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#RSSat100 | भाग 1: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की उत्पत्ति — एक सदी पूर्व बोया गया वह बीज

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जब राष्ट्र को चेतना की आवश्यकता थी, तब एक व्यक्ति ने उसे फिर से जागृत करने की साधना शुरू की। उस साधना का नाम था — राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। (RSS)

क्या था भारत का सामाजिक परिदृश्य?

1920 के दशक का भारत, स्वाधीनता आंदोलन के उत्तुंग शिखर पर था। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन ने देशभर में हलचल मचा रखी थी। लेकिन राष्ट्र का यह राजनीतिक जागरण, सामाजिक स्तर पर बिखरा हुआ था। जातियों में विभाजित, क्षेत्रीय अस्मिताओं में उलझा, आत्मगौरव से रहित एक हिंदू समाज — जो हजार वर्षों की गुलामी से मानसिक रूप से भी टूट चुका था।

सवाल था:

“क्या केवल राजनीतिक स्वतंत्रता से भारत फिर से जागृत हो सकता है? या इसके लिए समाज का पुनर्गठन और आत्मनिर्भरता आवश्यक है?”

इसी प्रश्न ने जन्म दिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को — एक ऐसे विचार को, जो न केवल स्वतंत्रता की दिशा में, बल्कि राष्ट्र पुनर्निर्माण की यात्रा में सहयात्री बना।

राष्ट्र रक्षा के समान कोई पुण्य नहीं, राष्ट्र रक्षा के समान कोई व्रत नहीं, राष्ट्र रक्षा के समान कोई यज्ञ नहीं – अतः राष्ट्र रक्षा सर्वोपरि होनी चाहिए – डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार

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डॉ. हेडगेवार: विचारक, क्रांतिकारी और समाजदृष्टा

डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार का जन्म 1 अप्रैल 1889 को नागपुर में हुआ। एक अत्यंत मेधावी बालक, जिसने कम उम्र में ही ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोही दृष्टिकोण अपना लिया था।

उन्होंने कलकत्ता से मेडिकल की पढ़ाई की, जहाँ वह अनुशीलन समिति से जुड़े, और क्रांतिकारी विचारों से प्रभावित हुए।

नागपुर लौटने के बाद वे 1916 में कांग्रेस में सक्रिय हुए, लेकिन जल्दी ही उन्होंने अनुभव किया कि केवल आंदोलन से समाज का कायाकल्प संभव नहीं।

हेडगेवार की अंतर्दृष्टि:
भारत का पराभव केवल बाहरी आक्रमणों से नहीं हुआ था, बल्कि आंतरिक विखंडन ने उसे दुर्बल बना दिया था।

जातीय भेदभाव, क्षेत्रीय स्वार्थ, और आत्महीनता का भाव – ये वे रोग थे जिनका निवारण बिना सामाजिक संगठन के संभव नहीं था।

यही विचार धीरे-धीरे परिपक्व होकर संघ के रूप में आकार लेने लगा।

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1925: संघ की स्थापना — एक नए युग की शुरुआत

विजयादशमी, 27 सितंबर 1925, नागपुर का एक सामान्य सा घर — “मोहिते के बाड़े” में 5 स्वयंसेवकों के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई।

यह कोई पंजीकृत संस्था नहीं थी। कोई प्रेस रिलीज़ नहीं, न ही कोई घोषणापत्र।
बस एक मौन संकल्प — “हम भारत को फिर से विश्वगुरु बनाएँगे, संगठित और संस्कारित समाज के बल पर।”

प्रारंभिक विशेषताएं:
दैनिक शाखा: शरीर, मन और चरित्र के समविकास हेतु

नियमित व्यायाम, गीत, अनुशासन: सैनिक भावना और सामाजिक सामंजस्य के लिए

राजनीति से दूरी: राष्ट्र निर्माण के लिए राजनीति से ऊपर उठकर कार्य

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हेडगेवार का स्पष्ट विचार था:

“हम सत्ता के लिए नहीं, संस्कार के लिए कार्य करेंगे। सत्ता आएगी और जाएगी, लेकिन यदि समाज कमजोर है, तो स्वतंत्रता भी अपूर्ण होगी।”

संघ की शाखा: विचार, अनुशासन और संस्कार की प्रयोगशाला

“शाखा” संघ का मूल तत्व है। यह केवल व्यायाम या परेड नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण की प्रयोगशाला है।

एक शाखा में क्या होता है?
सूर्यनमस्कार, योग, खेल

देशभक्ति गीत, सुभाषित, नीतिपरक कथा

“बौद्धिक” चर्चा: इतिहास, संस्कृति, धर्म, राष्ट्र

आत्म-अनुशासन, punctuality, सेवा कार्यों की योजना

हर वर्ग, हर जाति, हर भाषा-भाषी का स्वागत। बिना भेदभाव के, केवल “स्वयंसेवक” की पहचान।

एक उदाहरण:
एक समय शाखा में आने वाले स्वयंसेवकों में किसान, वकील, डॉक्टर, छात्र – सब एक पंक्ति में खड़े होते थे। कोई उच्च-नीच नहीं। यह सामाजिक समता की अभूतपूर्व प्रयोगशाला थी।

स्वतंत्रता आंदोलन में संघ की भूमिका:

