भारत के तीन विविध भूभागों में स्थित परिसरों- उत्तर भारत का पंजाब विश्वविद्यालय, देश की राजधानी में स्थित दिल्ली विश्वविद्यालय और दक्षिण भारत के हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से जो समाचार आया, उसने छात्र राजनीति के इतिहास में एक नया अध्याय रच दिया है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने इन तीनों ही परिसरों में विजयश्री प्राप्त कर यह सिद्ध कर दिया कि भौगोलिक विविधताओं और सांस्कृतिक भिन्नताओं के बावजूद भारतीय जेन-ज़ी की चेतना में “राष्ट्र प्रथम” ही सर्वोपरि है। यह केवल चुनावी परिणामों का संयोग नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चेतना की लहर है जो उत्तर से दक्षिण तक पूरे देश के विश्वविद्यालयों में उमड़ रही है। यह विजय स्पष्ट संकेत करती है कि भारत की जेन-ज़ी, जिसे कई बार उदासीन, निरपेक्ष अथवा केवल उपभोक्तावादी प्रवृत्तियों में लिप्त कहा गया, वस्तुतः राष्ट्रचेतना के उस प्राचीन प्रवाह से जुड़ रही है जिसका मूलमंत्र “राष्ट्र प्रथम” है ।
दिल्ली विश्वविद्यालय, जिसे देश का विचार-प्रवाह नियंत्रित करने वाली प्रयोगशाला माना जाता है, इस बार राष्ट्रवादी धारा के पक्ष में सशक्त रूप से खड़ा हुआ। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रसंघ निर्वाचन में अभाविप की अध्यक्ष, सचिव एवं सह सचिव पद पर विजय केवल चुनावी गणित अथवा सांख्यिकीय आँकड़ों की सफलता मात्र नहीं है, यह भारत की नवयुवा पीढ़ी के मानस में घटित एक गहन वैचारिक परिवर्तन का साक्ष्य है। दिल्ली विश्वविद्यालय का परिसर, जो दशकों से पश्चिमोन्मुखी विचारधाराओं का एक स्थायी गढ़ माना जाता रहा है, आज उस दिशा में अग्रसर होता दिख रहा है जहाँ “राष्ट्र प्रथम” की वाणी अधिक सशक्त, अधिक प्रखर और अधिक यथार्थ प्रतीत होती है। यह विजय विश्वविद्यालय की भौतिक सीमाओं से कहीं अधिक व्यापक है, क्योंकि यहाँ की राजनीति प्रायः राष्ट्रीय राजनीति की भावी प्रवृत्तियों का दर्पण मानी जाती है।विगत दिनों पंजाब विश्वविद्यालय में अध्यक्ष पद पर ऐतिहासिक विजय तथा हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में सभी पदों पर प्राप्त की गई एकतरफा सफलता इस प्रवृत्ति की पुष्टि करती है कि छात्र-राजनीति में अब राष्ट्रवादी दृष्टिकोण केवल विकल्प नहीं रहा, बल्कि मुख्यधारा बनता जा रहा है। जब तीन भिन्न-भिन्न भौगोलिक और सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य वाले विश्वविद्यालयों ने लगभग एक ही समय पर परिषद् को बहुमत का जनादेश प्रदान किया, तब यह स्पष्ट हो गया कि यह केवल संयोग नहीं, अपितु राष्ट्रव्यापी परिवर्तन की प्रस्तावना है।
इस विजय के दीर्घकालिक निहितार्थ अत्यन्त गम्भीर एवं व्यापक हैं। आज जब नेपाल, बांग्लादेश जैसे पड़ोसी राष्ट्रों की युवा पीढ़ी अनेक बार अराजक और विनाशकारी गतिविधियों में संलग्न होती देखी जाती है, कभी राजनीतिक अराजकता में, कभी सामाजिक हिंसा में, तब भारत की जेनरेशन-ज़ी एक भिन्न पथ का चयन कर रही है। यहाँ के युवा अपने जीवन को केवल व्यक्तिगत स्वार्थों तक सीमित नहीं कर रहे, बल्कि परिषद की विचारधारा “ज्ञान, शील, एकता”, स्वामी