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एकनाथजी रानाडे: एक कर्मयोगी, जिन्होंने संघ से लेकर विवेकानंद स्मारक तक राष्ट्र सेवा का मार्ग प्रशस्त किया

“जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत!” “एक लक्ष्य अपनाओ। उस लक्ष्य को ही अपना जीवन कार्य समझो, उसी को सोचो, उसी के सपने देखो और उसी के सहारे जीवित रहो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, स्नायु और शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओतप्रोत होने दो। दूसरे सब विचारों को अपने से दूर रखो। यही सफलता का रास्ता है।”

– स्वामी विवेकानंद
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यह स्वामी विवेकानंद का वह अध्याय वाक्य था, जो एकनाथजी रानाडे के जीवन की नींव बना। एकनाथजी रानाडे एक ऐसे कर्मयोगी थे, जिन्होंने न केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, बल्कि भारतीय इतिहास के सबसे प्रेरक स्मारकों में से एक, कन्याकुमारी के विवेकानंद शिला स्मारक को साकार करने में भी निर्णायक भूमिका निभाई। उनकी कहानी एक सामान्य व्यक्ति के असामान्य दृढ़ संकल्प और दूरदर्शिता को दर्शाती है, जिसने हर चुनौती को एक अवसर में बदल दिया।

एकनाथजी रानाडे का जन्म 19 नवंबर, 1914 को महाराष्ट्र के अमरावती जिले के टिमटाला गाँव में श्री रामकृष्ण रानाडे और श्रीमती रमाबाई के घर हुआ था। बचपन में वे नागपुर में अपने बड़े भाई के घर रहते थे, जहाँ अपने जीजाजी श्री अन्ना सोहनी के माध्यम से उनका परिचय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से हुआ। एकनाथजी ने संघ के माध्यम से राष्ट्र के पुनर्निर्माण के लिए कार्य करने का निश्चय किया।

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डॉ. हेडगेवार, संघ के संस्थापक, चाहते थे कि एकनाथजी संघ कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने से पहले अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी कर लें। नागपुर के हिसलोप कॉलेज में दर्शनशास्त्र की पढ़ाई के दौरान, बाइबिल की अनिवार्य कक्षाओं में हिंदू धर्म की आलोचना उन्हें व्यथित करती थी। इन झूठे आरोपों का प्रतिकार करने की उनकी तीव्र इच्छा ने उन्हें गीता, उपनिषदों और विवेकानंद साहित्य का गहराई से अध्ययन करने के लिए प्रेरित किया। स्नातक की शिक्षा पूरी करते ही, वे संघ के प्रचारक बनकर जबलपुर चले गए। संघ के विभिन्न प्रशिक्षण वर्गों और गतिविधियों का आयोजन करते हुए, वे एक अनुभवी आयोजक और संगठनकर्ता बन गए।

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एकनाथजी रानाडे की वक्तृत्व कला इतनी शक्तिशाली थी कि स्वयं श्री गुरुजी (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक) स्वयंसेवकों से कहा करते थे कि भले ही वे गुरुजी के भाषणों को भूल जाएं, किंतु एकनाथजी की बातों को सदैव याद रखें।

1948 में महात्मा गांधी की हत्या के बाद जब संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था, तो एकनाथजी ने सरदार पटेल जैसे नेताओं से मुलाकात की। उन्होंने अपने अकाट्य तर्कों से यह सिद्ध किया कि संघ केवल एक सांस्कृतिक संगठन है, आतंकी संगठन नहीं। उन्होंने उस समय इतना कुशल नेतृत्व किया कि कभी-कभी उन्हें ‘भूमिगत सरसंघचालक’ भी कहा जाता था। इस दौरान उन्होंने भूमिगत रहकर पूरे देश में सत्याग्रह को व्यवस्थित किया, जिसमें 80,000 स्वयंसेवकों ने भाग लिया।

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एकनाथजी 1945 में पूरे मध्य प्रदेश के प्रांत प्रचारक बनाए गए और 1950 में वे उत्तर-पूर्वी क्षेत्र (बंगाल, ओडिशा और असम से मिलकर) के प्रचारक बने। उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की सहायता के लिए ‘वस्तुहारा सहायता समिति’ का गठन किया। उन्होंने संघ में अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख, सरकार्यवाह और अखिल भारतीय बौद्धिक प्रमुख जैसे महत्वपूर्ण दायित्व संभाले।

स्वामी विवेकानंद ने 25, 26 और 27 दिसंबर, 1892 को कन्याकुमारी के तट से थोड़ी दूर स्थित एक विशाल शिला पर तीन दिन और रात तक गहन साधना की थी। यह साधना उनके व्यक्तिगत मोक्ष के लिए नहीं, बल्कि राष्ट्र और उसके लोगों के उत्थान के लिए थी, जहाँ उन्हें अपने जीवन का उद्देश्य प्राप्त हुआ। यह शिला ‘श्रीपाद शिला’ के नाम से जानी जाती है, जहाँ माना जाता है कि देवी पार्वती ने तपस्या की थी और उनके पैरों के निशान आज भी दिखाई देते हैं।

