11 जून 1940, नागपुर
आज एक बहुत भारी दिन है। डॉक्टर हेडगेवार नहीं रहे।
जब उनकी चिता की लपटें उठीं तो ऐसा लगा मानो मेरे अपने पिता हमें छोड़कर चले गए हों।
गुरुजी माधव सदाशिवराव गोलवलकर को अब संगठन का भार सौंपा गया है।

वे शांत हैं, गंभीर हैं, और उनकी आँखों में असीम निश्चय झलकता है। मुझे याद है जब वे १९२४ में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से इंटरमीडिएट कर रहे थे , एक बार उनके पैर की अंगुली पर बिच्छू ने काट लिया। लेकिन उन्होंने बिना घबराए उस हिस्से को थोड़ा सा काटकर पोटैशियम परमैंगनेट के घोल में पैर डुबो दिया और फिर आराम से पढ़ाई में लग गए। ये देखकर उनके दोस्त हैरान रह गए और पूछ बैठे
“इतने तेज़ दर्द में भी पढ़ाई कैसे कर लेते हो?”
वे मुस्कुराते हुए बोले
“बिच्छू ने मेरे पैर ही को तो काटा है, इससे पढाई में बाधा कैसी ?”
……अभी 1932 की ही तो बात है जब डॉक्टर जी पहली बार नागपुर के स्वयं सेवक भैय्या जी दानी के नाते से गुरूजी से मिले थे । 26 वर्ष की आयु में इतना तेज़ की सूर्य को चुनौती का एहसास हो जाये । 1931 से श्री माधव सदाशिवराव गोलवलकर बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में पढ़ाते हुए बच्चों के पसंदीदा गुरूजी हो गए थे । अब यदि कोई शिक्षक अपना लगभग पूरा वेतन ज़रूरतमंद छात्रों की मदद और किताबों की व्यवस्था में लगा दे , जिनके अनुरक्त BHU के संस्थापक मदन मोहन मालवीय जी स्वयं हो , वो सभी के चहेते तो होंगे ही।
गुरुजी, यानी माधवराव सदाशिव गोलवलकर जी, आज संघ की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। वे बहुत कम बोलते हैं, पर उनकी आँखों में जो तेज है, वह हमें भीतर तक झकझोर देता है।डॉक्टर जी के जाने से जो निर्वात हो गया है वो नहीं भर सकता किन्तु शोक के बीच भी उनका एक वाक्य मेरे कानों में गूंज रहा है:
“व्यक्ति नश्वर है, पर संगठन अमर है।”
इतिहास-तथ्य:
डॉ. हेडगेवार का देहांत 21 जून 1940 को हुआ। उनके बाद संघ का दायित्व माधवराव सदाशिव गोलवलकर (“गुरुजी”) को सौंपा गया। यह संघ के इतिहास का पहला बड़ा नेतृत्व-परिवर्तन था।
18 सितंबर 1941, शाखा प्रांगण
आज शाखा में गुरुजी ने हमसे कहा कि “संघ का कार्य किसी एक व्यक्ति की लोकप्रियता से नहीं, बल्कि संगठन की निरंतर साधना से चलता है,अनुशासन ही संघ का प्राण है।”
बाहर का माहौल युद्ध (World War) के कारण तनाव से भरा हुआ है। अंग्रेज हर जगह शक की निगाह से देखते हैं। मैं सोचता हूँ ……. हम स्वयंसेवक क्यों रोज़ शाम को एकत्र होते हैं? शायद इसलिए कि यहाँ आकर लगता है कि हम अकेले नहीं, बल्कि एक विराट परिवार का हिस्सा हैं। अंग्रेजी हुकूमत कठोर होती जा रही है।पुलिस की नजर हमेशा शाखाओं पर रहती है। परंतु शाखा की प्रार्थना में जब हम सब एक स्वर से गाते हैं,
“नमस्ते सदा वत्सले मातृभूमे…”
तो लगता है कि यह एकात्म स्वर राष्ट्र विजय का उद्धोष है

