राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वारा भारत के स्वतंत्रता संग्राम में निभाई गई भूमिका के विषय में पिछले कुछ वर्षों से लेकर वर्तमान समय तक अनेक लेख और पुस्तक प्रकाशित हुई है। इसके बावजूद कथा कथित धर्मनिरपेक्ष और वामपंथी बुद्धिजीवी, राजनेता दुर्भावना पूर्ण दुष्प्रचार कर लोगों के मन में संदेह पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं। जबकि इतिहास में कई प्रमाण है, कि डॉ हेडगेवार सहित अनेक स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए जेल की यातना सही और अपना सर्वोच्च बलिदान भी दिया था। डॉ हेडगेवार ने 1921 और 1930 के सत्याग्रह आंदोलन में भी भाग लिया और कारावास सहना पड़ा। 1940 में डॉक्टर हेडगेवार को मृत्यु के बाद 1942 के सत्याग्रह आंदोलन में भी स्वयंसेवकों ने भाग लिया।

असहयोग आंदोलन व सविनय अवज्ञा आंदोलन में डॉक्टर हेडगेवार को कारावास
असहयोग आंदोलन के समय1921 में आंदोलन में भाग लेने के कारण डॉ. हेडगेवार पर चले राजद्रोह के मुद्दे में उन्हें एक वर्ष का कारावास सहना पड़ा। वे 19 अगस्त 1921 से 11 जुलाई 1922 तक कारावास में रहे। 1930 में गांधीजी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आंदोलन जो नमक सत्याग्रह के नाम से शुरू हुआ। इस आंदोलन में भी संघ की नीति के अनुसार डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिगत तौर पर अन्य स्वयंसेवकों के साथ इस सत्याग्रह में भाग लेने का निर्णय लिया। संघ कार्य निरंतर चलता रहे, इस हेतु उन्होंने सरसंघचालक पद का दायित्य अपने पुराने मित्र डॉक्टर परांजपे को सौंप कर स्वयंसेवकों व अन्य लोगों के साथ सत्याग्रह आंदोलन में भाग लिया। इस सत्याग्रह में डॉ हेडगेवार को 9 महीने का कारावास हुआ। वहां से छूटने के पश्चात सरसंघचालक का दायित्व पुनः स्वीकार कर, ये फिर संघ कार्य में जुट गए। संघ का वातावरण देशभक्ति पूर्ण था। 1926-27 में जब संघ नागपुर और आसपास तक ही पहुंचा था। उस समय में प्रसिद्ध क्रांतिकारी राजगुरु नागपुर की भोंसले वेधशाला में पढ़ते समय स्वयंसेवक बने। इसी समय भगत सिंह ने भी नागपुर में डॉक्टर जी से भेंट की थी। दिसंबर 1928 में क्रांतिकारी, पुलिस उप कप्तान सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेकर लाहौर में सुरक्षित आ गए थे। डॉ हेडगेवार ने राजगुरु को उमरेड में भैया जी दाणी जो बाद में संघ के अखिल भारतीय सरकार्यवाह रहे के फार्म हाउस में छिपने की व्यवस्था की थी। 1928 में साइमन कमीशन के भारत आने पर पुरे देश में उनका बहिष्कार हुआ नागपुर में विरोध प्रदर्शन करने में संघ के स्वयंसेवक अग्रिम पंक्ति में थे।

31 दिसंबर 1929 को लाहौर में कांग्रेस ने प्रथम बार पूर्ण स्वाधीनता को लक्ष्य घोषित किया था। और 26 जनवरी 1930 को देश भर में स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया गया। डॉ हेडगेवार ने इससे 10 साल पूर्व 1920 में नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता संबंधी प्रस्ताव रखा था, पर तब पारित नहीं हो सका था। तिलक के नेतृत्व में नागपुर में 1920 के हुए कांग्रेस अधिवेशन में अधिवेशन की सारी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी डॉक्टर हर्डीकर और डॉक्टर हेडगेवार को दी गई थी, और उसके लिए उन्होंने 1200 स्वयंसेवकों को भर्ती करवाई थी। उसमें डॉक्टर हेडगेवार कांग्रेस की नागपुर इकाई के संयुक्त सचिव थे। 