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कालपी का संघर्ष – 22 मई 1857: स्वाधीनता संग्राम का एक क्रांतिकारी अध्याय

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भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 में देश के अधिकांश भागों में लड़ा गया, और उत्तर प्रदेश का कालपी नगर इस क्रांति का एक प्रमुख केंद्र था। यह स्थान न केवल सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण था, बल्कि रणनीतिक योजना और हथियार निर्माण के लिए भी जाना जाता था।

कालपी की भौगोलिक और सामरिक विशेषता
यमुना नदी के ऊँचे किनारे पर बसा कालपी दुर्ग, इस संग्राम के संचालन का प्रमुख नियंत्रण कक्ष था। दुर्ग की एक भूमिगत कक्ष में हथियार बनाये जाते थे, और क्रांतिकारियों की कोषागार भी यहीं स्थित थी।

रणनीतिक योजनाएँ और क्रांतिकारी गतिविधियाँ
कालपी में नाना साहेब की सेनापति के रूप में रानी लक्ष्मीबाई, कुंवरसिंह और अन्य क्रांतिकारी नेताओं की नियमित बैठकें होती थीं। नाना साहेब ने बुंदेलखंड के सभी राजे-रजवाड़ों को पत्र भेजकर कालपी में अपनी सेनाएँ भेजने का आग्रह किया था।

युद्ध की तैयारी और संगठन
दुर्ग में तोपों की ढलाई शुरू हो चुकी थी। जालौन के कारीगरों ने स्थानीय शेरों, कोयला और मिर्जापुर से प्राप्त रसायनों से बारूद और बम बनाये। यमुना में चलने वाली 200 नावों का नियंत्रण क्रांतिकारियों ने अपने हाथ में ले लिया था ताकि अंग्रेजों का प्रवेश रोका जा सके।

भयंकर संघर्ष और बलिदान
1858 में कालपी में हुए युद्ध में लगभग 10,000 सैनिक और 12 तोपें युद्ध के लिए तैयार थीं। अंग्रेजों के साथ हुए भयंकर संघर्ष में 500 क्रांतिकारी वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में बड़ी संख्या में क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति दी।

निष्कर्ष
कालपी का यह संघर्ष केवल एक युद्ध नहीं था, बल्कि यह भारत के स्वतंत्रता संग्राम की वह मशाल थी जिसने आगे चलकर स्वतंत्रता के व्यापक आंदोलन का मार्ग प्रशस्त किया। रानी लक्ष्मीबाई, नाना साहेब और हजारों बलिदानी वीरों का यह योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा।


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