
शाखा समाप्त हो चुकी थी। मैं लाठी समेट ही रहा था कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा !
“भोजन किया है?”
वो डॉक्टरजी थे। डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार।
मैं सकपका गया। यह वही व्यक्ति थे जिनके बारे में सुनकर हम शाखा में सीना तानकर खड़े हो जाते थे, जिनके नाम से अनुशासन की परिभाषा शुरू होती थी। और आज, चौथे दिन की शाखा के बाद, उन्होंने मुझसे यह आत्मीय प्रश्न किया था।
मैंने सिर झुकाया , “नहीं।”
“तो आइए। आज हमारे साथ भोजन करें।”
मैं उनका पीछा करते हुए उस गली से गुज़रा जो शाखा के मैदान से संघ कार्यालय की ओर जाती थी। उनकी चाल में न कोई अहं था, न कोई विशेष ‘नेता जैसी’ भंगिमा। वे चलते हुए रास्ते में एक वृद्ध को प्रणाम करते थे, बच्चों से मुस्कुराकर बात करते थे और रिक्शे वाले से पूछते , “क्यों भाऊ, धंधा कैसा चल रहा है?”
हम दोनों नागपुर की गलियों से होते हुए एक पुराने, सादे, लेकिन सुसंस्कृत घर में पहुँचे। रास्ते में उन्होंने गांव के हाल पूछे, मेरे परिवार के बारे में जाना।
संघ कार्यालय में पहुंचकर भोजन की थाली रखी गई। सादी सी थाली ,दो रोटी, थोड़ा भात, मूंग की दाल।
भोजन के बीच उन्होंने पूछा, “क्यों आए शाखा में?”
मैंने कहा, “देश के लिए कुछ करना चाहता हूँ।”
उन्होंने मुस्कुरा कर कहा , “देश के लिए करना है तो पहले स्वयं को बनाओ। शाखा वही यज्ञशाला है जहाँ अपने को संस्कारित किया जाता है।”
“तुमने क्या देखा शाखा में?”
मैंने कहा , अनुशासन, व्यायाम, खेल।
उन्होंने हँसते हुए कहा :
“बस इतना ही? एक दिन देखना, यही अनुशासन किसी भूखे को भोजन कराएगा, किसी अबला की रक्षा करेगा, और कभी-कभी, देश की सीमाओं की रक्षा भी करेगा। शाखा केवल खेल नहीं , यह राष्ट्र का निर्माण है।”
मैं स्तब्ध था। पहली बार किसी ने मुझे देश के लिए कुछ करते हुए कल्पना में देखा था।
वो कहते गए ……
“जब स्वतंत्रता आएगी, तब क्या करोगे? सिर्फ झंडा फहराकर घर बैठ जाओगे?”
“हमारा लक्ष्य केवल स्वतंत्रता नहीं , स्वतंत्र भारत को संगठित और चरित्रवान बनाना है। बिना चरित्र और संगठन के स्वतंत्रता भी परतंत्रता बन जाती है।”
उनका लहजा बिलकुल घरेलू था, जैसे कोई बड़ा भाई किसी छोटे को समझा रहा हो। लेकिन उनके शब्दों में वह अग्नि थी जो आत्मा में एक हलचल छोड़ जाती है।
मैं उस दिन समझ नहीं पाया कि उनके शब्दों में कितनी गहराई थी। वर्षों बाद, जब जीवन मुझे कई मोड़ों पर ले गया , तब समझा कि डॉक्टरजी केवल शरीर की शाखा नहीं, चेतना की शाखा लगवाते थे।
जब एक हरिजन युवक ने शाखा शुरू करनी चाही:
उस दिन भोजन के बाद वे मुझे लेकर एक गाँव गए। वहाँ एक छोटी सी शाखा चल रही थी , मात्र 7 स्वयंसेवक। पर डॉक्टरजी वहाँ ऐसे उत्साह से गए जैसे कोई विशाल आयोजन हो।
शाखा समाप्त होने के बाद उन्होंने उन सात लोगों से एक-एक कर बात की। शाम को वे एक सभा में गए , जहाँ एक हरिजन युवक शाखा शुरू करना चाहता था।
डॉक्टरजी ने उसे गले लगाया, और कहा
“संघ किसी जाति या भाषा का नहीं। यह उस राष्ट्र का है, जिसमें तुम और मैं दोनों एक समान रक्त लेकर पैदा हुए हैं।”
“भारत माता की सेवा करने के लिए कोई ऊँच-नीच नहीं होती। संघ सबका है, और भारत सबका है।”
यह वाक्य सिर्फ भाषण नहीं था , यह एक विचार था, जो वर्षों बाद मुझे यह समझाने में सक्षम हुआ कि संघ कोई जाति-धर्म से ऊपर की धारा है : एक रचनात्मक, आत्मशक्ति-संचालित राष्ट्रीय चेतना।

क्या आप कांग्रेस से कभी फिर जुड़ेंगे?
