भारत की आत्मा को समझने के लिए केवल ग्रंथों का अध्ययन ही नहीं, बल्कि भारत भूमि का साक्षात स्पर्श करना भी आवश्यक है। ऐसे ही एक युगदृष्टा थे श्री गुरूजी – माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर, जिन्होंने न केवल राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व समर्पित किया, बल्कि भारतवर्ष का 66 बार भ्रमण कर इसकी नाड़ी को समझा, जागृत किया और जोड़ा।
श्री गुरुजी का जन्म 19 फरवरी 1906 को हुआ था और 5 जून 1973 को उन्होंने अपना देहावसान किया। वे आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक थे और इस भूमिका में उन्होंने 33 वर्षों तक निस्वार्थ भाव से कार्य किया। कॉलेज में प्रोफेसर होने के कारण उन्हें ‘गुरुजी’ के नाम से जाना गया और यही नाम उनके व्यक्तित्व का पर्याय बन गया।
आध्यात्मिक ऊंचाई को प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने जीवन को राष्ट्रसेवा हेतु समर्पित कर दिया। सरल स्वभाव, मृदु वाणी और आत्मीयता से भरपूर उनका व्यक्तित्व हर आयु और वर्ग के लोगों को सहज ही अपनी ओर आकर्षित करता था।
भारत विभाजन के समय उन्होंने न केवल संगठन को मजबूती दी, बल्कि कई स्थानों पर स्वयं सेवकों के नेतृत्व में हिंदुओं की जान बचाने का कार्य भी किया। वे भारत के चारों शंकराचार्यों को एक मंच पर लाने वाले अद्भुत विचारक थे। उन्होंने यह उद्घोष किया कि “सभी हिंदू एक ही माता के संतान हैं, कोई हिंदू पतित नहीं है” – यह विचार भारतीय समाज में एकता का दीपक बनकर आज भी जलता है।
गुरुजी एक निर्भीक विचारक थे। संघ की कई प्रमुख शाखाओं और संस्थाओं की नींव उन्होंने रखी। वे अपने ज्ञान, कुशाग्र बुद्धि और संवाद की शैली के लिए प्रसिद्ध थे। जिससे भी एक बार मिलते, वह व्यक्ति जीवनभर उन्हें याद रखता। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने दायित्व के दौरान हर दिन औसतन पाँच पत्रों के उत्तर स्वयं लिखे। यह उनकी कार्यशैली की गंभीरता और जिम्मेदारी का प्रमाण है।
रेलगाड़ी के डिब्बे को अपना घर बना चुके गुरुजी, 33 वर्षों में 66 बार भारत का भ्रमण कर देश के कोने-कोने से जुड़े। उनका जीवन स्वयं एक चलती-फिरती पाठशाला था – जो राष्ट्र, धर्म और संस्कृति का अमूल्य संदेश देती रही।
आज जब हम भारत के पुनरुत्थान की बात करते हैं, तो गुरु गोलवलकर जी जैसे व्यक्तित्व हमारे लिए प्रेरणा स्रोत बनते हैं। उनका जीवन यह सिखाता है कि एक सच्चे राष्ट्रसेवक का मार्ग तपस्या, निष्ठा और त्याग से होकर ही गुजरता है।
