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लद्दाख आंदोलन: छठी अनुसूची की मांग और भारतीय संघीय राजनीति में इसका प्रभाव



प्रस्तावना

सितंबर 2025 में लद्दाख में छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा और पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग को लेकर उग्र आंदोलन हुआ। हालिया घटनाओं में शांतिपूर्ण विरोध अचानक हिंसक हो गया, जिसमें चार लोगों की मौत और कई लोग घायल हुए। यह आंदोलन स्थानीय युवाओं के नेतृत्व में हुआ, जिसमें मुख्य मांगें थीं – भूमि और पहचान की सुरक्षा, रोजगार में स्थानीय युवाओं को प्राथमिकता, तथा लद्दाख के लिए अलग लोकसभा सीटें.

आंदोलन की पृष्ठभूमि

लद्दाख को छह साल पहले जम्मू-कश्मीर से अलग कर केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया था, पर यहां विधानसभा नहीं है। शुरू में स्थानीय लोग खुश थे, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संस्कृति, भूमि और संसाधनों को लेकर असुरक्षा बढ़ी[4]. इसी से छठी अनुसूची में शामिल करने की मांग तेज़ हो गई। पर्यावरणविद और सामाजिक कार्यकर्ता सोनम वांगचुक इस आंदोलन के प्रमुख चेहरे रहे हैं, जिन्होंने भूख हड़ताल, पदयात्रा और शांतिपूर्ण विरोध के माध्यम से सरकार पर दबाव बनाया.
छठी अनुसूची क्या है?

भारतीय संविधान की छठी अनुसूची आदिवासी-बहुल क्षेत्रों जैसे असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिज़ोरम को स्वशासन, भूमि और संसाधन संरक्षण, तथा सांस्कृतिक संरक्षण की गारंटी देती है। इसकी वजह से बाहरी हस्तक्षेप कम होता है और स्थानीय समाज को अधिकार मिलते हैं

लद्दाख में छठी अनुसूची की माँग

लद्दाख की 97% आबादी अनुसूचित जनजाति है। केंद्रशासित प्रदेश बनने के बाद स्थानीय जनता को डर है कि बाहरी लोग उनकी ज़मीनें खरीद सकते हैं और संसाधनों पर कब्ज़ा कर सकते हैं[5][9]. इस विसंगति को दूर करने के लिए लद्दाख के लोग छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा की मांग कर रहे हैं। मुख्य मांगें हैं –
– भूमि/संपत्ति पर पूर्ण नियंत्रण
– पहचान और संस्कृति की रक्षा
– आदिवासी दर्जा और संसद में प्रतिनिधित्व
– स्थानीय प्रशासन में अधिक अधिकार.



आंदोलन का स्वरूप और घटनाक्रम

सितंबर 2024 से शांतिपूर्ण भूख हड़तालों, पदयात्रा और ज्ञापन के माध्यम से विरोध चला। आंदोलनकारियों ने “दिल्ली चलो” पैदल मार्च भी किया। 24 सितंबर 2025 को विरोध अचानक हिंसक हो गया, जिसमें भाजपा कार्यालय और स्वायत्त विकास परिषद को आग लगाई गई, पुलिस के साथ झड़पें हुईं.



सरकार का रुख और संवाद

सरकार ने हिंसा के बाद लद्दाख में कर्फ्यू लगाया और इंटनेट सेवाएं धीमी कर दी। केंद्र सरकार, लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस जैसे स्थानीय संगठनों से संवाद की प्रक्रिया शुरू की। अनुसूचित जनजाति आरक्षण बढ़ाकर 84% किया, परिषदों में महिलाओं के लिए एक-तिहाई आरक्षण का ऐलान किया, लेकिन मुख्य मांगें – छठी अनुसूची और राज्य का दर्जा – अभी तक लंबित हैं



संघीय राजनीति और अन्य राज्यों पर प्रभाव

अगर लद्दाख को छठी अनुसूची या विशेष प्रावधान मिलते हैं, तो यह मिसाल बनेगी। देश के अन्य आदिवासी या सांस्कृतिक पहचान वाले क्षेत्र भी ऐसे संवैधानिक अधिकारों की मांग शुरू कर सकते हैं। ठीक वैसे ही जैसे ओबीसी या अनुसूचित जाति-जनजाति आरक्षण को लेकर देशभर में आंदोलन होते हैं। इससे भारत की संघीय-संवैधानिक व्यवस्था पर नई चुनौतियाँ सामने आ सकती हैं[.



निष्कर्ष

लद्दाख का आंदोलन केवल स्थानीय जमीन, संस्कृति और पहचान की सुरक्षा की मांग नहीं है, बल्कि यह देश में क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और जनजातीय अधिकारों के लिए नए किस्म की संवैधानिक बहस की दिशा दिखाता है। सरकार को क्षेत्र-विशेष और समावेशी ढांचे की ओर ठोस कदम उठाने होंगे, जिससे न सिर्फ लद्दाख बल्कि ऐसे हर क्षेत्र की पहचान, लोकतंत्र और पारिस्थितिकी सुरक्षित रह सके l

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