Vsk Jodhpur

मुंबई बम ब्लास्ट: एक कोर्ट में दोषी, एक में बरी… न्याय का अजीब खेल!

1000608136165381709499756026
11 जुलाई 2006 को हुए मुंबई लोकल ट्रेन धमाकों के मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने  12 आरोपियों को बरी कर दिया है...

मुंबई बम ब्लास्ट केस. नाम सुनते ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं, वो भयावह मंजर आँखों के सामने घूम जाता है. लेकिन हाल ही में इस केस ने एक नया मोड़ लिया है, जिसने न्याय की देवी को भी शायद मुस्कुराने पर मजबूर कर दिया होगा, या शायद सोचने पर कि वो किस अजीब दुनिया में रहती हैं.
खबरें आ रही हैं कि मकोका (MCOCA) अदालत द्वारा दोषी करार दिए गए कुछ आरोपियों को मुंबई हाईकोर्ट ने बरी कर दिया है. साल 2006 के मुंबई लोकल ट्रेन ब्लास्ट मामले में बड़ा फैसला देते हुए बॉम्बे हाईकोर्ट ने विशेष न्यायालय द्वारा दोषी ठहराए गए सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया है. इस फैसले में कहा कि “जो भी सबूत पेश किए गए थे, उनमें कोई ठोस तथ्य नहीं था”, और इसी आधार पर “सभी आरोपियों को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया गया है.” 

1000608135432994571792208603
@भास्कर एक्सप्लेनर

यह कैसी इन्वेस्टिगेशन है , ज्यूडिशियल सिस्टम है 19 साल हो गए हमें पता ही नहीं दोषी कौन?

एक कोर्ट दोषी करार देती है तो दूसरा निर्दोष कैसे? ये वैसा ही है जैसे एक ही थाली में परोसी गई दाल को एक कहे ‘वाह क्या स्वाद है’ और दूसरा कहे ‘अरे इसमें तो नमक ही नहीं है!’
ज़रा सोचिए, निचली अदालत ने ढेर सारे सबूत, गवाहियाँ, और न जाने कितने कानूनी दांवपेच खंगालकर किसी को दोषी ठहराया होगा. उन्होंने घंटों, शायद दिनों, महीनों या कहे सालों तक माथापच्ची की होगी, फाइलें पलटी होंगी, वकीलों की दलीलें सुनी होंगी. और फिर, बड़े ही यकीन के साथ, फैसला सुनाया होगा कि ‘हाँ, ये शख्स दोषी है!’
अब यही सबूत जब हाईकोर्ट के सामने गए, तो क्या उन सबूतों ने अपना रंग बदल लिया? क्या निचली अदालत को जो सीसीटीवी फुटेज ‘अपराधी’ दिखा रहा था, वो हाईकोर्ट को ‘बेकसूर’ दिखाने लगा? क्या वही चश्मदीद गवाह, जिसने निचली अदालत में ‘हाँ’ कहा था, उसने हाईकोर्ट में जाकर ‘ना’ कह दिया? या फिर सबूतों ने ख़ुद ही आपस में बैठक कर ली और तय किया कि ‘चलो आज हाईकोर्ट को उल्लू बनाते हैं, निचली अदालत को कुछ और दिखाएंगे और इनको कुछ और!’
ये तो ऐसा हो गया जैसे एक ही क्लास में एक ही टीचर ने एक ही पेपर चेक किया हो, लेकिन दो अलग-अलग कॉपियों में एक को 90 नंबर दे दिए हों और दूसरे को 0! फिर आप पूछेंगे, ‘सर, ये भेदभाव क्यों?’ और सर कहेंगे, ‘अरे बेटा, वो देखने का नजरिया है!’
अदालत क्या करती है, इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर सकते… बात यह है कि इतना बड़ा हादसा हुआ, निचली अदालत ने सज़ा सुनाई, ऐसे में हाईकोर्ट ने बिल्कुल अलग फैसला दिया,

तो क्या न्याय का ‘नजरिया’ इतना बदल जाता है? क्या सबूतों में इतनी लोच होती है कि वो अदालत-दर-अदालत अपना अर्थ बदल लें? अगर ऐसा है, तो फिर निचली अदालतों का औचित्य ही क्या है? क्यों इतने जजों, वकीलों, और कर्मचारियों का तामझाम पाला जाए, जब अंतिम फैसला हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट को ही पलटना है?

शायद न्याय प्रक्रिया अब एक ‘मल्टीवर्स’ की तरह काम करती है. एक ब्रह्मांड में आप दोषी हैं, दूसरे ब्रह्मांड में आप बेकसूर. और ये न्यायाधीश तय करते हैं कि आप किस ब्रह्मांड में हैं!
तो अगली बार जब कोई कहे कि ‘सबूतों के आधार पर फैसला हुआ है’, तो ज़रा ठिठक जाइएगा. पूछिएगा, ‘कौन से सबूत? किस अदालत के सबूत? और कहीं ऐसा तो नहीं कि ये सबूत अपना रंग बदलने वाले हों?’

इस पूरे मामले में खास बात ये रही कि 2023 में सेवानिवृत्त हुए उड़ीसा हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एस. मुरलीधरन ने अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व किया।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश मुरलीधर जैसा कोई प्रतिष्ठित व्यक्ति मुंबई बम कांड जैसे संवेदनशील और राष्ट्र की सामूहिक चेतना को झकझोर देने वाले मामले में अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व करने का निर्णय लेते हैं, (हालांकि ये उनका व्यक्तिगत निर्णय है और इसका उनको अधिकार भी है) तो यह स्वाभाविक रूप से समाज के विभिन्न वर्गों से तीखी प्रतिक्रियाओं और गहन बहस को जन्म देगा

10006081344891815182891807330
उड़ीसा हाइकोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश एस.मुरलीधरन ने अभियुक्तों का प्रतिनिधित्व किया

यह न केवल कानूनी और नैतिक सिद्धांतों पर गहन बहस छेड़ देगा, बल्कि समाज के भीतर गहरी भावनात्मक और वैचारिक दरारों को भी उजागर करेगा, एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के लिए यह कदम उनके पूर्व पद की गरिमा, जन भावना और न्यायपालिका की सार्वजनिक छवि पर गंभीर प्रश्नचिह्न लगा सकता है।

मुंबई बम कांड के पीड़ित और उनके परिवार पहले से ही अपूरणीय क्षति और पीड़ा से गुज़र रहे है और यह निर्णय उनके घावों पर नमक छिड़कने जैसा है।

बम विस्फोट में घायल हुए चिराग चव्हाण ने कहा कि बम कांड पर आए निर्णय से लगता है कि “ब्लास्ट हुआ ही नहीं है, 19 साल के इंतजार के बाद  ऐसा निर्णय आने से लगता है कि सब कुछ शून्य में बदल गया है

यह प्रतिक्रिया सिर्फ एक व्यक्ति का दर्द नहीं है, बल्कि उन सभी पीड़ितों की सामूहिक आवाज़ है जो मानते हैं कि उन्हें न्याय नहीं मिला है।

10006081374227140679189565649

एक बात और गौर करने वाली है
जमीयत उलेमा-ए-हिंद को एक और बड़ी कामयाबी मिल गई।

फोटो संकलन :- दैनिक भास्कर

सोशल शेयर बटन

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Archives

Recent Stories

Scroll to Top