9 अगस्त 1942
अलग प्रकार की चाय
नागपुर में गाँव के कुछ स्वयंसेवक एक स्थान पर इकट्ठा थे। कार्यक्रम के बाद, जिस व्यक्ति के घर पर हम कुछ समय ठहरे थे उन्होंने ज़िद की कि वह हमें चाय पिलाने के पश्चात ही भेजेंगे । हम ५-६ लोग थे ,आँगन में बैठे चाय की प्रतीक्षा कर रहे थे । घर बहुत छोटा था , कमरा और रसोई एक साथ थे। एक कोने में चूल्हा जलाया गया था, और उस पर चाय की पतीली रखी गई थी।
चाय पाउडर और गुड़ डालने के बाद पानी उबलने पर दूध डाला गया। सभी लोग उबलते पानी में गुड़ को निहार रहे थे, तब वह व्यक्ति चाय के लिए छन्नी ढूँढने लगा। कुछ देर ढूंढने के बाद उसे छन्नी नहीं मिली, तो उसने अपनी धोती से चाय छान ली। उसने बड़ी-बड़ी प्यालियाँ में चाय डाली और हमारे सामने रख दी। हम लोगों के तो मुँह सिकुड़ गए एक बार ….. किसी के धोती से छानी चाय…. लेकिन गुरूजी ने तुरंत चाव से अपना प्याला खाली कर दिया।
उनके घर से निकलने के बाद जब चाय का जिक्र हुआ, मैंने गुरूजी से पूछा की आपने कैसे सहजता से वो धोती से छानी हुई चाय पी ली ,उन्होंने उत्तर दिया : “अगर मैं उस व्यक्ति द्वारा इतनी श्रद्धा से दी गई चाय नहीं पीता, तो उसका हृदय बहुत दुखी होता। मैं किसी के प्रेम को अनदेखा नहीं कर सकता,क्योंकि प्रेम भावना ही सर्वप्रथम है।”

4 जुलाई 1944, विदर्भ का दौरा
मैं पहली बार अपने नगर से बाहर शाखाओं का भ्रमण करने निकला हूँ। विदर्भ के गाँवों में संघ की शाखाएँ तेजी से बढ़ रही हैं। आश्चर्य है, बिना अखबारों की सुर्खियाँ बने, बिना प्रचार-प्रसार के यह सब हो रहा है। गुरूजी की नेतृत्व क्षमता अद्भुत है । संगठन और अनुशासन उनके लिए सर्वोपरि है ।वे एक एक व्यक्ति करके राष्ट्र को भारतीयता के धागे में पिरो रहे हैं ।हज़ारों कार्यकर्ताओं के नाम उन्हें याद है और जब भी वे किसी कार्यकर्ता से मिलते हैं तो सिरद उनका नाम सहित कुशलक्षेम नहीं पूछते, अपितु उनके परिवार के सदस्यों के बारे में भी सनाम पूछते हैं। अद्भुत व्यक्ति कौशल है उनके पास । व्यक्तिगत रूप से सबसे जुड़ते हैं।रोज़ इतने पत्र लिख कर भेजते हैं, स्वयंसेवकों को , संस्थाओं को , अधिकारियों को । न जाने कैसे कर लेते हैं वो ये सब । प्रति वर्ष देश के हर कोने का प्रवास कर आते हैं । राष्ट्र के प्रति समर्पण के भाव से ही ऐसी ऊर्जा संभव है ।
20 जून 1945, नागपुर
नागपुर से मीलों दूर , पंजाब ,सिंध, बंगाल एवं दक्षिण में भी अब संघ की उपस्थिति है । निश्चित ही गुरूजी के अथक प्रवासों का नतीजा है ये की अभी ५०० सअधिक शाखा में व्यक्ति निर्माण से राष्ट्र निर्माण का कार्य होने लगा है । अँगरेज़ अब हम पर और सख्त हो रहे हैं । हमारा हर वक़्त पीछा किया जा रहा है और संदेह की नज़रों से देखा जा रहा है । सरकारी खुफिया रिपोर्टें रोज आती हैं। वे कहते हैं, ‘संघ में सैन्य अनुशासन है, यह एक गुप्त सेना है।
ऐतिहासिक तथ्य : अंग्रेजों ने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि संघ के लोग इतने अनुशासित हैं कि अगर इन्हें कोई आदेश दे दिया जाए तो पूरी फौज खड़ी हो सकती है।
यह उनका भय था और हमारी शक्ति का प्रमाण।
डायरी के आगे के पन्ने, भाग 8 में पढ़ें । बंगाल का विभाजन , देश का विभाजन, गांधीजी की हत्या , संघ पर प्रतिबंध एवं इस सब के बीच ,राष्ट्र सेवा के लिए अडिग खड़ा संघ, गुरूजी के नेतृत्व में
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NOTE : THE PERSONAL DIARY IS MERELY A CREATIVE ENACTMENT OF GURUJI’S LIFE AND ETHICS
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