधन बन रही है — तो यह केवल राजनैतिक स्वतंत्रता है, सांस्कृतिक या सामाजिक स्वराज नहीं।

हिंदवी स्वराज्य और आज की आवश्यकता
हिंदवी स्वराज्य की भावना आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी शिवाजी महाराज के समय थी। आज हमारे सामने चुनौती है कि —
-हम शिक्षा में भारतीय दृष्टिकोण, मूल्यों और संस्कारों को कैसे पुनः स्थान दें।
-हम अपनी अर्थव्यवस्था को गांवों के केंद्र में लाकर आत्मनिर्भर भारत की दिशा में कैसे बढ़ें।
-हम न्यायपालिका, प्रशासन और राजनीति में लोककल्याण को कैसे प्राथमिकता दें।
-हम संस्कृति और परंपराओं को उन्नत आधुनिकता के साथ कैसे जोड़ें, न कि उनकी बलि दें।
नवभारत में स्वराज की पुनर्स्थापना
आज का भारत फिर से विश्वगुरु बनने की दिशा में अग्रसर है। लेकिन यह तभी संभव है जब हम केवल तकनीकी और आर्थिक विकास से नहीं, बल्कि स्वराज्य के भाव से प्रेरित होकर नीति-निर्माण करें।
स्वराज का अर्थ केवल सरकार बदलना नहीं, बल्कि शासन प्रणाली के मूल में भारतीयता, न्याय, धर्म और लोकसेवा को स्थापित करना है।
निष्कर्ष
स्वराज कोई एक राजनीतिक उपलब्धि नहीं, बल्कि यह एक जीवनदर्शन है। यह दर्शन छत्रपति शिवाजी के हिंदवी स्वराज्य में था, यह दर्शन गांधी के ग्राम स्वराज में था और यह दर्शन आज आत्मनिर्भर भारत की संकल्पना में भी होना चाहिए।
यदि हम हिंदवी स्वराज्य की आत्मा को समझें और उसे अपने जीवन और राष्ट्र निर्माण में लागू करें — तभी भारत सचमुच स्वराज्य को प्राप्त करेगा, जो केवल आज़ादी नहीं बल्कि आत्मबल, आत्मगौरव और आत्मनिर्भरता की पराकाष्ठा है।