
भारतीय इतिहास के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक पुनर्जागरण की सबसे उज्ज्वल घटनाओं में से एक है भक्ति आंदोलन, और इस आंदोलन के प्रखरतम दीपक थे संत कबीर। जब भारत विदेशी सत्ता, सामाजिक विघटन और धार्मिक आडंबरों के अंधकार से जूझ रहा था, तब कबीर जैसे संतों ने एक नवीन चेतना का सूत्रपात किया। यह चेतना मात्र आध्यात्मिक नहीं, बल्कि राष्ट्र चेतना की भी पुनःस्थापना थी।
भक्ति आंदोलन: जनमानस का सांस्कृतिक जागरण
भक्ति आंदोलन किसी एक संप्रदाय या धर्म तक सीमित नहीं था। यह एक जनांदोलन था, जिसने भारतीय समाज के हर वर्ग को — ब्राह्मण से लेकर शूद्र, हिन्दू से लेकर मुसलमान तक — जोड़ने का काम किया। उस काल में जब जाति, वर्ण और पाखंड ने भारत की सामाजिक एकता को छिन्न-भिन्न कर रखा था, तब भक्ति संतों ने मनुष्य को उसकी मूल आत्मा से जोड़ने का कार्य किया।
कबीर: जात-पांत और धार्मिक संकीर्णता के विरुद्ध क्रांति की आवाज़
कबीर न तो किसी मठ के संत थे, न ही किसी शास्त्रों के विद्वान; वे थे भारत की मिट्टी से उपजा हुआ जनचेतना का स्वर। उन्होंने हिन्दू और मुस्लिम दोनों समाजों में व्याप्त आडंबर, रूढ़ियों और कट्टरता पर सीधा प्रहार किया:
“कांकर पाथर जोड़ि के मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, क्या बहरा हुआ खुदाय?”
कबीर का यह व्यंग्य मात्र धर्म पर नहीं, बल्कि धर्म के नाम पर सत्ता, प्रभुता और शोषण के विरुद्ध आवाज़ था। उनका यह स्वर तत्कालीन भारत की आत्मा का प्रतिनिधित्व करता है — एक ऐसा भारत जो सत्य, समानता और भक्ति पर आधारित था।
राष्ट्रनिर्माण में कबीर की भूमिका
भले ही कबीर सीधे-सीधे ‘राष्ट्र’ की बात नहीं करते, परंतु उनका कार्य और विचारधारा भारत की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की नींव में ईंट का काम करती है। उन्होंने मनुष्य को जात-पात और मत-मतांतर से ऊपर उठकर एकता और आत्मज्ञान की ओर प्रेरित किया — यही तो किसी राष्ट्र के निर्माण की पहली शर्त होती है। जब लोग आत्मचिंतन करते हैं, तब वे सामाजिक बंधनों से ऊपर उठकर राष्ट्र के हित में सोचने लगते हैं।
भक्ति आंदोलन: विदेशी सत्ता के विरुद्ध एक मौन प्रतिरोध
जब भारत में इस्लामी आक्रांताओं का वर्चस्व बढ़ रहा था और दिल्ली के तख्त पर विदेशी हुकूमतें काबिज थीं, तब भक्ति आंदोलन ने भारतीय आत्मा को जीवित रखा। यह आंदोलन तलवार से नहीं, प्रेम, भक्ति और सत्य के शब्दों से लड़ा गया एक सांस्कृतिक युद्ध था। कबीर, तुलसी, मीरा, नामदेव, गुरु नानक — सभी ने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि भारत अपनी जड़ों से कटे नहीं।
कबीर का साहित्य: जनभाषा में क्रांति
कबीर ने अवधी, ब्रज और खड़ी बोली में दोहे लिखे, जिससे वे सीधे जनता से संवाद कर सके। उनका साहित्य न किसी राजा के दरबार का था, न किसी पंडित का ग्रंथालय — वह था गांव, चौपाल और खेत-खलिहान का स्वर। इस प्रकार, कबीर ने भारत के लोकमानस में राष्ट्रबोध और धर्मबोध का संचार किया।
आज के संदर्भ में कबीर
आज जब भारत फिर से अपने सभ्यतागत राष्ट्रवाद को पुनर्स्थापित कर रहा है, तब कबीर के विचार पहले से भी अधिक प्रासंगिक हो गए हैं। उन्होंने जिस भारतीयता, समरसता और धर्म की आत्मा की बात की, वही आज भारत को वैश्विक मंच पर एक आत्मविश्वासी राष्ट्र के रूप में प्रस्तुत करने में सहायक बन रही है। कबीर केवल संत नहीं थे, वे भारतीय आत्मा के उद्घोषक थे। उन्होंने एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की, जो धर्म से जुड़ा, पर धर्मांध नहीं, जो भिन्नता में एकता को खोजता है, और जो सत्य को सर्वोपरि मानता है। उनके शब्दों में भारत की आत्मा बोलती है:
> “साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय, सार-सार को गहि रहे, थोथा देई उड़ाय।”
आज जब हम अपने राष्ट्र की आत्मा को पुनः खोज रहे हैं, तब कबीर हमारे मार्गदर्शक बन सकते हैं। वे हमें बताते हैं कि भारत का उत्थान सत्य, प्रेम और एकता में है — न कि विभाजन और विघटन में।