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एक ऐसे प्रचारक जिनका जीवन एक संघर्ष और समर्पण का आदर्श उदाहरण

वामपंथी की गलियों से राष्ट्रवाद के उत्थान में समर्पण तक का सफर श्री सदानंद जी का



केरल के एक छोटे से गाँव में एक तेजस्वी, ऊर्जावान और प्रतिभाशाली युवा रहते थे – नाम था सदानंद। छह फीट लंबा शरीर, सुंदर व्यक्तित्व, गहरी समझ और भीतर एक सुलगती जिज्ञासा। विद्यार्थी जीवन में ही उनका संपर्क वामपंथी विचारधारा से हुआ। वह कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और अपनी मेहनत, नेतृत्व और सोच की वजह से वहाँ जल्द ही पहचान बनाने लगे। खेल, कविता, साहित्य और शिक्षा के क्षेत्र में वे पहले से ही गहरी रुचि रखते थे। लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उनके भीतर सवाल उठने लगे – यह विचारधारा भारत की आत्मा से क्यों दूर है? इसमें मातृभूमि के लिए निष्ठा क्यों नहीं दिखती? भारत के मूल स्वभाव से यह इतना विपरीत क्यों लगता है?ठीक इन्हीं दिनों उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हुआ। संघ कार्यकर्ताओं की सात्विकता, सादगी और ऋषि-सदृश जीवनशैली ने सदानंद के अंतर्मन को छू लिया। धीरे-धीरे वे संघ के ‘अपरिचित’ से ‘परिचित’ हुए, फिर स्वयंसेवक बने और एक समर्पित कार्यकर्ता बन गए। अब उनका जीवन उद्देश्य स्पष्ट था – राष्ट्र का पुनर्निर्माण। उन्होंने वही काम वहीं शुरू किया जहाँ वे पहले खुद वामपंथी थे। कम्युनिस्ट विचारों से भरे गाँवों में जाकर उन्होंने निर्भीकता से प्रवास किया और शाखाएं लगाईं। उनका प्रभाव इतना था कि उनकी मित्र मंडली, जो अभी भी कम्युनिस्ट विचारों से जुड़ी थी, उनके विचारों का विरोध न कर सकी।

लेकिन अंधकार को प्रकाश कभी स्वीकार नहीं होता। कम्युनिस्टों को यह बिलकुल रास नहीं आया कि उनका ही एक पूर्व साथी अब संघ के माध्यम से गाँव में नया विचार बो रहा है। उन्होंने ठाना – इस सदानंद को सबक सिखाना होगा। उन्होंने कहा, “इसकी ऊँचाई 6 फीट है न? इसे 2 फीट कम कर देते हैं, ताकि संघ की ऊँचाई भी घटे।” और फिर एक षड्यंत्र रचा गया।

एक दिन सदानंद जी शाखा से लौट रहे थे। रास्ते में उन्हें पीठ पीछे से घेर लिया गया। गाँव में बिजली नहीं थी, रात अंधेरी थी और हमलावर पूरी तैयारी से आए थे। उन्होंने सदानंद जी को जमीन पर पटक दिया और कुल्हाड़ी से उनके दोनों पैरों को घुटनों तक काट डाला। इतना ही नहीं, वे यह सुनिश्चित करना चाहते थे कि कभी फिर न जुड़ सकें, इसलिए उन्हें जमीन पर घसीटते हुए जंगल में फेंक दिया।
लेकिन उस अंधेरे जंगल में, जहाँ हर चीख गुम हो जाती है, वहाँ से दर्द की चीख नहीं, “वन्देमातरम्” और “भारत माता की जय” के स्वर उठ रहे थे। जब उनका शरीर कट रहा था, तब उनके मुँह से हिंदू राष्ट्र के जयघोष निकल रहे थे। वे आह नहीं कर रहे थे, वे गा रहे थे – वही गीत जो उन्होंने पहली शाखा में पहली बार सुना था – “क्या हुआ जो एक पत्ता टूट कर गिरा ज़मीन पर, कल नई कोंपलें आएँगी…”

गाँव के स्वयंसेवक दौड़े, उन्हें खून से लथपथ देखा। सांसें धीमी थीं, पर चेतना जागृत थी। सदानंद जी ने उनसे कहा, “मेरे पैर लाओ… शायद जोड़ सकें।” सभी स्वयंसेवक आँसू भरी आँखों से दौड़े। 400 किलोमीटर दूर कोच्ची के अस्पताल में उन्हें ले जाया गया। जिस कार्यकर्ता की गोद में उनका सिर था, वह निरंतर रो रहा था। तभी उसने देखा कि सदानंद जी के होंठ हिल रहे हैं। उसने कान पास ले जाकर सुना, तो वह चकित रह गया – वे हमलावरों का नाम नहीं बता रहे थे, बल्कि वही गीत दोहरा रहे थे – “एक सदानंद गिरा मातृभूमि पर, दूसरा सदानंद आएगा…”सदानंद जी बच तो गए, पर दोनों पैर मातृभूमि के चरणों में अर्पित हो चुके थे। वह युवती जिससे विवाह की बात चल रही थी, जब यह सब हुआ तो परिवार ने बातचीत बंद कर दी। लेकिन उस युवती ने साफ कहा, “यदि विवाह करूंगी, तो सदानंद जी से ही करूंगी, अन्यथा नहीं।” उनका विवाह हुआ, और आज वही स्त्री उनके साथ राष्ट्रकार्य में अग्रसर है।

सदानंद जी ने जयपुर फ़ुट पहनकर फिर से कार्य प्रारंभ किया। उन्होंने तिपहिया वाहन बनवाया ताकि प्रवास कर सकें। जब प्रहार महायज्ञ हुआ, तो सबने कहा – रुक जाइए, लेकिन वे नहीं माने। उन्होंने 49 प्रहार लगाए। दोनों पैरों से खून बह रहा था और चेहरा हँस रहा था। जब किसी ने उन्हें डाँटा, तो बोले – “संघ का आग्रह है, अखिल भारत में यज्ञ हो रहा है – मैं क्यों रुकूं?”वे शिक्षा क्षेत्र में भी अग्रणी रहे। अखिल भारतीय राष्ट्रीय शैक्षिक महासंघ, केरल के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष रहे। उनके नेतृत्व में कई राष्ट्रनिष्ठ शिक्षक तैयार हुए। और अंततः वह गौरवपूर्ण क्षण आया जब उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया। यह केवल उनका सम्मान नहीं था, यह एक विचारधारा के संघर्ष, बलिदान और धैर्य का राष्ट्रीय सम्मान था।

आज भी वे कार्यकर्ताओं के बीच वही ऊर्जा, वही प्रेरणा हैं। उनकी कहानी बताती है कि विचार अगर शुद्ध हो, लक्ष्य अगर पवित्र हो और हृदय अगर राष्ट्र के लिए धड़कता हो, तो कोई बाधा रास्ता नहीं रोक सकती। एक सदानंद के कटे हुए पैर ने हजारों नए कार्यकर्ता खड़े कर दिए। और भारतमाता की जयगान आज भी उनके स्वर में गूंजती है।

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