विवेकानन्द की आध्यात्मिक राष्ट्रवादिता, विनायक दामोदर सावरकर की निर्भीक राष्ट्रीय दृष्टि तथा डॉ. भीमराव आम्बेडकर के सामाजिक न्याय के आदर्शों के संगम में अपनी आस्था प्रकट कर रहे हैं। यह अनूठा समन्वय दर्शाता है कि भारतीय युवा राष्ट्रवाद को ज्ञान, सद्गुण, एकता और सामाजिक न्याय के सूत्रों से समृद्ध कर रहे हैं। परिषद के लिए मत देना वस्तुतः उस विचारधारा के प्रति समर्थन है जो भारत को मात्र एक भौगोलिक सत्ता नहीं मानती, बल्कि उसे “मातृभूमि” की संज्ञा देती है, जिसके लिए समर्पण और त्याग सर्वोच्च मूल्य है। यह वही संस्कार है जिसने स्वतंत्रता संग्राम के समय युवाओं को अपना जीवन अर्पित करने के लिए प्रेरित किया था। जब वर्तमान युवा पीढ़ी विश्वविद्यालय के प्रांगणों में खड़े होकर उसी भाव को पुनर्जीवित करती है, तब यह संकेत है कि भारत का भविष्य केवल उपभोग और सुविधा के गणित से निर्धारित नहीं होगा, अपितु राष्ट्रीय ध्येय की साधना ही उसकी नियति को परिभाषित करेगी। यह विजय भारत की लोकतांत्रिक चेतना को भी एक नवीन आयाम प्रदान करती है। छात्रसंघ चुनावों को संसदीय राजनीति की पाठशाला माना जाता है। यदि इस पाठशाला में राष्ट्रवादी मूल्य, अनुशासन, और समाजहित के भाव स्थापित हो रहे हैं, तो भविष्य की राजनीतिक संरचना भी उसी दिशा में विकसित होगी। इससे यह निष्कर्ष सहज ही निकाला जा सकता है कि आने वाले दशक में भारतीय राजनीति में ऐसी युवा पीढ़ी का प्रवेश होगा जिसके लिए सत्ता केवल उपभोग की वस्तु नहीं, बल्कि राष्ट्रसेवा का साधन होगी।
परिषद की सफलता भारतीय संस्कृति के उस शाश्वत सत्य को पुनः पुष्ट करती है कि विचार की शक्ति ही सबसे महान शक्ति है। संसाधनों अथवा क्षणिक लोकप्रियता से चुनाव जीता जा सकता है, किन्तु हृदयों की विजय केवल विचारधारा से ही सम्भव है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने “राष्ट्र प्रथम” की जो पुकार युवाओं के सम्मुख रखी, वह केवल एक राजनीतिक नारा नहीं, अपितु एक जीवन मूल्य बन गई है। यही कारण है कि आज का युवा अपने भविष्य को केवल व्यक्तिगत उपलब्धियों में नहीं, बल्कि सामूहिक राष्ट्रीय उपलब्धियों में खोजने लगा है। यह विजय हमें स्मरण कराती है कि भारत की आत्मा सदैव राष्ट्रीयता में ही निहित रही है। यद्यपि समय-समय पर भिन्न विचारधाराएँ और भिन्न आकर्षण युवाओं को अपनी ओर खींचते रहे, तथापि अन्ततः वही विचार स्थायी हुआ जिसने राष्ट्र को सर्वोपरि रखा। यदि आने वाले वर्षों में यह चेतना निरन्तर पुष्ट होती रही, तो यह न केवल विश्वविद्यालयों को, बल्कि सम्पूर्ण भारतीय समाज को एक ऐसे मार्ग पर अग्रसर करेगी जहाँ शिक्षा और राजनीति का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत उन्नति न होकर, भारत की समग्र समृद्धि और प्रतिष्ठा होगा। इस दृष्टि से देखा जाए तो अभाविप की विजय वास्तव में एक नये युग का उद्घाटन है, ऐसा युग जहाँ भारतीय जेन-ज़ी अपनी युवा शक्ति को राष्ट्र के चरणों में समर्पित करते हुए विश्व-मंच पर भारत को पुनः विश्वगुरु बनाने की ओर अग्रसर होगी।
– अक्षय प्रताप सिंह
(दिल्ली विश्वविद्यलय इकाई मंत्री, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद)