🔥 “यदि जीवन में आज़ादी नहीं है, तो ऐसा जीवन व्यर्थ है।”
भारत के ऐसे ही एक अमर पुत्र थे चंद्रशेखर आज़ाद, जिनका जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश के भाभरा गांव (अब चंद्रशेखर आज़ाद नगर) में हुआ था। 15 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ बिगुल बजा दिया था, और फिर पूरी ज़िंदगी आज़ादी की राह में समर्पित कर दी।
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🌿 क्रांतिकारिता का पहला बीज
1919 के जलियांवाला बाग हत्याकांड और फिर महात्मा गांधी द्वारा शुरू किया गया असहयोग आंदोलन चंद्रशेखर आज़ाद के मन को झकझोर गया। उन्होंने महज 15 वर्ष की आयु में आंदोलन में भाग लिया।
जब उन्हें गिरफ़्तार किया गया और जज ने नाम पूछा, तो उन्होंने उत्तर दिया:
👉 “नाम: आज़ाद, पिता का नाम: स्वतंत्रता, और निवास: जेल।”
जज ने क्रोधित होकर उन्हें 15 बेंतों की सज़ा सुनाई, लेकिन उस दिन पूरे देश को एक नया नाम मिला – “चंद्रशेखर आज़ाद”।

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⚔️ गांधी से मतभेद और क्रांतिकारी पथ
जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन को अचानक स्थगित कर दिया, तो आज़ाद की विचारधारा बदल गई। उन्होंने समझ लिया कि स्वतंत्रता केवल अहिंसा से संभव नहीं।
इसके बाद वे हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन (HRA) से जुड़ गए और आगे चलकर उसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी (HSRA) पड़ा।
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🕶️ गुप्त योजनाओं के उस्ताद
अंग्रेज़ों की आँखों में धूल झोंकना, भेष बदलकर बच निकलना – आज़ाद इसमें माहिर थे।
अंग्रेज़ों ने उन्हें पकड़ने के लिए 700 रुपए मासिक की नौकरी का प्रस्ताव भी दिया, लेकिन आज़ाद ने उसे ठुकरा दिया।
उन्होंने हमेशा यह सिद्ध किया कि देशभक्ति केवल शब्द नहीं, कर्म का विषय है।
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🫡 उनकी असाधारण निष्ठा और सिद्धांत
एक बार उनके एक साथी ने अपनी माँ की सहायता के लिए संगठन के धन से थोड़ी मदद मांगी।
आज़ाद ने साफ़ कहा –
> “यह धन मातृभूमि के लिए है, किसी की व्यक्तिगत सहायता के लिए नहीं। मातृभूमि के लिए दिया गया धन केवल राष्ट्र पर ही खर्च होगा।”
उनका एक सिद्धांत था –
“मैं केवल दो को भगवान मानता हूँ – एक मेरी मातृभूमि, और दूसरी खुद की आत्मा।”
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💣 काकोरी और लाला लाजपत राय की मौत का बदला
काकोरी कांड और उसके बाद हुई गिरफ्तारियों से आज़ाद की क्रांतिकारिता और भी तेज हो गई।
लाला लाजपत राय जी की मौत का बदला लेने के लिए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के साथ मिलकर सांडर्स की हत्या की योजना बनाई और उसे अंजाम भी दिया।
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🏹 शौर्य का अंतिम अध्याय – इलाहाबाद में बलिदान
27 फरवरी 1931 को इलाहाबाद के एल्फ्रेड पार्क (अब चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) में जब अंग्रेज़ पुलिस ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया, तो आज़ाद ने 30 मिनट तक मुकाबला किया।
जब अंतिम गोली बची, तो उन्होंने अपने माथे पर गोली मार ली।
> “आज़ाद थे, आज़ाद ही मरे…”
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🗣️ नारा जो अमर हो गया:
👉 “आज़ाद हूं, आज़ाद ही रहूंगा!” – यह केवल नारा नहीं, उनका जीवन दर्शन था।
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🙏 श्रद्धांजलि
आज जब हम स्वतंत्रता की हवा में सांस ले रहे हैं, तो उसका श्रेय उन नायकों को जाता है जिन्होंने अपनी ज़िंदगी देश पर न्यौछावर कर दी।