1963 में, जब पूरे भारत में स्वामी विवेकानंद की जन्मशताब्दी मनाई जा रही थी, तब कन्याकुमारी के लोगों के मन में इस पवित्र शिला पर एक स्मारक बनाने का विचार आया। इस भव्य कल्पना को मूर्त रूप देने का चुनौतीपूर्ण कार्य तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह एकनाथजी रानाडे को सौंपा गया। यह उल्लेखनीय है कि जिस आयु (लगभग 50 वर्ष) में लोग आमतौर पर सेवानिवृत्ति की योजना बनाते हैं, एकनाथजी ने इस विशाल दायित्व को स्वीकार किया।

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  • कुछ स्थानीय समूहों ने स्मारक के विचार का विरोध किया।
  • अनेक राजनीतिक बाधाएँ भी सामने आईं।
  • तत्कालीन राज्य और केंद्र सरकारें शुरू में इस स्मारक को राष्ट्रीय स्मारक के रूप में मान्यता देने में अनिच्छुक थीं।

एकनाथजी ने अपनी विनम्रता और लौह पुरुष जैसे दृढ़ संकल्प से इन सभी चुनौतियों को एक अवसर में बदल दिया। उन्होंने सभी राजनीतिक दलों के नेताओं से संपर्क किया और उन्हें इस राष्ट्रीय कार्य का समर्थन करने के लिए राजी किया। उन्होंने मात्र तीन दिनों में 323 सांसदों (उस समय उपस्थित लगभग सभी सांसदों) के हस्ताक्षर एकत्र किए, जो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में एकजुटता का अभूतपूर्व उदाहरण था। तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री भक्तवत्सलम, जो पहले विरोध कर रहे थे, बाद में इस कार्य में प्रसन्नतापूर्वक सहयोग किया।

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स्मारक के निर्माण के लिए भारी धन की आवश्यकता थी। एकनाथजी ने एक अनूठा तरीका अपनाया: उन्होंने देश के आम नागरिकों से मात्र एक रुपये का दान देने की अपील की। उनका उद्देश्य था कि हर भारतीय इस राष्ट्रीय यज्ञ में अपना योगदान दे। इस अपील का परिणाम यह हुआ कि लगभग 30 लाख नागरिकों ने कम से कम एक रुपये का योगदान दिया। इसके अलावा, जम्मू-कश्मीर और नागालैंड सहित प्रत्येक राज्य सरकार ने कम से कम एक लाख रुपये का दान दिया, जिससे यह वास्तव में एक राष्ट्रीय स्मारक बन गया। कुल ₹135 लाख की लागत में से, ₹85 लाख एक और दो रुपये के दान से एकत्र हुए।

सभी अनुमतियाँ मिलने के बाद, निर्माण कार्य शुरू हुआ। समुद्री जल से घिरी शिला पर विशाल पत्थरों को खदानों से लाना, उन्हें नौकाओं द्वारा द्वीप तक पहुँचाना और फिर उन्हें सटीक स्थान पर स्थापित करना एक बड़ी चुनौती थी। इस कार्य के लिए शिला पर एक ट्रॉली ट्रैक भी बिछाया गया। इन सभी चुनौतियों के बावजूद, स्मारक का निर्माण कार्य मात्र छह वर्षों में पूरा हो गया। स्मारक का डिज़ाइन वास्तुकार श्री एस.के. आचार्य ने तैयार किया था। इसकी वास्तुकला अजंता-एलोरा, पल्लव, चोल शैलियों और बेलूर मठ से प्रेरित है, जो भारतीय वास्तुकला की विविध शैलियों का एक सामंजस्यपूर्ण मिश्रण है। स्मारक में विवेकानंद मंडपम (ध्यान केंद्र) और श्रीपाद मंडपम शामिल हैं। एकनाथजी चाहते थे कि स्वामी विवेकानंद की प्रतिमा माँ पार्वती के चरणों को देखती हुई प्रतीत हो, और यह डिज़ाइन में भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

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एकनाथजी रानाडे केवल पत्थरों का एक भव्य स्मारक बनाकर संतुष्ट नहीं थे। उनका स्वप्न एक “जीवंत स्मारक” बनाने का था। वे स्वामी विवेकानंद के आदर्शों से प्रेरित ऐसे पुरुषों और स्त्रियों का एक संगठन चाहते थे, जो “मनुष्य निर्माण और राष्ट्र निर्माण” के दोहरे आदर्शों को साकार करने के लिए मिलकर कार्य करें। इसी दूरदृष्टि के साथ, विवेकानंद शिला स्मारक के पूर्ण होने के बाद, उन्होंने विवेकानंद केंद्र की स्थापना की।