रास्ते में चलते हुए मैंने पूछा, “डॉक्टरजी, क्या आप कांग्रेस से कभी फिर जुड़ेंगे?”
उन्होंने थोड़ा रुककर कहा:
“मैंने कांग्रेस को छोड़ा नहीं, केवल उसकी विधि को छोड़ा है। भारत को स्वतंत्र करने का कार्य केवल राजनीतिक नहीं, सामाजिक और सांस्कृतिक शुद्धि का भी है।”
“स्वराज्य यदि अयोग्य समाज के हाथ में गया, तो वह भी परतंत्रता ही होगी। संघ उस योग्य समाज का निर्माण कर रहा है।”
यह बात मैंने जीवन में कई बार अनुभव की , संघ के स्वयंसेवक गाँव-गाँव, नगर-नगर, बिना किसी प्रचार के सेवा करते हैं। यही डॉक्टरजी की दृष्टि थी , नेतृत्व की नहीं, निर्माण की।
एक संकल्प के लिए जीवन:
उन्हीं दिनों की बात है , डॉक्टरजी के स्वास्थ्य में गिरावट आने लगी थी। पर वे रुकते नहीं थे।
जेल की यातना, लंबी यात्राएँ, समाज से टकराव, पर उनके चेहरे पर कभी शिकन नहीं दिखती।
1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में उन्होंने भाग लिया। संघ की प्राथमिक अवस्था में उन्होंने अपने स्वयंसेवकों से भी आग्रह किया कि वे भारतमाता के लिए जेल जाने से न डरें।
1932 में वे जेल से लौटे ; शरीर से क्षीण, पर आत्मा से प्रज्वलित।
“मृत्यु जब आएगी तब आएगी, पर संघ का कार्य रुकना नहीं चाहिए।”
उनका यह कथन न केवल उनके स्वास्थ्य के प्रति दृष्टिकोण था, बल्कि यह उस राष्ट्रधर्म का प्रतीक था जो वे हर स्वयंसेवक में संचारित करना चाहते थे।
एक विचार की विरासत:
1933 में जब मैं पहली बार डॉक्टरजी से मिला, तब संघ कुछ सौ शाखाओं तक सीमित था। पर उनकी मृत्यु तक , 1940 आते-आते संघ हज़ारों शाखाओं, हजारों कार्यकर्ताओं, और असंख्य मनों तक पहुंच चुका था।
उन्होंने राजनीति नहीं की, पर राजनेताओं को दिशा दी। उन्होंने भाषण नहीं दिए, पर राष्ट्रचेतना को शब्द दिए।
उन्होंने संगठन नहीं खड़ा किया बल्कि एक सतत चलने वाली साधना को जन्म दिया।

स्वयंसेवक वह है जो स्वयं से ऊपर उठ चुका हो
1940 तक संघ की शाखाओं का जो मानचित्र सामने आया, वह केवल लाल बिंदुओं का भूगोल नहीं था — वह जनमानस में जगे विचारों का जाल था।
नागपुर से लेकर मदुरै, अमरावती से लेकर अमृतसर तक यह विचार फैल चुका था।
डॉक्टरजी आज नहीं हैं, पर उनकी आवाज़ अब भी शाखा के मैदान में गूंजती है
“स्वयंसेवक वह है जो स्वयं से ऊपर उठ चुका हो।”
मैं आज भी शाखा जाता हूँ। पर अब मैं लाठी नहीं समेटता मैं विचार समेटता हूँ, और भाव गढ़ता हूँ। संघ मेरे लिए अब संस्था नहीं
एक जीवित, धड़कता हुआ यज्ञ है जिसकी पहली आहुति डॉक्टरजी ने दी थी।
(यह आलेख एक काल्पनिक शैली में लिखा गया है, परंतु इसके सभी घटनाक्रम, प्रसंग और उद्धरण ऐतिहासिक तथ्यों एवं दस्तावेज़ों पर आधारित हैं।)
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संघ शतायु के भाग 6 में आप क्या पढ़ना चाहेंगे ?? हमें बताइयेगा अवश्य !