1930 में कांग्रेस द्वारा यह लक्ष्य स्वीकार करने पर आनंदित हुए डॉ हेडगेवार ने संघ की सभी शाखाओं को परिपत्र भेजकर रविवार 26 जनवरी 1930 को सायं 6:00 बजे राष्ट्रध्वज वंदन करने और स्वतंत्रता की कल्पना और आवश्यकता विषय पर व्याख्यान की सूचना करवाई थी। इस परिपत्र के अनुसार संघ की शाखाओं में स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। 8 अगस्त 1942 को मुंबई के कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधी ने अंग्रेजों भारत छोड़ो यह ऐतिहासिक घोषणा की। दूसरे दिन आंदोलन ने गति पकड़ी और अनेक नेताओं की गिरफ्तारी हुई विदर्भ में बाली, वर्धा, चिमूर में विशेष आंदोलन हुए। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आंदोलन का नेतृत्व कांग्रेस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाइक, बाबूराव बेगड़े ने किया। इस आंदोलन में अंग्रेजों की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर नामक संघ के स्वयंसेवक की हुई। 1943 के चिमूर के आंदोलन और सत्याग्रह में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला। अनेकों संख्याओं को कारावास में रखा गया। ब्रिटिश सरकार के गुप्तचर विभाग में 1943 के अंत में संघ के विषय में रपट प्रेषित की वह राष्ट्रीय अभिलेखागार की फाइलों में सुरक्षित है जिसमें कहा गया है कि संघ योजना पूर्वक स्वतंत्रता प्राप्ति की ओर बढ़ रहा है।

जंगल सत्याग्रह और डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार
सन 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन महात्मा गांधी के नेतृत्व में नमक सत्याग्रह के रूप में शुरू हुआ मध्य प्रांत में कांग्रेस ने नमक सत्याग्रह को जंगल सत्याग्रह से जोड़ने का निर्णय किया।
सन 1927 का जंगल कानून में लोगों के लिए विशेषकर किसानों के लिए शोषणकारी था था इस कानून से पूर्व ईंधन हेतु लकड़ी काटने और सारे पर कोई प्रतिबंध या कर नहीं था परंतु जंगल की सुरक्षा और संवर्धन के नाम पर जंगलों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित कर लिया गया किसानों को जानवरों के लिए चारागाह और घास काटने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गलत है अनेक लोगों के कारोबार पर प्रभावित हुए तथा चार-घास कमी के कारण पशुपालन भी प्रभावित हुआ। इससे किसान दुखी और नाराज थे।
संघ संस्थापक डॉक्टर हेडगेवार ने जंगल सत्याग्रह की योजना बनाई। 12 जुलाई 1930 को गुरु पूर्णिमा उत्सव के दिन संघ शाखा में डॉक्टर हेडगेवार ने सत्याग्रह में शामिल होने के अपने निर्णय तथा सरसंघचालक के दायित्व को छोड़ने के अपने निर्णय से सभी को अवगत कराया। उन्होंने डॉक्टर परांजपे को सरसंघचालक का दायित्व दिया। 14 जुलाई को सायं काल डॉक्टर जी की टुकड़ी नागपुर से रवाना हो गई।
15 जुलाई को वर्धा में श्री राम मंदिर में डॉक्टर जी और सत्याग्रहियों का स्वागत हुआ। योजना अनुसार 21 जुलाई को प्रातः 6:30 बजे यवतमाल में रणसिंगे के निनाद के साथ सत्याग्रह शिविर से कानून तोड़ने वाले जत्थे की शोभायात्रा निकली। सत्याग्रह का यह स्थान यवतमाल से करीब 4 किलोमीटर दूर लोहार जंगल में धामड़ गांव मार्ग रास्ते के पास था। वहां सत्याग्रह देखने के लिए दस हजार लोग जमा हो गए थे। वन अधिकारियों की उपस्थिति में हंसिये से घास काटना प्रारंभ कर दिया। उसी दिन इन सत्याग्रहियों का यवतमाल-करागृह में श्री भरूचा की अदालत में मुकदमा पेश हुआ तथा तुरन्त-फूरत सबको सजा दे दी गई। डॉक्टर हेडगेवार को 9 महीने का से सश्रम कारावास दिया गया। उनके साथी शेष 11 जनों को चार-चार महीने की सश्रम कारावास का दण्ड मिला।

