बीसवीं सदी के भारत में एक व्यक्ति से ब्रिटिश साम्राज्य इतना घबराया की उन्हें ” सबसे खतरनाक अपराधी” का टाइटल दे दिया गया , वे थे वीर विनायक दामोदर सावरकर।
‘वरं जनहितं ध्येयं केवलं, न जनस्तुति’
अर्थात् – लोगों की प्रशंसा पाने से कहीं बेहतर है कि केवल जनकल्याण का चिंतन किया जाए
वीर सावरकर का जीवन उक्त शब्दों का अडिग सार प्रस्तुत करता है।भारत की स्वतंत्रता संग्राम की कथा में कई नाम उज्ज्वल अक्षरों में लिखे जाते हैं – गांधी, नेहरू। लेकिन इसी इतिहास की धारा में एक ऐसा व्यक्तित्व भी है, जिसे सुनियोजित ढंग से हाशिये पर डाल दिया गया। वह व्यक्तित्व था स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर।
आज जब हम उनके जीवन की परतों को खोलते हैं, तो पाते हैं कि सावरकर केवल एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे, बल्कि विचारों की ऐसी ज्वाला थे जो काले पानी की कालकोठरी में भी बुझ नहीं सकी।

सेल्युलर जेल : जहाँ इंसान टूट जाते थे
जिस सावरकर पर म्लेच्छों द्वारा माफीवीर होने के लांछन लगते हैं , उन सावरकर से अंग्रेज़ राज इतना घबराया हुआ था की 1909 में इंग्लैंड में क्रांतिकारी गतिविधियों में शामिल होने और ‘भारत को भारतीयों के लिए’ का नारा बुलंद करने वाले सावरकर को अंग्रेज़ों ने गिरफ़्तार किया।
तत्पश्चात 1911 में उन्हें 50 साल की दोहरी आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई और अंडमान की कुख्यात सेल्युलर जेल भेज दिया गया।
सेल्युलर जेल एक ऐसी जगह जिसे उस दौर में ‘काला पानी’ कहा जाता था। यहाँ कैदियों को एक-एक कोठरी में बंद कर दिया जाता था। न खिड़की, न रोशनी, केवल घुटन और अंधकार।
सावरकर को जिस कोठरी में रखा गया था, वहाँ न बिस्तर था, न साफ हवा।
भोजन में अक्सर कीड़ों से सना बदबूदार सड़ा हुआ खाना दिया जाता था ।
रोज़-रोज़ की कोल्हू पेराई करवाई जाती थी।रुकने पर पीठ पर कोड़े पड़ते ।बेहोश होकर गिर जाने तक कैदियों से बैल की तरह तेल निकलवाया जाता था ।
लोहे की बेड़ियाँ केवल शरीर में जकड़ी ही नहीं थी , मानसिक यातना देने के उद्देश्य से कैदियों का एक दूसरे से बातचीत करना भी अपराध माना जाता था , सभी प्रकार के वार्तालाप गैर कानूनी और “बैरी ” के नियमों का उल्लंघन माना जाता था। हिन्दू कैदियों के जनेऊ उतरवा दिए जाते थे (पंडित राम रखा ने इसी जनेऊ के सम्मान में लड़ते हुए यहाँ वीर गति पा ली थी )।
२०० की संख्या में कैदियों को किसी निर्जन द्वीप(हवेलोक आईलैंड्स ) पर ले जाकर जबरन डुबो दिया जाता था , फिर कभी इतनी ही संख्या में गरचरामा के एक अज्ञात स्थान पर ले जाकर मार दिया, सैकड़ों कैदियों का नरसंहार एक निर्जन द्वीप तर्मुगली द्वीप पर भी किया गया ।
यह सब किसी इंसान को मानसिक और शारीरिक रूप से तोड़ देने के लिए काफी था। पर सावरकर टूटे नहीं।
दीवारें बनीं किताब
सावरकर की सबसे बड़ी ताकत उनका विचार था। जेल में उन्हें कागज़ और कलम नसीब नहीं था। लेकिन विचारों को रोक कौन सकता था?