22 अगस्त, 1982 को मद्रास (चेन्नई) में हृदयाघात से उनका देहांत हो गया। एकनाथजी रानाडे ने भले ही अपना शरीर त्याग दिया हो, फिर भी उनका दर्शन और उनकी भावना विवेकानंद शिला स्मारक के प्रत्येक पत्थर में, विवेकानंदपुरम की प्रत्येक ईंट में और विवेकानंद केंद्र के प्रत्येक कार्यकर्ता के जीवन में सदैव विद्यमान रहेगा। उनका जीवन उन सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो उनके दिखाए मार्ग पर चलना चाहते हैं। वे एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने अपने पूरे जीवन को स्वामी विवेकानंद के आदर्शों को समर्पित कर दिया और उन्हें एक जीवंत वास्तविकता में बदल दिया।

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एकनाथजी ने अत्यंत सावधानीपूर्वक विवेकानंद केंद्र को आकार दिया, इस बात का विशेष ध्यान रखते हुए कि यह केवल एक वैचारिक संगठन न बने, बल्कि एक सक्रिय आंदोलन के रूप में विकसित हो। केंद्र का मुख्य उद्देश्य भारत का पुनर्निर्माण करना और उसे ‘जगतगुरु’ के रूप में स्थापित करना है, जो स्वामी विवेकानंद के शिक्षा, चरित्र निर्माण और सामाजिक उत्थान के सिद्धांतों पर आधारित है।

आज, विवेकानंद केंद्र विभिन्न सेवा योजनाओं के माध्यम से देश के विभिन्न हिस्सों में, विशेष रूप से पूर्वोत्तर भारत में कार्य कर रहा है। इसकी प्रमुख गतिविधियों में शामिल हैं:

  • शिक्षा: अरुणाचल प्रदेश जैसे क्षेत्रों में शैक्षिक संस्थान (विवेकानंद केंद्र विद्यालय) स्थापित करना, जहाँ इसने नशीली दवाओं की लत और नक्सलवाद जैसी चुनौतियों का सामना किया। ‘अरुण ज्योति योजना’ के तहत स्कूल छोड़ चुके बच्चों को वापस शिक्षा से जोड़ा जाता है।
  • स्वास्थ्य सेवा: पूर्वोत्तर के गाँवों में स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना。
  • ग्राम विकास: ग्रामीण क्षेत्रों के विकास के लिए कार्य करना।
  • सांस्कृतिक संस्थान: भारतीय संस्कृति और मूल्यों को बढ़ावा देना, विशेषकर ‘विवेकानंद केंद्र सांस्कृतिक संस्थान’ (VKIC) के माध्यम से पूर्वोत्तर की जनजातीय संस्कृतियों पर शोध करना और उनके आर्थिक उत्थान में मदद करना。
  • युवा मार्गदर्शन: युवाओं के सर्वांगीण विकास के लिए कार्यक्रम चलाना।
  • संस्कार वर्ग, योग वर्ग और स्वाध्याय वर्ग: देशभर में व्यक्तित्व विकास और नैतिक मूल्यों के प्रसार के लिए नियमित कक्षाएँ आयोजित करना।
  • प्रकाशन: स्वामी विवेकानंद के विचारों को विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रसारित करना।

आज विवेकानंद केंद्र 200 से अधिक स्थानों पर अपनी सेवाएँ दे रहा है। एकनाथजी की दूरदृष्टि ने विवेकानंद केंद्र इंटरनेशनल की भी स्थापना की। उनके इस विचार ने वर्षों बाद दिल्ली में विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (VIF) का रूप लिया, जिसका उद्देश्य भारतीय विचारधारा और संस्कृति को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत करना है, जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा और हिंदू सभ्यता के संदेश पर विशेष ध्यान दिया जाता है। भारत सरकार ने विवेकानंद केंद्र की इन उपलब्धियों को पहचानते हुए 2015 का गांधी शांति पुरस्कार प्रदान कर इसे सम्मानित किया।

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एकनाथजी रानाडे स्वयं को एक छोटा कार्यकर्ता मानते थे और कहते थे कि उनके लिए दूसरों के हस्ताक्षर ही पर्याप्त हैं। वे व्यक्तिगत प्रसिद्धि से दूर रहे और हमेशा इस बात पर जोर देते थे कि “एक व्यक्ति संरचना का निर्माण करता है, लेकिन संरचना व्यक्ति का निर्माण नहीं करती है”। उनका जीवन निस्वार्थ सेवा, दृढ़ विश्वास और चुनौतियों का सामना करने की अदम्य इच्छा का एक उदाहरण है।

22 अगस्त 1980 में अत्यधिक परिश्रम के कारण उन्हें मस्तिष्क का दौरा पड़ा, किंतु अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से वे इस शारीरिक चुनौती से उबरकर पूरे देश का व्यापक दौरा करने में सक्षम रहे।

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1 thought on “एकनाथजी रानाडे: एक कर्मयोगी, जिन्होंने संघ से लेकर विवेकानंद स्मारक तक राष्ट्र सेवा का मार्ग प्रशस्त किया”

  1. एकनाथ जी के जीवन , शिला स्मारक और विवेकानंद केंद्र तीनों विषयों पर सारगर्भित जानकारी के लिए आभार ।

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