भारतीय राष्ट्रीय झंडा तिरंगा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सच
बाल्यकाल में जब बालसखा के साथ में खेल के आकर्षण के माध्यम से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखों में बाल सखा के साथ जाने लगे। तब वहां खेल के माध्यम तथा बौद्धिक के सुभाषित, अमृतवचन, बोध कथा, आदि द्वारा वहां पर देशभक्ति तथा राष्ट्र प्रेम का अनुपम और अनोखा पाठ पढ़ाया जाता था। जो वहां आने वाले बड़े स्वयंसेवकों के आचरण और व्यवहार के उदाहरण से प्रत्यक्ष रूप में देखने को मिलता था राष्ट्र के प्रति समर्पण और श्रद्धा भाव का अनुभव का व्यवहार और आचरण व्यवहारिक रूप में देखने को मिलता था।
देश भक्ति का ऐसा आचरण और व्यवहार अन्यत्र नहीं मिला। स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस पर होने वाले सार्वजनिक उत्सव व कार्यक्रमों में देशभक्ति तथा राष्ट्र प्रेम का जैसा जज्बा और उत्कृष्ट आचरण संघ की शाखा में हमेशा मिलता था। जो व्यक्ति के व्यक्तित्व पर एक अमिट छाप छोड़ता है। संघ की शाखा में जाते-जाते बड़े होकर युवा अवस्था में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यालय में जाते थे। तो वहां भी तिरंगे को स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस पर पूर्ण आस्था व श्रद्धा से फिराते आते देखा गया। 1942 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता बालाजी रायपुरकर ने अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में तिरंगा लहराते हुए अपना बलिदान दिया। अब वर्तमान समय में कथा-कथित बुद्धिजीवियों द्वारा यह कहते हुए सुनता हूं , विशेष कर वामपंथियों द्वारा यह झूठ फैलाया गया, कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वतंत्रता के 50 वर्षों तक अपने कार्यालय पर तिरंगा नहीं फिराते। जबकि स्वतंत्रता के 50 वर्षों बाद तक देश की तत्कालीन सरकारों ने आम नागरिकों को, “राष्ट्रीय गौरव अपमान निवारण अधिनियम 1971” के अंतर्निहित नियम, जिसके अनुसार आम नागरिक अपने निजी आवास कार्यालय तथा गैर सरकारी संगठन (स्वयंसेवी) संगठन अपने कार्यालय पर तिरंगा नहीं फिर आ सकते थे। इस अधिनियम में निजी आवास तथा निजी संगठनों के कार्यालय पर तिरंगा फहराया जाने पर दंड का प्रावधान था। स्वतंत्रता के 50 वर्षों तक आम नागरिकों द्वारा निजी आवासों और कार्यालय पर तिरंगा फहराए जाने पर रोक यह संविधान के मूल अधिकार अर्थात अनुच्छेद 19 बोलने और अभिव्यक्त की स्वतंत्रता का उल्लंघन भी था।
आम नागरिकों को तिरंगा अपने निजी आवासों पर फिराने तथा निजी कार्यालय, निजी स्वयंसेवी संस्थाओं के कार्यालय पर फिराने का अधिकार भारत संघ बनाम नवीन जिंदल के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय तथा भारतीय झंडा संहिता 2002 के नियम के अधीन दिया गया। भारतीय झंडा संहिता 2002 को तीन भागों में बांटा गया। संहिता के भाग 1 में राष्ट्रीय झंडे के बारे में सामान्य विवरण दिया गया। आम जनता निजी संगठनों और शैक्षणिक संस्थानों आदि द्वारा राष्ट्रीय झंडा फहराए जाने के बारे में संहिता के भाग 2 में विवरण दिया गया। भारतीय झंडा संहिता 2002 को 26 जनवरी 2002 से लागू किया गया। देश की स्वतंत्रता के 50 वर्षों से अधिक समय तक देश के आम नागरिकों को देशभक्ति के महत्वपूर्ण राष्ट्रीय पर्व और उत्सव पर अपने निजी आवास कार्यालय में भारतीय राष्ट्रीय झंडा तिरंगा फहराया जाने से वंचित रखा गया।