वे दीवारों पर नाखूनों और कोयले से कविताएँ लिखते। जो याद रह गईं, उन्हें बार-बार गुनगुनाते ताकि दिमाग में अंकित हो जाएँ।
उनकी लिखी कविताएँ साथी कैदियों तक ऐसे पहुँचीं जैसे आज़ादी का गुप्त पैग़ाम।
वह कहते थे –
“कैद दीवारों की नहीं होती, कैद विचारों की होती है। और मेरे विचार आज़ाद हैं।”
सेल्युलर जेल में कैदियों का मनोबल अक्सर टूट जाता था। लेकिन सावरकर साथी कैदियों को हिम्मत देते।
वे उन्हें समझाते – “अंग्रेज़ हमें मार सकते हैं, लेकिन हमारी आत्मा को कैद नहीं कर सकते।”
यही कारण था कि सबसे कठिन हालात में भी सावरकर कैदियों के बीच नेतृत्व का केंद्र बने रहे।
जहाँ एक और दूसरी जेलों में कुछ कद्दावर नेताओं ने जेल में विशेष सुविधाएँ पाईं जैसे लिखने-पढ़ने का समय, मुलाक़ातें, यहाँ तक कि बकरी का दूध भी ।कुछ ने जेल में रहते हुए “डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया” जैसी किताबें लिखीं, और अपने संस्मरणों में ‘कैद’ को साहित्यिक तपस्या बताया। वहीं ये राष्ट्र की घोर साधना में लिप्त सावरकर यातना दर यातना स्वतंत्र राष्ट्र का निर्माण कर रहे थे ।

परिवर्तनकारी विचार जो आज के युग को भी बेहतर बना रहे हैं
सावरकर प्रकांड ज्ञानी, उनकी सोच व उनके विचार युगांतर में परिवर्तन की क्रांति लाने की प्रेरणा और मार्गदर्शक थे । जानिये उनके वे विचार जिन्होंने आगे आने वाली पीढ़ियों को झकझोरा:
हिंदुत्व की परिभाषा – सावरकर ने हिंदुत्व को केवल धार्मिक परिभाषा नहीं दी। उनके अनुसार, हिंदुत्व का अर्थ था – इस भूमि को ‘मातृभूमि’ और ‘पुण्यभूमि’ मानने वाले सभी लोग।
सामाजिक क्रांति – वे मानते थे कि स्वतंत्रता तभी सार्थक है जब समाज अंधविश्वास और भेदभाव से मुक्त हो। उन्होंने अस्पृश्यों के लिए मंदिर प्रवेश का समर्थन किया और जातिगत भेद मिटाने का आह्वान किया।
राष्ट्र प्रथम – सावरकर कहते थे कि राष्ट्र के प्रति निष्ठा ही सर्वोच्च धर्म है। व्यक्तिगत आस्था या विचार राष्ट्र से ऊपर नहीं हो सकते।
सैन्य दृष्टिकोण – उनके विचार में स्वतंत्रता केवल प्रार्थना और उपवास से नहीं, बल्कि शक्ति और संगठन से मिल सकती है।
आधुनिकता – वे विज्ञान और तर्क को अपनाने के पक्षधर थे। परंपराओं का सम्मान, लेकिन अंधविश्वास का विरोध उनका मूल मंत्र था।
धूमिल की गई विरासत
स्वतंत्रता के बाद यह अपेक्षित था कि सावरकर को राष्ट्रीय नायक के रूप में याद किया जाएगा। लेकिन हुआ उल्टा।
उनके नाम पर सवाल खड़े किए गए।
उनके विचारों को तोड़ा-मरोड़ा गया।
यहाँ तक कि उन्हें देशद्रोही तक कहने का दुस्साहस किया गया।
असल में सावरकर इतने मुखर और साहसी थे कि वे एक विशेष राजनीतिक खांचे में फिट नहीं होते। उनके राष्ट्र स्पर्शी विचार , अनेकों की राजनीतिक आकांक्षों की राह का रोड़ा थे , शायद यही कारण था कि उनकी विरासत पर धूल डालने की कोशिशें हुईं और आज़ादी के ७८ साल बाद अभी भी हो रही है ।
वो किरदार कितना बड़ा होगा जिनके मृत्यु के इतने दशकों पश्चात भी उनके विचारों के प्रवाह को रोका जा रहा है क्यूंकि इन विचारो से प्रायः जन जागरण संभव है , झूठी राजनीति का पतन संभव है एवं राष्ट्र को निजी स्वार्थ के हथियार बनाने वालों के लिए घातक सिद्ध हो सकते हैं ।
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