भारत की धरती पर हजारों वर्षों से प्रकृति और संस्कृति का अद्भुत संगम रहा है। इसी परंपरा में ओरण, गोचर और आगोर हमारी सांस्कृतिक-सामाजिक धरोहर के रूप में आज भी जीवित उदाहरण हैं। ये केवल भूमिखंड या चरागाह नहीं, बल्कि पूर्वजों की दूरदर्शिता, पर्यावरण चेतना और सामूहिक आस्था के प्रतीक हैं।
ओरण – धार्मिक आस्था से जुड़ा हुआ संरक्षित क्षेत्र, जहाँ पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को देवताओं की कृपा स्वरूप मानकर काटना या नुकसान पहुँचाना वर्जित था।
गोचर – गाँव की सामूहिक गौ-चराई भूमि, जिसे गाय-भैंस जैसे पशुओं के पालन हेतु सुरक्षित रखा गया। यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था और पशुपालन संस्कृति की रीढ़ रही।
आगोर – वर्षाजल संचयन एवं भूजल संरक्षण की पारंपरिक व्यवस्था, जो जल-संरक्षण का जीवंत उदाहरण है।
इन धरोहरों ने न केवल पर्यावरण का संतुलन बनाए रखा बल्कि ग्रामीण समाज की सामूहिकता, सहयोग और परंपरा को भी मजबूत किया।
हमारे पूर्वजों ने इन धरोहरों को केवल भूमि नहीं माना, बल्कि इन्हें आस्था और संस्कृति का हिस्सा बनाया। इतना श्रद्धाभाव था कि निजी उपयोग हेतु भी जलावन की लकड़ी तक नहीं उठाई जाती थी। पेड़ों को काटना या वनस्पतियों को नुकसान पहुँचाना पाप समझा जाता था। यही कारण था कि सदियों तक ये क्षेत्र हरे-भरे और सुरक्षित बने रहे।
आज भौतिकवाद और व्यावसायिकता की अंधी दौड़ ने इन धरोहरों पर संकट खड़ा कर दिया है।
कहीं इनका अतिक्रमण हो रहा है, कहीं सरकारें इन्हें व्यावसायिक उपयोग हेतु आवंटित कर रही हैं।कहीं स्थानीय लोग भी इनकी पवित्रता भूलकर इन्हें अपनी निजी संपत्ति की तरह इस्तेमाल करने लगे हैं।
विडंबना यह है कि जहाँ सरकारें नई वन भूमि सुरक्षित करने की योजनाएँ बना रही हैं, वहीं सदियों से संरक्षित ओरण, गोचर और आगोर को बचाने की अनदेखी कर रही हैं।
यदि इन धरोहरों का ह्रास हुआ तो इसके गंभीर दुष्परिणाम सामने आएंगे जैसे —पर्यावरणीय असंतुलन, जल संकट और भूजल स्तर में गिरावट,पशुपालन संस्कृति का ह्रास,ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर सीधा प्रभाव। इसीलिए इनका संरक्षण केवल एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं, बल्कि संस्कृति, आस्था और अस्तित्व का प्रश्न है।
आज भी अनेक जागरूक लोग और संस्थाएँ इन धरोहरों के संरक्षण हेतु संघर्षरत हैं। वे निस्संदेह साधुवाद के पात्र हैं। लेकिन केवल कुछ लोगों का प्रयास पर्याप्त नहीं होगा। आवश्यक है कि हम सब कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हों।अतिक्रमण रोकने के लिए कानूनी कदम उठें। जनजागरण अभियान चलाए जाएँ।बच्चों और युवाओं में इनके महत्व की शिक्षा दी जाए। स्थानीय समाज अपने पूर्वजों की परंपराओं को पुनर्जीवित करे।
ओरण, गोचर और आगोर केवल जमीन के टुकड़े नहीं, बल्कि हमारे पूर्वजों की दूरदृष्टि, श्रद्धा और पर्यावरणीय संतुलन की जीवंत धरोहर हैं। यदि इन्हें बचाया नहीं गया तो आने वाली पीढ़ियाँ हमें कभी क्षमा नहीं करेंगी। आज आवश्यकता है कि हम सब मिलकर इन धरोहरों को संरक्षित करें और पूर्वजों के संस्कारों को जीवित रखें।
लेखाराम बिश्नोई
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