विभाजन की विभीषिका और स्वयंसेवक राष्ट्रीय संघ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने 1943 से 1947 के दौरान कई बार सिंध और पंजाब का दौरा किया। गुरुजी का आखिरी सिंध का दौरा 7 अगस्त 1947 को हुआ। इससे दो दिन पहले कराची में एक विशाल जनसभा हुई। उस समय तक सिंध के आम लोगों को आगामी बंटवारे की भनक लग चुकी थी। ऐतिहासिक दृष्टि से यह ध्यान देने योग्य बात है। कि गुरुजी आखिरी नेता थे। जिन्होंने हिन्दुओं के साथ आखिरी समय तक यानी बंटवारे के सात दिन पहले तक अखंड भारत के सिंध प्रांत का आाखिरी दौरा किया। उस समय तक सिंध के अन्य कथा-कथित महान बुद्धिजीवी नेता भाग कर सुरक्षित स्थानों तक पहुंच गए थे। गुरुजी ने संघ के सिर्फ कार्यकर्ताओं की एक टोली को वहीं रुकने को कहा, कि जब तक हिंन्दू भाइयों की समस्याओं का समाधान नहीं हो जाता है। तथा जो हिन्दू सुरक्षित स्थान पर पहुंचाना चाहते हैं। जब तक वह सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुंच जाएंगे। तब तक वे डटे रहे। इतना कहना काफी होगा, कि संघ के स्वयंसेवकों ने मुस्लिम लीग के गुंडों से लड़ने में अहम भूमिका निभाई और उनके साथ ही यह भी सुनिश्चित किया, कि हिन्दु-सिख परिवार सुरक्षित भारत पहुंचाए। संघ यदि उस खतरनाक समय में न होता तथा न ही वह बीच बचाव के लिए आता। तो बंटवारे की वेदी पर और कई हजारों मासूम जानों की बलिदेनी पड़ जाती। बंटवारे के उस भयंकर दौर के विषय में लिखते हुए प्रोफेसर ए एन. बाली अपनी पुस्तक ‘नाऊ इट कैन बी टोल्ड’ में लिखते हैं “उस कठिन समय में लोगों की रक्षा के लिए उन युवाओं के सिवाय और कौन आया, जिन्हें संघ के नाम से जाना जाता है? उन्होंने राज्य के प्रत्येक शहर के प्रत्येक मोहल्ले की महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित निकालने का बंदोबस्त किया। उन्होंने उनके भोजन चिकित्सा तथा कपड़ों का इंतजाम किया और हर संभव तरीके से उनकी देखभाल की।…………ऐसे कई मामले सामने आए जब संघ के स्वयंसेवक मुस्लिम महिलाओं और बच्चों को हिन्दू मोहल्लों से मुस्लिम लोग के शरणार्थी शिविरों तक लेकर गए।”
कोई यदि चाहे तब भी वह विभाजन की विभीषिका के दौरान और उससे उत्पन परिस्थितियों के मद्देनजर तथा शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए संघ द्वारा किए गए कार्यों और अथक प्रयासों को अनदेखा नहीं कर सकता। हम स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाते हैं। लेकिन विभाजन की विभीषिका का दर्द आज भी हिंदुस्तान के सीने को छलनी करता है। यह पिछली शताब्दी की सबसे बड़ी विभीषिका और त्रासदी है। स्वतंत्रता के दशकों बीतने के बाद आज तक देश में सांप्रदायिक तुष्टिकरण और वोट बैंक की राजनीति जारी है। देश को आज तुष्टिकरण की नीति से बाहर निकलकर सर्वजन, सर्वहित का माहौल बना कर, सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की नीति को लागू करता चाहिए। पाकिस्तान और बांग्लादेश में निवास करने काले अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा, दोनों देशों से बात कर तथा वैधिक मंचों पर सुनिश्चित की जानी चाहिए। सीएए कानून लाकर विभाजन की त्रासदी में भारत नहीं लौट सकने वाले अल्पसंख्यकों को यह संदेश देना चाहिए, कि भारत हर स्तर पर उनके साथ खड़ा है।
लेखाराम बिश्नोई
(लेखक राजस्थान उच्च न्यायालय में अधिवक्ता )