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पहली बार राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से पूछा: “आप राष्ट्रपति की मंज़ूरी के लिए बिलों पर डेडलाइन कैसे तय कर सकते हैं?”

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राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट के उस ऐतिहासिक फैसले पर सवाल उठाया है जिसमें कोर्ट ने राष्ट्रपति और राज्यपालों को राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों (Bills) पर निर्णय लेने के लिए तीन महीने की समय-सीमा तय की थी। राष्ट्रपति ने संविधान में ऐसी कोई समय-सीमा न होने का हवाला देते हुए सुप्रीम कोर्ट से स्पष्टीकरण मांगा है।


राष्ट्रपति ने उठाए ये प्रमुख सवाल
संविधान में समय-सीमा का उल्लेख नहीं, फिर कोर्ट कैसे तय कर सकता है?

राष्ट्रपति ने पूछा, “जब संविधान में कोई समय-सीमा नहीं है, तो सुप्रीम कोर्ट इसे कैसे निर्धारित कर सकता है?”

उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 में राष्ट्रपति/राज्यपाल को बिलों पर मंजूरी देने के लिए कोई निश्चित समय-सीमा नहीं दी गई है।

राष्ट्रपति/राज्यपाल के विवेकाधिकार की न्यायिक समीक्षा?

राष्ट्रपति ने सवाल किया कि क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के विवेकाधिकार (discretion) की न्यायिक समीक्षा हो सकती है, जबकि अनुच्छेद 361 राष्ट्रपति और राज्यपाल के कार्यों को न्यायिक समीक्षा से छूट देता है।

उन्होंने यह भी पूछा कि क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 का उपयोग कर राष्ट्रपति या राज्यपाल की संवैधानिक भूमिका को सीमित कर सकता है?

राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट की शक्तियों का दुरुपयोग कर रही हैं?

राष्ट्रपति ने चिंता जताई कि क्या राज्य सरकारें, केंद्र के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट की पूर्ण शक्तियों (plenary power) का दुरुपयोग कर रही हैं?

पृष्ठभूमि: तमिलनाडु मामला
सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल के फैसले में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा 10 विधेयकों को मंजूरी न देने को “अवैध और मनमाना” करार दिया था।

कोर्ट ने कहा था:

राज्यपाल को बिलों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा।

यदि विधानसभा दोबारा बिल पास करती है, तो एक महीने के भीतर मंजूरी देनी होगी।

राष्ट्रपति के पास भेजे गए बिलों पर भी तीन महीने में निर्णय जरूरी है, और देर होने पर “उचित कारण” बताना होगा।

सरकार और विशेषज्ञों की प्रतिक्रिया
केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को “सीधा हस्तक्षेप” (overreach) बताया और राष्ट्रपति के कदम का समर्थन किया है।

उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी कहा कि “राष्ट्रपति को समय-सीमा में बांधना लोकतांत्रिक प्रक्रिया के खिलाफ है।”

कई संवैधानिक विशेषज्ञों के अनुसार, यह टकराव न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संवैधानिक सीमाओं को लेकर बड़ा सवाल खड़ा करता है।

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