जब भी भारतवर्ष में नारी शक्ति की बात होती है, तो कुछ नाम मन में श्रद्धा से उभर आते हैं। उन्हीं में से एक नाम है वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर। वे केवल एक महिला नहीं थीं, बल्कि एक विचार थीं – जो आज भी लाखों सेविकाओं के मन में चेतना और प्रेरणा का स्रोत है। एक कार्यकर्ता के नाते, मुझे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि मैं उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को जान सकूँ और इस लेख के माध्यम से आपसे साझा कर सकूँ।
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प्रारंभिक जीवन और वैचारिक प्रेरणा
वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर, जिनका जन्म कमल दाते के रूप में हुआ था, एक साधारण गृहिणी के रूप में अपने जीवन का आरंभ करती हैं। किंतु वर्ष 1932 में जब उनके पति का आकस्मिक निधन हुआ, तब न केवल उन्होंने अपने परिवार की जिम्मेदारी को दृढ़ता से संभाला, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय रूप से भाग लिया।
महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित होकर उन्होंने जुलूसों, सभाओं और सामाजिक आंदोलनों में भाग लिया। मुझे जब भी उनके इस संघर्षमयी जीवन के बारे में पढ़ने का अवसर मिला, तो यह महसूस हुआ कि वे एक ओर तो एक वात्सल्यपूर्ण माँ थीं, और दूसरी ओर एक जागरूक समाजसेविका। यही वह समय था जब उन्होंने देखा कि कैसे महिलाएं न केवल अपने घर को, बल्कि समाज और राष्ट्र को भी दिशा देने की क्षमता रखती हैं।
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स्वतंत्रता संग्राम में सहभागिता
उनके स्वतंत्रता संग्राम में सम्मिलित होने का कारण मात्र राजनीतिक नहीं था, बल्कि यह एक वैचारिक संघर्ष भी था – समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर। वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर ने अनुभव किया कि महिलाएं केवल सहानुभूति की पात्र नहीं, बल्कि नेतृत्व की क्षमता रखने वाली सशक्त इकाइयाँ हैं।
उनके पुत्रों का संघ की शाखाओं में जाना और उनमें आए उत्तम परिवर्तन ने उन्हें संघ के कार्य से परिचित कराया। यही वह क्षण था जब उन्होंने स्वयं को भी इस राष्ट्र निर्माण के कार्य में समर्पित कर दिया। एक कार्यकर्ता होने के नाते मैं भी अनुभव करती हूँ कि संघ की शाखा केवल एक दिनचर्या नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण का एक सशक्त माध्यम है – जैसा कि वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर ने स्वयं अनुभव किया।
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राष्ट्र सेविका समिति की स्थापना
वर्ष 1936 में डॉ. हेडगेवारजी से संवाद के उपरांत, वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर ने “राष्ट्र सेविका समिति” की स्थापना की। एक महिला संगठन, जो केवल संगठन नहीं, बल्कि संकल्प की प्रतिमूर्ति बना।
उन्होंने नारी को केवल कोमलता के प्रतीक रूप में नहीं देखा, बल्कि उसे धैर्य, शक्ति और नेतृत्व की प्रतिमूर्ति माना। जीजाबाई का मातृत्व, अहल्याबाई होलकर का कर्तृत्व, और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का नेतृत्व – इन तीनों गुणों का समन्वय वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर के दृष्टिकोण में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।
वे सम्मेलनों, कार्यशालाओं और प्रेरक संवादों के माध्यम से सेविकाओं को संगठित करती रहीं। उन्होंने बार-बार यह कहा कि “नारी जब सशक्त होती है, तब राष्ट्र सशक्त होता है।” उनके द्वारा दी गई यह दिशा आज भी समिति की सेविकाओं में प्रतिदिन प्रत्यक्ष दिखाई देती है।
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विभाजन काल और दृढ़ नेतृत्व
भारत विभाजन का समय अत्यंत दुखद था। परंतु वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर उस समय भी पीछे नहीं हटीं। कराची में रहते हुए, उन्होंने हिन्दू परिवारों को सुरक्षित निकालने और उन्हें आश्रय देने की व्यवस्था की।
उन्होंने सेविकाओं को यह सिखाया कि विपरीत परिस्थितियों में भी अपने आत्म-संस्कार और आत्मबल को नहीं खोना चाहिए। उनका यह संदेश आज भी हम सेविकाओं के लिए दीपस्तंभ के समान है – जो हमें कठिनाइयों में भी पथ दिखाता है।
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विरासत और प्रेरणा
आज, जब मैं सेविका समिति की एक सदस्य के रूप में कार्य करती हूँ, तो मुझे निरंतर वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर की स्मृति प्रेरणा देती है। उनके विचार, उनके कार्य और उनका संकल्प – सब कुछ आज भी हमारी दिनचर्या का हिस्सा हैं।
उनकी दृष्टि में “स्वदेशी”, “स्वावलंबन” और “संस्कृति” तीन ऐसे स्तंभ थे, जिनके माध्यम से उन्होंने महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाया। उन्होंने कहा था कि “यदि नारी जागेगी, तो राष्ट्र स्वयं जागेगा।” और यह वाक्य आज भी मेरे जीवन का सूत्र वाक्य बन गया है।
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उपसंहार
वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर का जीवन केवल इतिहास नहीं, बल्कि वह वर्तमान और भविष्य की चेतना का मार्ग है। उनके द्वारा स्थापित राष्ट्र सेविका समिति आज भी हजारों लाखों महिलाओं को संगठन, संस्कार और सेवा का भाव सिखा रही है।
एक सेविका के रूप में मैं गर्व से कह सकती हूँ कि हमारी प्रेरणा वंदनीय लक्ष्मीबाई केलकर हैं – जिन्होंने हमें यह विश्वास दिलाया कि नारी केवल गृहलक्ष्मी ही नहीं, बल्कि राष्ट्रलक्ष्मी भी है।
वन्दे मातरम्! भारत माता की जय!