शुरुआती वर्षों के दौरान स्वयंसेवकों को एक प्रतिज्ञा लेने के लिए कहा गया था जिसमें एक उद्देश्य के रूप में “भारत के लिए स्वतंत्रता हासिल करना” शामिल था। स्वतंत्रता संग्राम में हेडगेवार की सक्रिय भूमिका के कारण आरएसएस के राजनीतिक मिशन के बारे में एक धारणा बनी। इसकी शुरुआत 1930 के दशक में ही हो गई थी, जब ब्रिटिश प्रशासकों और देशी अधिकारियों के बीच उनके समर्थकों ने इसकी गतिविधियों पर कई तरह के प्रतिबंध लगाने की कोशिश की। उन्होंने 1921 और 1930 में दो सत्याग्रहों में भाग लिया। उन्हें दोनों मौकों पर जेल भेजा गया। वह 1940 में ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन शुरू होने से पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे।

डॉ. हेडगेवार स्वतंत्रता के महत्व को अच्छी तरह जानते थे। लेकिन, एक बुनियादी सवाल उन्हें अक्सर परेशान करता था। वह खुद से पूछते थे कि कैसे कुछ ब्रिटिश व्यापारी, जो भारत से 7000 मील दूर से आए थे, इस देश पर शासन कर सकते थे। वह इस नतीजे पर पहुँचे कि ऐसा ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित था, असंगठित था और इसमें कई सामाजिक बुराइयाँ थीं, जिसने ब्रिटिशों को भारत पर शासन करने में सक्षम बनाया। उन्हें इस बात का डर था कि स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद भी, अगर भारतीय समाज को मौलिक रूप से नहीं बदला गया, तो इतिहास दोहराता रहेगा। वे कहते थे कि ‘जब नागनाथ जाएगा, तब सांपनाथ आएगा’ (यदि एक प्रकार का सांप जाएगा, तो दूसरा आएगा)।

उन्होंने समाज को अधिक जागरूक, आत्म-सम्मान से भरा और संगठित बनाने की आवश्यकता को समझा। उन्होंने हमेशा स्वतंत्र भारत में राष्ट्रीय गुणों वाले लोगों पर जोर दिया। 1930 में महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन का आह्वान किया। 6 अप्रैल को दांडी मार्च की योजना बनाई गई थी। इससे पहले नवंबर 1929 में सभी संघचालकों की तीन दिवसीय बैठक हुई थी जिसमें आरएसएस ने बिना शर्त आंदोलन का समर्थन करने का फैसला किया था। आरएसएस की विभिन्न मुद्दों पर अपनी नीति थी। नीति के अनुसार, डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिगत क्षमता में सत्याग्रह में भाग लिया। उनके साथ उनके अन्य सहयोगी भी थे।

1947 के बंटवारे के समय, संघ ने लाखों हिंदू शरणार्थियों को भोजन, वस्त्र और सुरक्षा प्रदान की।

तत्कालीन सरसंघचालक गुरुजी (म.स. गोलवलकर) ने कहा:

“हमारा मार्ग सेवा का है, न कि प्रचार का। हम उस दीपक की तरह जलेंगे, जो अंधकार में भी बिना शोर किए प्रकाश देता है।”

https://organiser.org/2024/06/21/91333/bharat/search-for-swaraj-sangh-freedom-struggle/

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स्वतंत्रता पूर्व का RSS

संघ पर प्रतिबंध और पुनरुत्थान

30 जनवरी 1948, महात्मा गांधी की हत्या के बाद संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

हालाँकि हत्या में संघ का कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध नहीं था (जिसे सरकार ने भी बाद में स्वीकार किया), फिर भी यह एक कठिन समय था।

9 महीने तक संघ पर प्रतिबंध रहा।

सरसंघचालक गुरुजी को गिरफ्तार किया गया।

संघ ने लोकतांत्रिक तरीके से कार्य किया, संविधान बनाया, और फिर से उभरा — और भी सशक्त होकर।

100 वर्षों में संघ की यात्रा: एक वटवृक्ष का विस्तार

1925 में 5 स्वयंसेवकों से शुरू हुआ संघ, आज:

60,000 से अधिक शाखाएँ देशभर में

200+ सामाजिक संगठनों को प्रेरणा स्रोत

विदेशों में 40+ देशों में HSS (Hindu Swayamsevak Sangh)

शिक्षा, सेवा, ग्राम विकास, आपदा राहत, महिला सशक्तिकरण में लाखों कार्यकर्ता

संघ एक संगठन नहीं, एक संस्कार है


राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को केवल एक “संगठन” कहना, उसकी आत्मा को कम आँकना होगा।
यह एक चिंतन प्रणाली, एक जीवन पद्धति, और एक राष्ट्र साधना है।

डॉक्टर जी का अंतिम संदेश:

“मेरा जीवन समाप्त हो रहा है, पर संघ की मशाल जलती रहे, यही मेरी अंतिम इच्छा है।”

आज, जब संघ अपनी शताब्दी में प्रवेश कर रहा है, वह मशाल अब लाखों हाथों में है — सुदूर गांवों से लेकर विश्व मंच तक।

अगले भाग में:
“संघ की पहली शाखा: वह दिन, वह दृश्य, और वह ऊर्जा जिसने भारत का भविष्य रचा।”

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